अमर सिंह की 'ताकत' का राज़ क्या है?
- प्रदीप कुमार
- बीबीसी संवाददाता

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साठ साल के अमर सिंह की कहानी भारतीय राजनीति में बीते दो दशक के दौरान किसी अमर चित्र कथा की तरह है. वे एक दौर में समाजवादी पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता रहे, फिर पार्टी से बाहर कर दिए गए और अब एक बार फिर उन्होंने जोरदार वापसी की है.
इस दौरान गंभीर बीमारी और राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाने के चलते वे कुछ समय तक राजनीतिक पटल से ग़ायब ज़रूर हुए लेकिन एक बार फिर वो अपने पुराने रंग में लौटते दिख रहे हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर अमर सिंह में ऐसा क्या है जिसके चलते मुलायम सिंह का उन पर भरोसा बना हुआ है. क्या अमर सिंह का ठाकुर होना यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को फ़ायदा पहुंचाएगा?
या फ़िर पार्टी को संसाधनों की जुटाने के लिए अमर सिंह की जरूरत पड़ रही है? राजनीतिक गलियारों में दबे छिपे जो अटकलें लगाई जाती रही है कि मुलायम सिंह की किसी कमज़ोर नस को अमर सिंह बखूबी जानते हैं, उसमें कोई सच्चाई है?
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आख़िर अमर सिंह की दमदार वापसी की सबसे बड़ी वजह क्या है?
इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "सबसे बड़ी वजह तो यही है कि मुलायम सिंह अमर सिंह पर बहुत भरोसा करते हैं. राजनीति में जिस तरह की जरूरतें रहती हैं, चाहे वो संसाधन जुटाने की बात हो या जोड़ तोड़ यानी नेटवर्किंग का मसला हो, उन सबको देखते हुए वह अमर सिंह को पार्टी के लिए उपयुक्त मानते हैं. इसलिए उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी है. ये बात भी अपनी जगह एकदम सही है कि अमर सिंह नेटवर्किंग के बादशाह रहे हैं."
समाजवादी पार्टी में वापसी से पहले करीब छह साल तक अमर सिंह सक्रिय राजनीति से दूर रहे. इस दौरान वे गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे. हालांकि इस दौरान उन्होंने अपने लिए दूसरे दरवाजे भी देखे. ख़ुद की राजनीतिक पार्टी भी बनाई लेकिन राष्ट्रीय लोक मंच के उम्मीदवारों की 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जमानत जब्त हो गई.
2014 में राष्ट्रीय लोक दल से लोकसभा के चुनाव लड़े, बुरी तरह हारे. इतना ही नहीं, कांग्रेस में शामिल होने की कोशिश भी ख़ूब की, लेकिन कहीं उनकी दाल नहीं गली और आख़िर में उन्हें ठिकाना उसी पार्टी में मिला जिसके रंग ढंग को अमर सिंह ने बदल दिया था.
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कभी धरतीपुत्र कहे जाने वाले मुलायम सिंह और किसानों और पिछड़ों की पार्टी समाजवादी पार्टी को आधुनिक और चमक दमक वाली राजनीतिक पार्टी में तब्दील करने वाले अमर सिंह ही थे. चाहे वो जया प्रदा को सांसद बनाना हो, या फिर जया बच्चन को राज्य सभा में लाना हो, या फिर संजय दत्त को पार्टी में शामिल करवाना रहा हो, या उत्तर प्रदेश के लिए शीर्ष कारोबारियों को एक मंच पर लाना हो, ये सब अमर सिंह का ही करिश्मा था.
एक समय में समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की हैसियत ऐसी थी कि उनके चलते आज़म ख़ान, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के नज़दीकी नाराज़ होकर पार्टी छोड़ गए. लेकिन मुलायम का भरोसा उनपर बना रहा. दरअसल, मुलायम-अमर के रिश्ते की नींव एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुई थी. देवगौड़ा हिंदी नहीं बोल पाते थे और मुलायम अंग्रेजी नहीं, ऐसे में देवगौड़ा और मुलायम के बीच दुभाषिए की भूमिका अमर सिंह ही निभाते थे. तब से शुरू हुआ ये साथ अब तक जारी है.
अमर-मुलायम के रिश्ते के बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, "अमर सिंह की बात मुलायम कितना मानते थे, इसका उदाहरण है कि अखिलेश और डिंपल की शादी के लिए मुलायम पहले तैयार नहीं थे, लेकिन ये अमर सिंह ही थे जिन्होंने मुलायम को इस शादी के लिए तैयार किया था."
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "दरअसल मुलायम कभी अपना कोई काम ख़ुद से किसी को करने के लिए नहीं कह सकते. इतने लंबे राजनीतिक जीवन में उनकी ऐसी आदत ही नहीं रही है. वे मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन राजनीति में उन्हें ढेरों काम करवाने भी होते हैं. एक दौर ऐसा भी था कि जिस किसी के काम को मुलायम करवाना चाहते थे, तो बस यही कहते थे कि अमर सिंह को बोल दूंगा, हो जाएगा."
इसी दौरान देश में गठबंधन की राजनीति का दौर चला और इसमें समाजवादी पार्टी जैसी 20 से 30 सीटों वाली पार्टी की अहमियत बढ़ी और जानकार मानते हैं कि इसके साथ ही अमर सिंह की भूमिका भी ख़ूब बढ़ी. इसके ढेरों उदाहरण मौजूद हैं. एक वाकया तो यही है कि 1999 में सोनिया गांधी ने 272 सांसदों के समर्थन का दावा कर दिया था, लेकिन उसके बाद समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को अपना समर्थन नहीं दिया और सोनिया गांधी की ख़ूब किरकिरी हुई.
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इसके बाद 2008 में भारत की न्यूक्लियर डील के दौरान वामपंथी दलों ने समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को अल्पमत में ला दिया. तब अमर सिंह ने ही समाजवादी सांसदों के साथ साथ कई निर्दलीय सांसदों को भी सरकार के पाले में ला खड़ा किया. संसद में नोटों की गड्ढी लहराने का मामला भी सामने आया और इस मामले में अमर सिंह को तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा.
इसी दौरान मीडिया के सामने वो टेप भी आया जिसमें कथित तौर पर बिपाशा बसु का नाम लेकर की गई अमर सिंह की बातों ने उनके व्यक्तित्व की एक और परत को भी बंद दरवाज़ों के पीछे चर्चा का विषय बना दिया.
संसदीय राजनीति को कवर करने वाले वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार मनोरंजन भारती कहते हैं, "अमर सिंह वैसे शख़्स हैं, जिनके सभी पार्टियों में शीर्ष स्तर पर करीबी दोस्त हैं. चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस हो या फिर वामपंथी पार्टियां ही क्यों नहीं हों. अमर सिंह का व्यक्तित्व पानी जैसा है, हर किसी में मिल जाता है या मिल सकता है."
अमर सिंह अपने इसी गुण के चलते केवल राजनीतिक गलियारों में सीमित नहीं रहे. वे एक ही समय में बॉलीवुड के स्टार कलाकारों के साथ उठने बैठने लगे, देश के शीर्षस्थ कारोबारियों के साथ नज़र आने लगे. बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमर सिंह की इतनी बनने लगी कि दोनों एक दूसरे को परिवार का सदस्य मानने लगे.
हालांकि 2010 में जब समाजवादी पार्टी से अमर सिंह निकाले गए और उनके कहने पर भी जया बच्चन ने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया तो दोनों को अलग होते देर भी नहीं लगी. उद्योग जगत में अनिल अंबानी और सुब्रत राय सहारा जैसे कारोबारियों के साथ भी अमर सिंह की गाढ़ी दोस्ती रही.
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अमर सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अंबिका नंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि वे सामने वाले को किस चीज़ की किस समय पर जरूरत है, इसे भांप लेते हैं. अगर सामने वाला मुसीबत में हो तो उसकी मदद, सीमा से आगे जाकर करते हैं. इस गुण के चलते उन्हें लोगों का भरोसा मिलता रहा है."
जब अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी कर्जे में डूब गई थी और अपने करियर के सबसे मुश्किल दौर से बिग बी गुजर रहे थे और कोई उनकी मदद के लिए तैयार नहीं था, तब ये अमर सिंह ही थे, जो कथित तौर पर दस करोड़ की मदद के साथ अमिताभ के साथ खड़े नज़र आए थे. अमर सिंह को नज़दीक से जानने वाले लोगों की मानें तो कोई भी बड़ी समस्या और मुश्किल का हल अमर सिंह चुटकियों में निकाल सकते हैं.
शरद गुप्ता कहते हैं, "हमलोगों ने ऐसा भी देखा है कि जिस काम को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री कराने से इनकार कर देता था, अमर सिंह उस काम को करा देते थे."
अमर समाजवादी पार्टी के लिए ही नेटवर्किंग का काम करते रहे हों, ऐसा भी नहीं. दरअसल 1996 में राज्य सभा आने से पहले ही वे दिल्ली की सत्ता के गलियारों में जगह बना चुके थे.
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मूल रूप से आज़मगढ़ के कारोबारी परिवार में जन्में अमर सिंह का बचपन और युवावस्था के दिन कोलकाता में बीते थे. जहां वे बिड़ला परिवार के संपर्क में आए और केके बिरला का भरोसा हासिल करने के बाद दिल्ली पहुंच गए. बिड़ला और भरतिया परिवार की नज़दीकियों के चलते एक समय में अमर सिंह हिंदुस्तान टाइम्स के निदेशक मंडल में भी रहे.
इस दौरान राजनीति में भी अमर सिंह सक्रिय हो गए थे. उस वक्त अमर सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हुआ करते थे और उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया ने मध्य प्रदेश के कोटे से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनवाया था. गठबंधन सरकारों के दौर में मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से भी अमर सिंह के घनिष्ठ संबंध रहे थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति को लंबे समय से देखने वाले ये मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव से पहले 1985 से 1988 के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह से भी अमर सिंह की काफी घनिष्ठता रही और जब जब वीर बहादुर सिंह नोएडा के सिंचाई विभाग गेस्ट हाउस आते थे, अमर सिंह वहीं पाए जाते थे. कई लोग उन्हें रिलायंस मैन के तौर पर भी देखते रहे हैं.
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अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की कमजोरी कहिए या फिर ख़ासियत, वे ग्लैमर के बिना नहीं रह सकते. इसके लिए मीडिया का इस्तेमाल भी करना जानते हैं. पहले हिंदुस्तान टाइम्स के निदेशक रहे, फिर सहारा मीडिया के निदेशकों में भी रहे. इन दिनों ज़ी समूह के मुखिया से उनकी नज़दीकियां हैं."
इस लिहाज से देखें तो अमर सिंह राजनीति, ग्लैमर, मीडिया और फ़िल्म जगत को एक कॉकटेल बना चुके हैं. इसलिए जब वे कहते हैं कि मेरा मुंह मत खोलवाइए, कोई नहीं बचेगा, तो सब वाकई में चुप ही रहना बेहतर समझते हैं.
बहरहाल, मुलायम सिंह ने अमर सिंह को जिस तरह से पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया है, उससे लगता है कि अतीत के साथ मुलायम भविष्य की ओर भी देख रहे हैं. उन पर आय से अधिक संपत्ति का मामला सीबीआई के पास चल ही रहा है.
कई लोग मानते हैं कि सीबीआई की जांच को मैनेज किया जा सकता है और बड़े बड़े राजनीतिक नेता तो इस बारे में सार्वजनिक तौर पर बोलते भी रहे हैं. इसके अलावा अगर 2019 लोकसभा चुनाव पर भी उनकी नज़रें होगी.
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हालांकि अमर सिंह का एक अतीत ये भी रहा है कि वे जिनके साथ रहे हैं, उनका घर टूटा है. बच्चन भाईयों के अलावा अंबानी भाईयों में भी बंटवारा हो गया है. ये पहलू 'समाजवादी परिवार' को परेशान करने वाला है लेकिन ये भी हो सकता है ये महज संयोग की ही बात हो.
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