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अफ़ग़ानिस्तान से अफ़्रीका तक.... | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भारत में जब कभी किसी समूह में या मंच पर हिंदी फ़िल्मों के बारे में बहस होते देखी है तो कई बार किस्से सुनने को मिलते थे कि कैसे अफ़ग़ानिस्तान से लेकर अफ़्रीका तक हिंदी फ़िल्मों की धूम है. अकसर मन में बड़ी जिज्ञासा होती थी कि ऐसा कैसे संभव है.भिन्न भाषा, सांस्कृतिक असमानता, खान-पान वेश-भूषा सब अलग.. फिर कैसे कोई ग़ैर भारतीय विदेशी भाषा की फ़िल्में इतने जुनून से देख सकता है. हिंदी फ़िल्मों के कुछ ग़ैर भारतीय प्रशंसकों से बात कर मैने कुछ यही जानने की कोशिश की. इन लोगों की कहानी इन्हीं की ज़ुबानी........ ***************************************************
मैं तेहरान में रहती हूँ और यहाँ हिंदी फ़िल्में शुरू से ही लोकप्रिय रही हैं. मेरी माँ और तमाम लोग बताते हैं कि कैसे वो 50-60 के दशक में बड़े शौक से हिंदी फ़िल्में देखने जाते थे और कई फ़िल्में उन्होंने 100 बार देखी हैं. इस्लामिक क्रांति के बाद सिनेमाघरों में तो लोगों ने जाना बंद कर दिया लेकिन घरों पर अब भी फ़िल्में देखते हैं. इन फ़िल्मों की लोकप्रियता की एक वजह शायद ये है कि हिंदी फ़िल्मों में सब कुछ बेहद आदर्शवादी होता है जैसे कि एक ग़रीब लड़का भी अमीर लड़की से शादी कर सकता है और दोनों बेहद खुश रहते हैं. इसलिए यहाँ ग़रीब तबके के या कामकाजी लोग हिंदी फ़िल्में चाव से देखते हैं. आजकल किशोरों में हिंदी सिनेमा काफ़ी लोकप्रिय है. उसकी वजह शायद फ़िल्मों में दिखाया जाने वाला रोमांस है. गाने बहुत ही अच्छे होते हैं और नाच का तो कहना ही क्या- हीरो-हीरोइनों के कपड़े भी बहुत रंगीन होते हैं. अभी ईरान में तो हालात ऐसे हैं कि हम रंगीन कपड़े नहीं पहन पाते और लड़के-लड़कियों की बीच संबंध भी सीमित ही होते हैं. सो किशोरों को हिंदी फ़िल्में बहुत पसंद आती हैं. मेरी सबसे पसंदीदा फ़िल्म है देवदास- मुझे ये बहुत ही रोमाटिंक लगी. इसमें पारंपरिक लिबास और नृत्य बहुत अच्छा था. अभिनेताओं में मुझे शाहरुख खान बेहद पसंद है और हीरोइनों में ऐश्वर्या राय. ***********************************************************
मेरा जन्म सोमालिया में हुआ है और अपनी ज़िंदगी के करीब 18 साल मैने वहीं गुज़ारे हैं. बहुत छोटी उम्र से ही हिंदी फ़िल्में देखती आई हूँ- ठीक से याद भी नहीं. पश्चिमी फ़िल्मों के बजाए मेरे माता-पिता यही पसंद करते थे कि हम हिंदी फ़िल्में देखें क्योंकि उनमें पारिवारिक विषय दिखाए जाते थे. परिवारवालों को चिंता नहीं होती थी कि हम कुछ ग़लत तो नहीं देख रहे. सोमालिया में अंग्रेज़ी, इतालवी और फ़्रेंच फ़िल्में भी फ़िल्में दिखाई जाती थीं लेकिन हमने हिंदी फ़िल्में देखना ही पसंद किया- शायद गानों और मनोरंजन के चलते. फिर माता-पिता भी चिंतामुक्त रहते थे कि हम बोल्ड फ़िल्में नहीं देख रहे. अब ऐसा है कि मैं हर रिलीज़ होने वाली हिंदी फ़िल्म नहीं देखती लेकिन जब कोई बोलता है कि ये फ़िल्म बहुत ही अच्छी है तो मैं ज़रूर देखती हूँ. पिछले साल मैने धूम देखी. शाहरुख की डॉन भी मैने देखी. बाद में तो मैने ख़ासतौर पर अमिताभ बच्चन वाली डॉन की डीवीडी ख़रीदी और उसे भी देखा. मैं अमिताभ बच्चन की बहुत बड़ी फ़ैन हूँ. जहाँ तक सवाल हीरोइन का है तो मैं ज़्यादातर उन पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती( हुँसते हुए). फ़िल्मों में मुझे फ़ना पसंद है. *****************************************************
ज़्यादातर अफ़गान लोग हिंदी फ़िल्में देखते हैं. 90 के दशक से पहले हर शुक्रवार को लोग टेलीवीज़न के सामने बैठकर हिंदी फ़िल्में देखते थे. इंतज़ार रहता था कि शुक्रवार को कौन सी फ़िल्म आएगी, किसकी होगी. ये फ़िल्में इसलिए पसंद की जाती हैं क्योंकि इनमें जो पारिवारिक रिश्ते दिखाए जाते हैं वैसे ही अफ़ग़ानिस्तान में भी होते हैं- जैसे बड़ो की इज़्ज़त करना, संयुक्त परिवार का होना. मैं फ़िल्म में नाच-गाने के बजाय फ़िल्म की कहानी पर ज़्यादा तवज्जो देती हूँ जबकि मेरी छोटी बहनों को गाने ही पसंद थे. और भाई को एक्शन फ़िल्में. मुझे वैसी फ़िल्में ज़्यादा पसंद आती हैं जो सच्चाई के करीब हों. मेरी फ़ेवरट फ़िल्में है-गोपी, गीता और सीता, पत्थर के सनम..आज भी मेरे पास इनकी डीवीडी हैं. अमिताभ बच्चन, मनोज कुमार, दिलीप कुमार, रेखा और राखी मेरे पसंदीदा कलाकार हैं. |
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