टाटा की अधिग्रहित ज़मीन पर विवाद
- आलोक प्रकाश पुतुल
- रायपुर से बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

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छत्तीसगढ़ के बस्तर में टाटा कंपनी के मेगा स्टील प्लांट लगाने की 11 साल पुरानी योजना रद्द होने के बाद अब स्टील प्लांट के लिए अधिग्रहित किसानों की ज़मीन को लेकर विवाद शुरु हो गया है.
उधर इस सप्ताह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान जब टाटा स्टील ने स्टील प्लांट नहीं लगाने की बात कही तो याचिकाकर्ता सुदीप श्रीवास्तव ने पूरी प्रक्रिया को रद्द करते हुये किसानों को उनकी ज़मीन लौटाने की मांग की.
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सुदीप कहते हैं- "नये भूमि अधिग्रहण कानून के बाद तो सरकार को किसानों को उनकी ज़मीन लौटानी ही होगी. अदालत ने इस मसले पर नये सिरे से पांच सप्ताह के भीतर दस्तावेज़ पेश करने के निर्देश दिये हैं."
इन सबके बीच टाटा के स्टील प्लांट के नाम पर अधिग्रहित ज़मीन किसानों को वापस करने की मांग ज़ोरदार तरीक़े से उठने लगी है.
आदिवासियों का कहना है कि सरकार सिंगूर की तर्ज़ पर उनकी ज़मीन वापस करे.
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जबकि सरकार का कहना है कि टाटा स्टील के नाम पर अधिग्रहित की गई ज़मीन से सरकार अपना 'लैंड बैंक' बनायेगी और जिस उद्योग को ज़मीन की ज़रुरत होगी उसे ज़मीन दी जायेगी.
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किसानों की ज़मीन अधिग्रहित करने वाली सरकारी एजेंसी छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम के अध्यक्ष छगन मूंदड़ा ने बीबीसी से बातचीत में कहा- "बस्तर में हमने आदिवासियों से जो ज़मीन अधिग्रहित की है, उसका उद्देश्य उद्योग लगाना है. टाटा ने अब स्टील प्लांट लगाने से मना कर दिया है तो हम उस ज़मीन को किसी और उद्योग को देंगे."
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मूंदड़ा कहते हैं-"हर राज्य का क़ानून अलग-अलग होगा है. हम टाटा-बिरला या अडानी-अंबानी के लिये नहीं, उद्योग के लिये ज़मीन अधिग्रहण करते हैं. टाटा नहीं तो कोई और सही. ज़मीन पर तो उद्योग ही लगेगा."
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असल में जून 2005 में टाटा स्टील ने छत्तीसगढ़ सरकार के साथ बस्तर में 19,500 करोड़ की लागत से एक स्टील प्लांट लगाने के लिए एमओयू किया था.
इसके लिये टाटा ने लोहंडीगुड़ा इलाके के दस गांवों की लगभग 2044 हेक्टेयर ज़मीन की आवश्यकता बताई. इसमें 1764.61 हेक्टेयर ज़मीन इलाके के आदिवासियों और दूसरे किसानों की थी.
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उधर आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का कहना है कि बंगाल के सिंगूर में टाटा को लेकर जो फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था, यहां भी स्थितियां वैसी ही हैं. ऐसे में सरकार अगर आदिवासियों की ज़मीन वापस नहीं करती तो यह सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का भी उल्लंघन होगा.
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छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं-"सिंगूर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दो बातें साफ़ तौर पर कही हैं. पहला ये कि सार्वजनिक हित के नाम पर सरकारें उद्योगों के लिये ज़मीन का मनमाने तरीक़े से अधिग्रहण नहीं करेंगी और दूसरा ये कि जिस प्रयोजन के लिये ज़मीन ली गई है, उसमें बदलाव होने पर किसानों को ज़मीन वापस की जायेंगी. बस्तर में टाटा के मामले में दोनों ही बातें लागू होती हैं."
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शुक्ला का कहना है कि अगर सरकार ने ज़मीन वापसी की पहल नहीं की तो उनका संगठन पूरे बस्तर में आंदोलन शुरु करेगा. इसके अलावा सरकार के फ़ैसले को अदालत में भी चुनौती दी जायेगी.
आदिवासियों और क्षेत्र के मूल निवासियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान में अनुसूचित क्षेत्र का प्रावधान है.
इन इलाकों में वर्ष 1996 में बनाया गया पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया यानी 'पेसा' क़ानून लागू होता है, जहां ग्राम सभा की अनुमति के बिना किसी भी ज़मीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता.
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सरकार ने इस इलाके में क़ानूनी प्रावधानों को किनारे रख कर बंदूक की नोक पर ग्राम सभाएं करवाईं.
इसके बाद भी 1707 किसानों में से 542 किसानों ने अपनी ज़मीन सरकार को नहीं दी थी.
साल दर साल टाटा स्टील के लिये लाइसेंस समेत दूसरी काग़ज़ी कार्रवाइयों का नवीनीकरण होता रहा. लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी सरकार टाटा स्टील को ज़मीन उपलब्ध करा पाने में असफल रही.
खनिजों को लेकर नये क़ानून के बाद इस साल टाटा को आवंटित लौह अयस्क के प्रोस्पेक्टिव लाइसेंस को रद्द कर दिया गया, जिसके बाद टाटा ने बस्तर को बाय-बाय करने की घोषणा कर दी.
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