झारखंड में क्यों हो रही है पुलिस कार्रवाईयां

  • नीरज सिन्हा
  • रांची से, बीबीसी हिंदी के लिए
भूमिअधिग्रहण को लेकर सड़क पर उतरे आदिवासी

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झारखंड में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन का सिलसिला तेज हो गया है और अब जगह-जगह हिसंक झड़पें हो रही है.

55 दिनों के दौरान तीन अलग-अलग जगहों पर हिंसक झड़पों के बीच पुलिस फायरिंग में सात गांव वालों की मौत हो गई है. जबकि पुलिस समेत कम से कम चालीस लोग घायल हुए हैं.

ताजा घटना खूंटी की है, जहां शनिवार यानी 22 अक्टूबर को हुई पुलिस फायरिंग में एक आदिवासी की मौत हो गई है. खूंटी में हुई इस हिंसक झड़पों में घायल ग्रामीणों समेत बारह पुलसकर्मियों को इलाज के लिए रांची लाया गया है.

इस घटना के विरोध में आदिवासी संयुक्त समाज ने रविवार को खूंटी बंद का आह्वान किया है.

रविवार को लोग सड़कों पर उतर आए हैं और सरकार के ख़िलाफ नारेबाजी कर रहे हैं. 24 अक्तूबर को विपक्षी दलों और सामाजिक संगठनों ने बड़कागांव पुलिस फायरिंग के विरोध में झारखंड बंद का आह्वाहन किया है.

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झारखंड पुलिस के प्रवक्ता एमएस भाटिया ने बताया "रांची रेंज के डीआईजी खूंटी में कैंप कर रहे हैं साथ ही अतिरिक्त पुलिस बलों की तैनाती भी की गई है. उन्होंने बताया कि खूंटी के सायको गांव में भीड़ ने पुलिस वालों को बंधक बना लिया था और उनकी जान लेने पर तुले थे, तब पुलिस ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाई.

22 अक्टूबर को झारखंड की राजधानी रांची में आदिवासी संघर्ष मोर्चा ने आक्रोश महारैली का आयोजन किया था. तब राज्य में कई जगहों पर आदिवासियों को रैली में आने से रोका जा रहा था.

इसी बीच खूंटी में पुलिस के साथ ग्रामीणों की झड़प हो गई. तब रैली में आदिवासी नेताओं ने "उलगुलान"का ऐलान कर दिया. आदिवासी समाज मे "उलगुलान" का मतलब संकट के समय "बड़ी क्रांति" करना है.

इससे पहले एक अक्टूबर को हज़ारीबाग जिले के बड़कागांव में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन कर रही स्थानीय कांग्रेस विधायक निर्मला देवी की गिरफ्तारी के बाद वहां के ग्रामीणों की पुलिस से झड़प हो गई थी. तब पुलिस फायरिंग में चार लोग मारे गए थे.

मरने वालों में तीन छात्र और एक मजदूर थे. मृतकों के परिजनों का आरोप है कि "पुलिस ने बेकसूरों को गोलियां मारी है."

बड़कागांव में नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन की कोल परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहित की जा रही है और बहुत से किसान जमीन नहीं देना चाहते हैं. इसी को लेकर वहां टकराव है.

इन दोनों घटनाओं से पहले 28 अगस्त को रामगढ़ के गोला में पावर कंपनी के बाहर प्रदर्शन कर रहे विस्थापितों पर पुलिस की फायरिंग मे दो ग्रामीणों की मौत हो गई थी.

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जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय का कहना है "बीजेपी शासन में सरकारी तंत्र बेलगाम है और आम लोगों की जान की कीमत दो लाख रुपए लगाई जा रही है. पूरे राज्य में आदिवासी, किसान और खेतिहर मजदूर गुस्से में हैं."

पुलिस फायरिंग की इन घटनाओं के बाद सरकार ने मृतक के परिजनों को दो-दो लाख रुपए मुआवजा देने की भी घोषणा की है. इनके अलावा जांच भी बैठाई गई है.

झारखंड में बीजेपी की सरकार ने हाल ही में आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा को लेकर अंग्रेज के जमाने में बने दो मजबूत -छोटानागपुर काश्तकारी और संतालपरगना काश्तकारी अधिनयिम में संशोधन प्रस्ताव तैयार कर मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा है.

दरअसल, सरकार दोनों कानून में संशोधन चाहती है और आदिवासियों की कृषि योग्य भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्य में कर सकें और आधारभूत संरचना के नाम पर उनकी जमीन ली जा सके.

मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा भी है "सरकार इन कानूनों में छेड़छाड़ नहीं कर रही है और इसे सरल बनाया जा रहा है.''

मुख्यमंत्री ने भूमिहीन आदिवासियों को जमीन देने तथा ग्राम प्रधानों को सम्मान देने की घोषणा की है. उन्होंने यह भी कहा है कि राज्य के विपक्षी दल इन कानूनों के मुद्दे पर लोगों को उलझा कर विकास को बाधित करने की साजिश कर रहे हैं.

वहीं आदिवासी संघर्ष मोरचा के संयोजक तथा पूर्व मंत्री बंधु तिर्की कहते हैं ''सरकार का यह फैसला आदिवासियों के लिए मौत का फरमान जैसा है. वे किसी भी हाल में इन कानूनों में छेड़छाड़ या दखल नहीं चाहते."

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तिर्की ने सरकार पर आरोप लगाया है कि "सरकार उद्योगपतियों को जमीन देने के लिए आदिवासी विरोधी फैसले ले रही है."

इन दिनों पूरे राज्य में विस्थापन तथा आदिवासी सवालों पर लोगों को गोलबंद करने में जुटे पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने आरोप लगाया है "हक और अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोगों पर सरकार लाठी- गोली चलवा रही है. बेजेपी की सरकार आदिवासी विरोधी है.''

आदिवासी जन परिषद के प्रेमशाही मुंडा का कहना है "सरकार द्वारा तय की गई स्थानीय नीति आदिवासी मूलवासी के हितों में नहीं है. इसके इलावा आदिवासी जल, जंगल और जमीन पर सीधे तौर पर अपना परंपरागत अधिकार चाहते हैं.'

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