अखिलेश के 'ऑपरेशन शिवपाल' का सच
- शरद गुप्ता
- वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए यह करो या मरो की लड़ाई है. महाभारत के युद्ध की तरह.
उधर पिता और चाचा हैं. इधर चक्रव्यूह मे घिरे अकेले अभिमन्यु की तरह अखिलेश. जीते तो भी हार है और हारे तो खेल पूरा ख़त्म.
पिछले साढ़े चार साल से मुख्यमंत्री के पद पर बैठे अखिलेश के हाथ बंधे थे. चाचा, ताऊ, पिता, भाई सभी अपना हित साध रहे थे.
गाहे-बगाहे पिता के हाथों अपमान अलग से. कभी पार्टी फ़ोरम पर तो कभी मंत्रियों-अधिकारियों के सामने.
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अखिलेश अपनी पसंद का न तो सचिव रख सकते थे और न ही मुख्य सचिव. मंत्री तक पिता की मर्ज़ी के.
खनन मंत्री गायत्री प्रजापति की तरह. जितने ज्यादा भ्रष्टाचार के आरोप लगे उतना ज्यादा प्रमोशन. पहले राज्य मंत्री, फिर स्वतंत्र प्रभार और फिर कैबिनेट रैंक.
सोमवार को जब मंत्रिमंडल से हटाए गए तो मुलायम सिंह यादव के मुँह से बरबस निकल गया - हमें तो मालूम ही नहीं चला. मीडिया से मालूम चल रहा है. न किसी ने पूछा, न बताया, हमने ही तो इन्हें मंत्री बनवाया था.
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अखाड़े के पहलवान रहे हैं. राजनीति के दांवपेंच में भी उनका सानी नहीं है.
लेकिन बेटे के हाथों ऐसे मात खा जाएंगे, शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी.
जिस आदमी को राज्य के जिले-जिले में, गांव-गांव में कहां, क्या घट रहा है, पल पल की जानकारी रहती थी, उसे यह पता न चला कि उसका अपना बेटा उनके पैरों तले से ज़मीन खिसका रहा है.
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एक बार बेटे ने मुख्तार अंसारी की क़ौमी एकता दल के सपा में विलय को वापस करने की कोशिश की थी. इस विलय के सूत्रधार और मुलायम के क़रीबी बलराम यादव को मंत्रिमंडल से हटा दिया था.
तब मुलायम ने बेटे को पुचकार कर और छोटे भाई शिवपाल को समझा कर मामला सुलझा लिया था.
अखिलेश ने भी पिता को ख़ुश करने के लिए बलराम यादव को न सिर्फ मंत्रिमंडल में वापस ले लिया बल्कि उन्हें उसी विभाग का मंत्री बना दिया जो उनसे एक हफ्ते पहले ही छीना था.
लेकिन इस बार शिवपाल के मामले में उन्हें कानोंकान ख़बर नहीं हुई.
लेकिन स्वतंत्रता दिवस के मौके पर कुछ अलग हुआ.
यह यूपी के यदुवंशीय राजनीतिक घराने का सबसे बड़ा विद्रोह था जिसकी योजना तो लंबे समय से बन रही थी लेकिन मूर्त रूप में लाने का फैसला 15 अगस्त को लिया गया.
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उस दिन समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं के सामने मुलायम ने अखिलेश को ज़बरदस्त फटकार लगाई और कहा, ''क़ौमी एकता दल के मामले में आपने शिवपाल को नाराज़ कर दिया. अगर वे पार्टी छोड़ दें तो आधे कार्यकर्ता उनके साथ चले जाएंगे. आपने मेरी बात नहीं मानी. मैं नाराज़ हो गया तो बाकी आधे मेरे साथ चले जाएंगे. आप क्या करेंगे? कैसे सरकार चलाएँगे और कैसे पार्टी चलाएँगे?''.
पार्टी पर गहरी नज़र रखने वालों का कहना है कि इसी दिन के बाद से अखिलेश ने ऑपरेशन शिवपाल की योजना बनाई.
सोमवार को गायत्री प्रजापति और राज किशोर सिंह को मंत्रिमंडल से हटा दिया. ये दोनों मुलायम और शिवपाल के क़रीबी थे. जब तक मुलायम संभलते या जवाबी कार्रवाई करते, उससे पहले ही अखिलेश ने दूसरा बम गिराया.
दीपक सिंघल की जगह राहुल भटनागर को मुख्य सचिव बना दिया.
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भ्रष्टाचार के कई मामलों में जांच का सामना कर रहे दीपक सिंघल को अखिलेश प्रदेश का सबसे बड़ा नौकरशाह कभी बनाना ही नहीं चाहते थे. लेकिन मुलायम और शिवपाल के दबाव में बनाना पड़ा था.
मुलायम ने अखिलेश को काबू में करने के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के पद से उन्हें हटाकर उनकी जगह शिवपाल को बना दिया.
वे इसे चुनौती नहीं दे सकते थे क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा यह समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व भी है और हक़ भी.
अगर यह सियासी शह थी तो बेटे ने न सिर्फ मात बचा ली बल्कि पिता को भी एक शह दे दी.
मंत्रिमंडल में कौन रहेगा यह न तो प्रदेश अध्यक्ष तय कर सकता है और न ही राष्ट्रीय अध्यक्ष. यह केवल मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है.
अखिलेश ने इसी का प्रयोग कर अपने पहलवान पिता को धोबीपछाड़ मार दिया जब उन्होंने मंगलवार को अपने चाचा शिवपाल को पीडब्लूडी, सिंचाई और रेवेन्यू जैसे मलाईदार मंत्रालयों से हटाकर समाज कल्याण जैसे "महत्वहीन" मंत्रालय में भेजने का आदेश जारी कर दिया.
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इस घटनाक्रम में हाल ही में सपा में शामिल कर राज्यसभा सदस्य बनाए गए अमर सिंह की भूमिका महत्वपूर्ण बताई जा रही है.
पिछले दिनों उन्होंने एक बयान दिया था, ''मैं मुलायमवादी हूँ लेकिन मुझे मुलायम सिंह से मिलने नहीं दिया जा रहा है. यह मेरे और शिवपाल सिंह के ख़िलाफ़ साज़िश है''.
मंगलवार को उनका बयान आया, ''मैं मुलायमवादी हूं, मुलायमपुत्र जो कहेंगे, मुझे मंजूर होगा. मैं वैसा ही करूंगा''. इस बार उन्होंने शिवपाल का नाम नहीं लिया.
उनके इन्हीं दोनों बयानों के बीच कहीं सच छुपा हुआ है. दरअसल, पार्टी से छह साल बाहर रहने की पीड़ा केवल वे ही जानते हैं. उनकी वापसी भी शिवपाल के अथक प्रयासों से हुई है.
अखिलेश और रामगोपाल के भरपूर विरोध के बावजूद. बाकी सब समझते ही हैं.
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बहराल, उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. पर जिस तरह की नाटकीय घटनाक्रम लखनऊ में सामने आया है वो घर के झगड़े को खुले मोहल्ले में निपटाने जैसा है. इसका पार्टी की छवि पर तो असर पड़ेगा ही.
उत्तर प्रदेश की इस यादवी शतरंज में आखिरी चाल अभी नहीं चली गई है. यूँ तो राजनीति संभावनाओं का खेल है. बहुत संभव है कि परिवार में छिड़ी इस जंग में हल कुछ ऐसा निकले जो हमारे लिए सोचना ही संभव न हो.
फिर भी आठ संभावनाओं वाली कुछ चालें जो बाप-बेटे एक दूसरे के खिलाफ चल सकते हैं:
आठ संभावित चालें
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समाप्त
1. शिवपाल मंत्रिमंडल में बने रहें और हार स्वीकार कर लें. शिवपाल को करीब से जानने वाले मानते हैं, वे ऐसा नहीं कर सकते.
2. वे मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दें और चुपचाप बैठ जाएं. यह संभावना बहुत क्षीण है.
3. शिवपाल इस्तीफा दें और चुनाव का इंतजार करें. दोनों भाई मिलकर अपने पसंद के उम्मीदवार तय करें और मुलायम को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ें. लगता नहीं भाइयों में इतना सब्र है.
4. मुलायम अखिलेश को मुख्यमंत्री पद छोड़ने को कहें और खुद मुख्यमंत्री बन चुनाव लड़ें.
5. यदि बहुमत की ताक़त का सहारा लेते हुए अखिलेश पद छोड़ने से इंकार करें तो विधानसभा में शक्ति परीक्षण हो सकता है.
6. अखिलेश विधानसभा भंग करने की सिफ़ारिश कर सकते हैं ताकि वे चुनाव तक केयरटेकर मुख्यमंत्री बने रहें.
7. यह भी संभव है कि पद छोड़ने का निर्देश मिलने पर अखिलेश नई पार्टी बना कर चुनाव लड़ें. उजली और विकासोन्मुख राजनेता की छवि के साथ जिसे साढ़े चार साल बेड़ियों में जकड़ कर रखा गया था. हालांकि लोग यह जरूर पूछेंगे कि इतनी सी हिम्मत जुटाने में इतना लंबा समय क्यों लग गया?
8. इस बात की संभावना भी है कि बाप-बेटे में सुलह हो जाए. बलराम यादव की तरह शिवपाल को मंत्रिमंडल में वापस ले लिया जाए.