कश्मीर के ग़म में रंगों का इंतज़ार

  • सुहैल हलीम
  • बीबीसी संवाददाता, श्रीनगर
मसूद हुसैन
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मसूद हुसैन की कला पर हिंसा का असर झलकता है

भारत प्रशासित कश्मीर के एक मशहूर पेंटर को अपनी तस्वीरों में रंगों के लौटने का इंतज़ार है.

दो साल पहले जब श्रीनगर भयानक बाढ़ की चपेट में था, तब मसूद हुसैन की पेंटिंग भी झेलम के पानी से सुरक्षित नहीं रह सकीं. उन्हें अपने काम के बर्बाद होने का ग़म तो है लेकिन शायद रंगों के ज़रिए उसका इज़हार मुमकिन न था क्योंकि उनकी तस्वीरों में रंग पहले से ही काले थे.

मसूद हुसैन की गिनती कश्मीर के बेहतरीन कलाकारों में होती है. वे 35 साल तक फ़ाइन आर्ट्स के शिक्षक रहे हैं और भारत प्रशासित कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन की शुरुआत से ही उन्होंने हिंसा को अपनी पेंटिंग का विषय बनाया है.

वो कहते हैं, ''बदक़िस्मती से तब से ही मैंने अपना स्टाइल बदला, उससे पहले मेरे काम में काफ़ी रंग हुआ करते थे, लेकिन फिर मैंने अपने इर्द-गिर्द जो देखा, उसकी झलक मेरे काम में भी नज़र आने लगी.''

अपने नए घर की एक मंज़िल को उन्होंने स्टूडियो में बदल दिया है जहां वे नए-नए प्रयोग करते हैं. उनकी पेंटिंग में कंप्यूटर के पुराने पुर्जों का काफ़ी उपयोग है.

दीवार पर एक कलाश्निकोव राइफ़ल की तस्वीर है जिसकी ओर कई हाथ बढ़ रहे हैं.

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कलाश्निकोव के बारे में वो कहते हैं, ''इस राइफ़ल ने लाखों लोगों को मारा है, लेकिन यह तस्वीर अभी अधूरी है."

घाटी के मौजूदा हालात के बारे में वे कहते हैं, "इस बार जो कुछ हो रहा है, उसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए हैं. एक महीने तक मैं कोई काम नहीं कर सका. बंदूक़ के छर्रे से घायल बच्चों को देखकर मुझे बहुत दुख हुआ, मैंने सोचा कि मुझे लोगों तक ये बात पहुंचानी चाहिए कि जो कुछ हो रहा है, ग़लत है."

देखने वालों तक अपना संदेश आसानी से और जल्दी पहुंचाने के लिए हुसैन ने पहली बार डिजिटल आर्ट का सहारा लिया.

वे कहते हैं, "मैंने डिजिटल तस्वीर बनाई, बस जो देखा, उसे वैसे ही बनाया, उसे ख़ामोश तस्वीर का नाम दिया और कोई और शीर्षक नहीं, और ये तस्वीरें काफ़ी लोगों तक पहुंचीं."

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मसूद हुसैन कहते हैं कि जो युवा अब सड़कों पर उतरे हैं वे उसी माहौल में पले-बढ़े हैं, उन्होंने कुछ और देखा ही नहीं है. वे कहते हैं कि सरकार की ग़लती यह है कि उसने इन नौजवानों के लिए कभी कुछ किया ही नहीं है.

मसूद हुसैन कहते हैं, ''जम्मू-कश्मीर में मानसिक तनाव बहुत अधिक है और बहुत लोग अवसाद से ग्रस्त हैं. सरकार को समझना चाहिए कि ज़ोर ज़बरदस्ती किसी समस्या का समाधान नहीं है.''

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वे कहते हैं, "कलाकार जिधर भी नज़र डाले, वहां पेंटिंग के लिए कोई न कोई विषय मौजूद है. वह कुछ भी पेंट कर सकता है, लेकिन मेरे काम को देख लीजिए, इसमें रंग कहीं नहीं हैं, बस डार्क कलर का प्रयोग हो रहा है. मैं इस हताशा से बाहर निकलना भी चाहता हूँ, लेकिन नहीं निकल पाता क्योंकि मुझे कहीं ख़ूबसूरती दिखाई ही नहीं देती. हाँ जब यहां हालात बेहतर होते हैं तो मैं भी अपनी तस्वीरों में ख़ूब रंग भरता हूं."

मसूद हुसैन का कहना है कि घाटी के युवा कलाकारों के काम में भी ख़ुद ब खुद हिंसा की झलक दिखती है.

वे कहते हैं, ''यहाँ विभाजन के समय भी कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ था. हमने बचपन से सुना है कि कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है और इस मुद्दे को शांतिपूर्ण तरीक़े से हल किया जाना चाहिए.''

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हुसैन की पेंटिग में क्लाश्निकोव का इस्तेमाल होता है

मसूद हुसैन कहते हैं, ''घाटी में पिछले तीन महीने से जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त है. लोग कभी कर्फ्यू की वजह से अपने घरों में बंद रहते हैं और कभी हड़तालों की वजह से. जगह-जगह सेना और अर्धसैनिक बल तैनात हैं, सड़कों पर कांटेदार तार हैं, स्कूल-कॉलेज भी बंद हैं. स्थिति सामान्य होने के जल्द कोई आसार नज़र नहीं आते.''

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मसूद हुसैन के अनुसार "सभी चाहते हैं कि हालात सुधर जाएं, मैं भी यही चाहता हूँ क्योंकि मैं तो वैसे ही हताशा का शिकार हूँ और मेरा अपना काम ही मुझे और उदास कर देता है. अगर हालात सुधर जाएं तो हम भी अपने काम में रंग भरना शुरू कर देंगे."

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