सैटेलाइट ने उनके जीवन की दिशा बदल डाली

  • इमरान कुरैशी
  • बीबीसी हिंदी के लिए
सैटेलाइट बनाने वाले पीइस यूनिवर्सिटी के छात्र

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चार महीने पहले शशांक डीपी को एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कैंपस प्लेसमेंट के दौरान नौकरी का ऑफर मिला.

शशांक से बात करेंगे तो ऐसा लगेगा कि आप 'अंतरिक्ष' की दुनिया में हर वक़्त खोए रहने वाले किसी नवयुवक से बात कर रहे हैं.

उन्होंने जिस कॉलेज प्रोजेक्ट में काम किया था, अभी हाल ही में उससे तैयार किए गए सैटेलाइट को अंतरिक्ष में छोड़ा गया है.

शशांक पीसैट को विकसित करने वाले 250 छात्रों में से हैं.

पीइएस यूनिवर्सिटी बैंगलुरु के छात्रों ने जो दो सैटेलाइट बनाए हैं, उनमें से एक पीसैट है. इसे हाल ही में पीएसएलवी सी-35 के जरिए अंतरिक्ष में छोड़ा गया है.

इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले तमाम दूसरे छात्रों की तरह शशांक भी यही चाहते थे कि उन्हें कोर्स ख़त्म होने के बाद किसी अच्छी कंपनी में एक अच्छी नौकरी मिले.

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दो साल पहले अचानक से उन्हें सैटेलाइट बनाने के प्रोजेक्ट पर काम करने का मौका मिला.

वो बताते हैं, "उस वक़्त प्रोजेक्ट पर और अधिक लोगों की ज़रूरत थी."

अब शशांक कहते हैं, "मैं स्पेस इंडस्ट्री में जाने के बारे में सोच रहा हूं. स्पेस इंडस्ट्री अब मेरी पहली पसंद बन गया है. हालांकि एक सॉफ्टवेयर कंपनी की ओर से मुझे नौकरी का ऑफर है."

शशांक को प्रोजेक्ट के दौरान जो असाइनमेंट मिला था, उसके मुताबिक़ उन्हें "सैटेलाइट की मदद से कम से कम समय में पृथ्वी के किसी हिस्से की तस्वीर खींचनी थी. इसके लिए उन्हें सैटेलाइट की गति के अनुसार किसी ख़ास जगह पर पड़ने वाली रोशनी का अनुमान लगाना था."

पांच किलोग्राम के इस सैटेलाइट में तस्वीर लेने के लिए एक कैमरा लगा हुआ था.

यह छात्रों का विकसित किया हुआ पहला सैटेलाइट है जिसमें एस-ब्रांड आरएफ (रेडियो फ्रिक्वेंसी) इस्तेमाल किया गया है.

आमतौर पर इसरो इसका इस्तेमाल अपने सैटेलाइट में करता रहा है.

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शशांक इसे एक बड़ी बात मानते हैं. लेकिन शशांक और उनके जैसे दूसरे छात्रों के साथ जो बड़ी बात हुई है, वो यह है कि एक कॉलेज प्रोजेक्ट ने उनकी ज़िंदगी ही बदल कर रख दी.

शशांक की तरह अजय कुमार भी इलेक्ट्रिकल इलेक्ट्रॉनिक्स का अपना कोर्स ख़त्म होने का और इसरो में नौकरी के लिए परीक्षा का इंतज़ार कर रहे हैं.

दो साल पहले अजय कुमार किसी प्रोजेक्ट पर काम करना चाहते थे और तभी उन्हें सैटेलाइट के प्रोजेक्ट पर काम करने का मौका मिला.

वो कहते हैं, "हमने प्रोजेक्ट के दौरान इमेज डाउनलोड करने और सैटेलाइट के अंदर हेल्थ पैरामीटर से संबंधित सॉफ्टवेयर विकसित करने को लेकर काम किया."

लेकिन अजय कुमार आजकल 'एक छोटी-सी तकनीकी गड़बड़ी' को ठीक करने में लगे हैं जिसकी वजह से पीइएस यूनिवर्सिटी में सैटेलाइट का सिग्नल नहीं मिल पा रहा है.

अजय कुमार पूरे विश्वास के साथ कहते हैं, "इसरो के ट्रैकिंग स्टेशन में सिग्नल मिला है लेकिन यहां हमें यूनिवर्सिटी में सिग्नल नहीं मिला है. जल्दी ही इसे ठीक कर लिया जाएगा और दो दिनों के बाद यह तस्वीरें खींचने लगेगा."

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सैटेलाइट के प्रोजेक्ट पर काम करने का असर यह हुआ है कि एक दूसरे छात्र गौरव अग्रवाल अब स्पेस सेक्टर को छोड़कर दूसरे किसी सेक्टर में काम करने के बारे में सोच भी नहीं रहे हैं.

इसके पीछे उनका तर्क बहुत ही सीधा है.

वो कहते हैं, "अगर इसरो की मदद से छात्र सैटेलाइट बना सकते हैं तो साफ़ है कि इस क्षेत्र में बहुत स्कोप है. अंतरिक्ष को लेकर छात्रों में दिलचस्पी भी बहुत है. जैसा कुछ साल पहले कंप्यूटर साइंस को लेकर क्रेज था, मुझे लगता है वैसा ही अब स्पेस सेक्टर को लेकर होगा."

उनके प्रोफेसर और इसरो में वैज्ञानिक रह चुके सांबा सिवा राव गौरव की इस सोच का समर्थन करते हैं.

प्रोफेसर सांबा सिवा राव ने बीबीसी से कहा, "स्पेस टेक्नॉलॉजी को लेकर छात्रों के बीच बहुत उत्साह है. जिन छात्रों ने प्रोजेक्ट पर काम किया है, उन लोगों ने दूसरे क्षेत्र में जाने के अपने इरादे बदलते हुए अब स्पेस टेक्नॉलॉजी की ओर ध्यान केंद्रित कर दिया है. कंप्यूटर साइंस के बाद यह छात्रों के लिए एक बड़ा सेक्टर होगा."

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