विदेशी किरदारों के देसी बोल

परदे पर फ़र्राटेदार हिंदी या दूसरी भारतीय भाषा बोलते विदेशी चरित्र. शुद्ध भारतीय भाषा में रोमांटिक डायलॉग बोलते, गाली गलौच करते और मारपीट करते ये विदेशी किरदार. जी हां, भारत में हॉलीवुड फ़िल्मों को भारतीय भाषा में डब करके रिलीज़ करने का व्यापार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है.
(कौन बोलता है बॉन्ड के लिए हिंदी का संवाद)
पिछले शुक्रवार रिलीज़ हुई हॉलीवुड फ़िल्म 'द लेजेंड्स ऑफ़ हर्क्यूलिस' ऐसी ही फ़िल्म है जिसे हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में डब करके रिलीज़ किया गया.
इन विदेशी फ़िल्मों के राइट्स ख़रीद कर उसे डब करके भारत में रिलीज़ करने वाली एक बड़ी कंपनी पीवीआर पिक्चर्स के मार्केटिंग हेड गिरीश वानखेड़े कहते हैं, "एक बार जब हम कोई हॉलीवुड फ़िल्म के भारतीय अधिकार ख़रीद लेते हैं तो उसे यहां किस तरह से रिलीज़ करना है ये हमारा फ़ैसला हो जाता है. फिर हम उसे हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में डब कराते हैं."
(फ़िल्म स्टूडियोज़: जाने कहां गए वो दिन)
"इसके वॉइस ओवर के लिए कलाकारों का चयन भी हम ख़ुद करते हैं. जैसे हर्क्यूलिस के किरदार के लिए हम पहले अक्षय कुमार को अप्रोच कर रहे थे, लेकिन वो व्यस्तता की वजह से ये नहीं कर पाए. तो हमने सोनू सूद को चुना."
गिरीश के मुताबिक़ डबिंग के लिए कलाकारों का चयन उस किरदार की शख़्सियत को ध्यान में रख कर किया जाता है, इसलिए हर्क्क्यूलिस के किरदार की डबिंग के लिए अक्षय या सोनू जैसे मज़बूत कद काठी के लोगों को चुनना ज़रूरी था.
डबिंग स्टूडियो
हॉलीवुड के बड़े स्टूडियो जै़से यूनिवर्सल और 20 सेंचुरी फॉक्स की बनाई फ़िल्में जब भारत में रिलीज़ होती है तो इन कंपनियों के भारत स्थित ऑफ़िस डबिंग स्टूडियो से संपर्क करते हैं.
(क्या गुज़र गए ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों के दिन)
मशहूर फ़िल्मकार शक्ति सामंत के बेटे असीम सामंता का मुंबई में एक बड़ा डबिंग स्टूडियो हैं, जहां पर हॉलीवुड फ़िल्मों की डबिंग और मिक्सिंग होती है.
असीम के स्टूडियो में 1993 में रिलीज़ हुई ब्लॉक बस्टर 'जुरासिक पार्क' सहित 100 से ज़्यादा हॉलीवुड फ़िल्मों की डबिंग हो चुकी है.
असीम कहते हैं, "मुंबई भर में 60 से 70 डबिंग आर्टिस्ट हैं. हम किसी भी किरदार के लिए इन हॉलीवुड स्टूडियोज़ को 3 वॉइस सैंपल भेजते हैं जिसमें से वो एक चुनते हैं. तब हम उस आर्टिस्ट को फ़ाइनल करके डबिंग शुरू करवाते हैं."
असीम ने बताया कि कुछ हॉलीवुड फ़िल्मों की डबिंग सिर्फ़ टीवी के लिए होती है. उसमें क़्वालिटी का उतना ध्यान नहीं रखा जाता. बस डिस्ट्रीब्यूटर उसे जैसे-तैसे डब करवा लेता है.
असीम ने बाताया कि कुल मिलाकर भारत में हॉलीवुड की एक्शन फ़िल्मों की ज़्यादा डिमांड होती है. अभी वहां की एनिमेशन फ़िल्मों का बाज़ार उतना बड़ा नहीं है.
असीम ने ये भी बताया कि बड़े बॉलीवुड सितारों जैसे अक्षय कुमार या शाहरुख़ ख़ान की आवाज़ लेने से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होता और फ़िल्म तभी चलती है जब उसकी कहानी में दम हो.
आम तौर पर एक फ़िल्म को डब करने का ख़र्च 8-10 लाख रुपए के बीच आता है.
कैसे होता है प्रमोशन
पीवीआर के गिरीश वानखेड़े के मुताबिक़ इऩ हॉलीवुड फ़िल्मों की डबिंग के बाद भी उनके प्रमोशन के लिए ख़ास रणनीति बनाई जाती है. स्पेशल स्क्रीनिंग रखी जाती है, शहरों में बड़े बड़े होर्डिंग लगाए जाते हैं, थिएटर में ट्रेलर दिखाए जाते हैं.
एक और ख़ास बात ये है कि दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में तो फ़िल्म का मूल अंग्रेज़ी संस्करण भी अच्छा व्यापार कर लेता है लेकिन इंदौर, भोपाल, लखनऊ और पटना जैसे शहरों में फ़िल्मों के डब संस्करण अच्छा व्यापार करते हैं.
किन बातों का ख़्याल
एक ज़माना था जब इन विदेशी फ़िल्मों के डब संस्करण देखना एक बेहद अटपटा अनुभव होता था, जिसमें बड़े अजीब तरह के बेतुके संवाद होते थे लेकिन अब जैसे जैसे समय बढ़ रहा है फ़िल्मों की डबिंग पर ख़ास ध्यान दिया जाने लगा है.
'जुरासिक पार्क', 'वॉल्वरिन', 'दि एडवेंचर ऑफ़ टिनटिन' और 'जेम्स बॉन्ड' समेत कई फ़िल्मों के लिए डबिंग कर चुके कलाकार शक्ति सिंह कहते हैं, "अब हिंदी भाषा को ही लीजिए. भारत में अलग-अलग क्षेत्र में इसका उच्चारण लोग अलग अलग तरीक़े से करते हैं. हमें ऐसी सार्वभौमिक हिंदी बोलनी पड़ती है जो भारक के हर कोने के लोग समझ सकें. स्क्रिप्ट के साथ हमें थोड़ी आज़ादी मिलती है. अगर उसमें पर्याप्त इमोशन नहीं आ रहे हैं तो हम अपने हिसाब से उसमें कुछ बदलाव कर देते हैं."
पैसा
शक्ति सिंह के मुताबिक़ 90 के दशक में इस पेशे में पैसा बिलकुल भी अच्छा नहीं था लेकिन जैसे जैसे ये इंडस्ट्री बढ़ रही है लोगों को पैसा ठीक मिलने लगा है.
('सबसे ख़राब ड्रेस' वाली माइली सायरस)
परिगना पंड्याशाह भी एक डबिंग आर्टिस्ट हैं जो कई सालों से हॉलीवुड फ़िल्मों को डब कर रही हैं.
वो कहती हैं, "हमें कैरेक्टर की पर्सनैलिटी के हिसाब से अपनी आवाज़ ढालनी पड़ती है. स्क्रिप्ट में हमारा कोई हाथ नहीं होता वो हमें तभी मिलती है जब हम डबिंग करने पहुंचते हैं."
परिगना मानती हैं कि डबिंग आर्टिस्ट को उतना पैसा नहीं मिलता जितनी वो मेहनत करते हैं. साथ ही वो चाहती हैं कि फ़िल्म के क्रेडिट रोल में डबिंग कलाकारों का नाम भी होना चाहिए.
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