'कैश काउंटर मिलता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं'
- नितिन श्रीवास्तव
- बीबीसी संवाददाता

इमेज स्रोत, AFP
(भारत में जब से नोटबंदी लागू हुई है उसके बाद से ग्राहकों से लेकर बैंक कर्मियों तक सभी को अलग-अलग तरह की मुश्किलें आ रही हैं. गुजरात में एक सरकारी बैंक में काम करने वाली 29 साल की महिला (नाम ना बताने की शर्त पर) ने बीबीसी से अपने पिछले दिनों की आपबीती सुनाई)
आठ नवंबर का दिन रोज़ की ही तरह का था. मैंने बैंक की ब्रांच में अपनी एक सहयोगी को उसके बच्चे के जन्मदिन के लिए एक-आध अच्छी लेकिन किफ़ायती जगह बताई और कैश काउंटर पर कुछ परिचित चेहरों से हाल-चाल पूछा.
घंटे भर तक लंच करने के बाद थोड़ी खुमारी भी रही उस मंगलवार को. शाम काम ख़त्म होते निकल गई क्योंकि रास्ते से सब्ज़ी भी लेनी थी. पति कॉरपोरेट जगत में हैं तो लेट ही घर लौटते हैं.
अपना फ़ेवरिट टीवी शो खोला ही था कि रिश्तेदारों और दोस्तों के फ़ोन आने लगे, "अरे तुमने बताया नहीं", "मेरे पास 20,000 रुपए हैं और वो भी 500 के नोट", "यार एटीएम में नोट ही नहीं है, तेरे पास 100 की गड्डी पड़ी होगी क्या."
इमेज स्रोत, AFP
जब खबर देखी तो होश उड़ गए. पहला ख़्याल यही आया कि एटीएम से जाकर कुछ पैसे निकाल लूँ क्योंकि हज़ार में से साढ़े छह सौ तो सब्ज़ी में खर्च हो गए थे. उसके बाद से जो आठ दिन बीते हैं उनकी कल्पना शायद कभी नहीं की थी.
बैंक के बाहर भीड़, लोगों के ताने, अंदर पहुँचने वालों की आँखों में जैसे जलती हुई आग. पूछिए मत, इन दिनों जब सुबह ब्रांच मैनेजर सभी को दिन की ड्यूटी बाँट रहे होते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं जब खुद को कैश काउंटर मिलता है.
ऐसा नहीं कि मैं कामचोर हूँ या काम करने से बच रहीं हूँ. इस बात का बहुत फ़क्र भी है कि अपने करियर में ये दौर देख रही हूँ. बस अफ़सोस इसी बात का है कि पब्लिक डीलिंग का ये चेहरा कभी नहीं देखा था.
इमेज स्रोत, AFP
परिचित चेहरे भी जैसे हमें विलेन समझने लगे हैं और ऐसे घूर कर देखते हैं जैसे हमने कोई गुनाह कर दिया हो. इसमें हमारी क्या गलती हैं कि हम लोगों को 2000 के नए नोट बदल कर देते हैं. सच्चाई यही होती है कि हमारे करेंसी चेस्ट में भी 100 रुपए के नोटों का अक्सर अभाव हो जाता है.
लोग इस साधारण बात को नहीं समझ रहे कि एटीएम मशीनों में से 2000 रुपये के नोट डाले ही नहीं जा रहे हैं तो ज़ाहिर है 100 के नोटों की खपत वहीं पर ज़्यादा होगी.
एक दिन दोपहर को कैश काउंटर पर खड़े एक ग्राहक ने दूसरे को देखते हुए मुझ पर फ़ब्ती कसी, "बैंकों की मत पूछिए, न जाने कहाँ-कहाँ से कॉलेज के छात्र-छात्राओं को उठा कर बैठा देते हैं. पुराने ज़माने के कैशियर हाथ से ही नोट जनकर किनारे लगा देते थे."
इमेज स्रोत, AP
यकीन मानिए, दो दिन तक कैश देते समय हाथ कांपते रहे और एक नज़र काउंटर पर खड़े कस्टमर पर रही ये देखने के लिए कि कहीं उसकी भी सोच वही तो नहीं जो उस दिन सुनने को मिली थी.
तब से पति से पांच बार पूछ चुकी हूँ, "क्या मुझे बैंकिंग के करियर के आगे भी देखना चाहिए." पति से जवाब मिलता है, "परेशान मत हो, पब्लिक डीलिंग में ऐसा होता है. कुछ एक साल में आदत पड़ ही जाएगी."
और तो और, सुबह ब्रांच पहुँचती हूँ तो कम से कम 60-70 लोग सुबह से ही बाहर खड़े मिलते हैं. नज़रें बचानी पड़ती हैं कभी-कभी क्योंकि उनमें से कुछ को लगता है कि हमें तो दिक्कत ही नहीं होगी क्योंकि हम बैंकर हैं.
इमेज स्रोत, Reuters
सच ये है कि नोटबंदी की घोषणा के समय ही हमारे मैनेजर ने साफ कह दिया था कि कुछ दिन सिर्फ पब्लिक के लिए काम करना है फिर पैसे बदलने या जमा करने की सोचिएगा.
और समय किसके पास रहा? पतिदेव ने खुद तीन घंटे बिताए तब एक एटीएम से उन्होंने अपने 2000 और मेरे 2000 रुपए निकाले थे.
अपने बैंक के बाहर लगे एटीएम में मेरी खुद ही जाने की हिम्मत नहीं होती!
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)