साबरमती के संत का 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर'

  • अफ़लातून
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महात्मा गांधी

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एक बार गांधीजी ने खुद के बारे में कहा था, "इतनी विनोद प्रियता नहीं होती तो मैं कब का आत्महत्या कर चुका होता."

दक्षिण अफ्रीका और भारत में राजनैतिक संघर्ष के बीच गांधीजी की हाज़िर जवाबी और हँसना-हँसाना हमेशा कायम रहा, उनके जीवन में सत्य के प्रति निष्ठा तो रही लेकिन कटुता को उन्होंने पास फटकने नहीं दिया.

आश्रम के बच्चे गांधीजी को पत्र लिखते थे जिनमें उनसे सवाल पूछते थे, लिखना सीखने के पहले भी वे किसी बड़े की मदद से अपने सवाल लिखवा लेते थे.

इन पत्रों में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर गांधीजी लिखकर देते थे, एक बार प्रश्न हुआ, "बापूजी, हम इतने सारे बच्चे आपसे इतने सारे प्रश्न पूछते हैं लेकिन आप हमेशा कागज के छोटे-से टुकड़े पर जवाब लिख देते हैं. गीता में अर्जुन एक छोटा सा प्रश्न पूछता है और श्रीकृष्ण उत्तर में पूरा अध्याय बोल जाते हैं, फिर आप क्यों छोटा-सा जवाब देते हैं?"

गांधीजी का जवाब था, "तेरा प्रश्न अच्छा है, लेकिन इतना ध्यान में रख कि श्रीकृष्ण का तो एक ही अर्जुन था. मेरे लिए तो तेरे जैसे कई अर्जुन हैं न!"

एक बार एक संवाददाता ने उनसे पूछा, "आप रेल में तीसरे दर्जे में ही क्यों चलते हैं?" उन्होंने जवाब दिया, "अब तक रेल में चौथा दर्जा नहीं बना इसलिए."

सामान्य बातचीत में भी गांधीजी की व्यंग्यपूर्ण हाज़िर जवाबी प्रकट होती थी. 1924 में जेल यात्रा के दौरान गांधीजी का एपेन्डिसाइटिस का ऑपरेशन हुआ था और उसके बाद उन्हें अस्पताल में रखा गया था.

एक दिन उनके अंतरंग अँगरेज़ मित्र सीएफ एन्ड्रूज उनसे मिलने साढ़े सात बजे पहुंचे. वे चाय पिए बिना गांधी जी के पास आ कर बैठ गए थे. उन्होंने कहा, "देखिए मैं कितना संयम पालन कर रहा हूं, आज चाय पिए बिना आया हूँ."

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इस पर गांधीजी कटाक्ष वाली मुस्कान के साथ बोले, "हूं! मतलब, एक इच्छा का त्याग किया, लेकिन दूसरी इच्छा के कारण ही न उसका त्याग किया?" एण्ड्रूज खिलखिलाकर हंस पडे.

गांधीजी के आश्रम में सुबह उठने से ले कर रात में सोने तक 56 बार घंटी बजती थी (आश्रम के बच्चों ने एक बार गिनती की थी). समय की पाबंदी न करने की सजा गांधी जी उस व्यक्ति को घंटी बजाने का दायित्व सौंप कर देते थे.

एक बार गांधीजी के अंतरंग निजी सचिव महादेव देसाई ने सेवाग्राम आश्रम को 'गांधीजी का अजायबघर' कहा था. गांधीजी के आसपास हमेशा अजीब तरह के लोग भी जमा हो जाते थे.

कभी-कभी सरदार पटेल ऐसे नमूनों पर चिढ़ भी जाते थे. इस पर महादेव देसाई हंसकर कहते, "बापू तो डॉक्टर हैं, डॉक्टर के आसपास मरीज तो रहेंगे ही न?" आश्रम के हास-परिहास और गांधीजी की खुश मिजाज़ी में इनका भी योगदान ज़रूर गिना जाना चाहिए.

साबरमती आश्रम में एक सज्जन ऐसे थे जो गिन कर 55 रोटियां खाते थे. भूल से 54 रख दी गईं हों तो जोर से चिल्लाकर कहते, "तुम कैसे कंजूस हो! हमें भूखों मारना है?"

और ग़लती से 56 रोटियां परोस दी जाएं तो तपाक से कहते, "वाह, तुमने क्या हमको राक्षस समझ रखा है?"

मेरे पिता और महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई कहते हैं, "इस तरह उनकी हालत भूखों मरने वाले आदमी और राक्षस के बीच की पतली दीवार जैसी थी."

नारायण देसाई ने अपनी किताब 'बापू की गोद में' एक संवाद का उल्लेख किया है जिससे पता चलता है कि गांधीजी के आश्रम में किस तरह का हल्का-फुल्का माहौल रहता था.

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वो आश्रम में उनके और एक साथी के बीच चले वार्तालाप को कुछ यूं बताते हैं.

'क्यों जी, आजकल क्या प्रयोग चल रहा है?'

'प्रयोग तो हमारा कुछ-न-कुछ चलता ही रहता है, आजकल पानी का प्रयोग चल रहा है.'

'क्या पानी उबाल कर पीते हैं या 'जल चिकित्सा' चल रही है?'

'नहीं भैया, इस बार तो शौच के पानी का प्रयोग है.'

'यानी?'

'यानी शौच के लिए जो पानी इस्तेमाल करते हैं, वह कैसे कम हो इसका प्रयोग कर रहा हूं.'

'अच्छा!'

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'हां, घटाते-घटाते पांच तोले तक पहुंचा हूं, अपने देश में अनेक भागों में पीने के पानी की बडी कमी रहती है, इसमें अगर हम पानी बचा सकें तो...'

'मैंने (नारायण देसाई) अपनी बालसुलभ उद्दंडता का लाभ लेकर उस भाई की बातचीत बीच में ही काटकर कहा, ''हां, बैलों को तो पानी की जरूरत ही नहीं पड़ती.''

कुछ ऐसे भी प्रसंग हैं जब लोगों ने गांधीजी को बातों के जाल में फँसाने की कोशिश की लेकिन गांधीजी ने इस बात को समझते हुए भी मूल बात की गंभीरता को बचाए रखा.

मिसाल के तौर पर 'टाइम्स' के संवाददाता मैक्रे और गांधीजी की यरवदा जेल में एक अच्छी भेंटवार्ता हुई.

गांधीजी के सिर पर लगी हुई मिट्टी की पट्टी के बारे में मैक्रे ने सवाल पूछे. गांधीजी ने सरल ढंग से मैक्रे को बताया कि ऐसे उन्होंने कब से और कैसे करना शुरू किया. ये बातें उसे मजेदार तो लगीं, लेकिन ये बातें 'टाइम्स' को भेजे तो वह क्यों उन्हें छापेगा?

इसलिए मैक्रे ने धीरे से पूछा, "पर अम्बेडकर के लिए आपके पास कोई मिट्टी की पट्टियाँ हैं?"

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गांधी जी बोले, "मुझे मालूम नहीं, पर हमारे मतभेद दोनों के सिर पर चढ़ जाएँगे तो ज़रूर मिट्टी की पट्टियाँ ढूँढनी पडेंगी, मेरे और उनके बीच ज्यादा मतभेद की गुंजाइश नहीं है क्योंकि अधिकतर मामलों में हम एकमत हैं. मतभेद की मुझे परवाह नहीं है, मेरे पास सवर्णों से कर्ज अदा करवाने के सिवाय दूसरा काम नहीं है."

(लेखक महात्मा गांधी के अंतरंग रहे निजी सचिव महादेव देसाई के पौत्र और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता हैं)