मुस्लिम महिलाओं के बराबरी के दर्जे का विरोध क्यों?
- शकील अख़्तर
- बीबीसी उर्दू संवाददाता, दिल्ली

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भारत में इन दिनों मुस्लिम महिलाओं को संविधान के मूल सिद्धांतों के तहत निकाह, तलाक़ और विरासत जैसे मामलों में बराबरी का दर्जा देने या उनके साथ धर्म के नाम पर लगातार हो रहे भेदभाव के सवाल पर बहस जारी है.
धार्मिक संगठन मुस्लिम महिलाओं को संविधान के सिद्धांतों के मुताबिक पुरुषों के बराबर का दर्जा दिए जाने की सरकारी कोशिशों को अपने धर्म में दख़ल क़रार दे रहे हैं.
मुस्लिम महिलाओं की ओर से तीन तलाक़ और एकतरफा तलाक़ के सवाल पर भारत की अदालत में कई आवेदन दाख़िल किए गए हैं.
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अदालत ने इन सवालों पर सरकार की राय जाननी चाही थी. जिस पर सरकार ने अपने जवाब में कहा है कि पत्नी को एक ही बार में तीन तलाक़ देने, निकाह ए हलाला, और कई निकाहों का रिवाज़ संविधान के लैंगिक समानता के सिद्धांत और महिलाओं की गरिमा के ख़िलाफ़ है. इसलिए भेदभाव के इन तरीकों को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए.
भारत सरकार ने पहली बार इस महत्वपूर्ण सवाल पर एक स्पष्ट रुख़ अख़्तियार किया है जिसकी महिला संगठनों ने सराहना की है.
इन संगठनों का कहना है कि जिस समाज में लिंग के आधार पर भेदभाव होता है वह समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता.
उम्मीद के मुताबिक़ मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने सरकार के इस रुख़ के ख़िलाफ़ पूरी शिद्दत से विरोध किया है.
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इन संगठनों का कहना है कि सरकार उनके धार्मिक मामलों में दख़ल दे रही है.
इसी दौरान देश के राष्ट्रीय विधि आयोग ने एक प्रश्नावली जारी की है और लोगों से पूछा है कि अलग अलग धर्मों के लोगों के लिए अलग कानून की जगह, पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए समान कानून या सिविल कोड लागू किए जाने के बारे में उनकी क्या राय है?
मुसलमानों के धार्मिक संगठन समान लोकतांत्रिक कानून के इन प्रयासों को व्यापक हिंदुत्व का एजेंडा बता रही है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का रूख
भारत में मुसलमानों के लिए सिविल कोड मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तैयार किया है. यह एक गैर निर्वाचित, अलोकतांत्रिक और विभिन्न धार्मिक संगठनों का स्वयंभू संगठन है.
यह ग़ैर चयनित संस्था ख़ुद को भारतीय मुसलमानों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि क़रार देता है.
पिछले दशक में धार्मिक संगठनों की आपसी रंजिश, सैद्धांतिक टकराव और राजनीतिक ताक़त हासिल करने की खींचतान में यह संस्था काफ़ी कमज़ोर पड़ चुकी है.
कुछ शिया संगठनों और बरेलवी विचारधारा के बड़े संगठन मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड पर आरोप लगाते रहे हैं कि इस पर देवबंदी विचारधारा के संगठनों का बोलबाला है.
उनका यह भी कहना है कि यह संस्था ख़ास तौर पर अगड़े मुसलमानों की गिरफ़्त में है जिनके हितों का देश के बहुसंख्यक पिछड़े मुसलमानों के हितों से टकराव रहा है.
मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड आज़ाद भारत में मुसलमानों के लिए एक सर्वसम्मत निकाहनामा और तलाक़ का सर्वसम्मत तरीका तक तैयार नहीं कर सका है.
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हालांकि बोर्ड का दावा है कि उसने मुस्लिम समाज में कई सुधार किए हैं. इसके विपरीत जानकारों का कहना है कि यह बोर्ड ख़ास तौर पर सुधार विरोधी है और यह मुसलमानों के विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा है.
विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों के एक मध्यम वर्ग की कमी थी और देश के विपरीत राजनीतिक हालात भी थे. ऐसे में मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने मुस्लिम समाज में भरोसा पैदा करने और मदरसों के ज़रिए कुछ हद तक शिक्षा पहुंचाने में बड़ा योगदान दिया.
राजनीतिक नेतृत्व की कमी की वजह से लंबे समय तक इन धार्मिक संगठनों ने मुसलमानों के राजनीतिक नेतृत्व की कमी को भी बहुत हद तक दूर करने में मदद की है.
समय के साथ-साथ मुसलमानों में शिक्षा और जागरूकता पैदा होने लगी, लेकिन ये संगठन समय के साथ बदल नहीं सके.
भारत में आज मुसलमान भले ही सबसे पीछे हों लेकिन वह अपने पिछड़ेपन को शिद्दत से महसूस कर रहा है. वह उन वजहों को भी समझने की कोशिश कर रहा है जो उसके पिछड़ेपन का कारण बने हुए हैं.
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भारत में मुस्लिम समाज में महिलाओं की हालत सबसे बुरी है. मुस्लिम महिलाएं शिक्षा, आर्थिक हालात और स्वास्थ्य के लिहाज से भारत की सबसे कमज़ोर नागरिक हैं. निकाह और तलाक़ जैसे मामलों में एकतरफा नियमों और पुरानी परंपराओं ने उसे और कमज़ोर कर रखा है.
अब भारत में मुसलमान दूसरे तबकों से पीछे रहने को सहन नहीं कर सकते. मुसलमानों के विकास के लिए सदियों से भेदभाव की पीड़ित महिलाओं को बराबरी के स्तर पर लाना बहुत ही ज़रूरी है.
मौजूदा दौर में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का महत्व और उसकी ज़रूरत ख़त्म हो चुकी है.
धर्म के नाम पर महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और समान नागरिक संहिता का विरोध, वह अपने वजूद को बचाने के लिए कर रहा है.
लोकतंत्र में जनता के फ़ैसले, लोकतंत्र और लैंगिक समानता में भरोसा रखने वाले ही करेंगे.
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