नज़रिया: मोदी के आँसुओं ने आलोचना को धो डाला

  • शिव विश्वनाथन
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मोदी इफ़ेक्ट में मुद्दे गौण?

नरेंद्र मोदी भारत के शायद पहले प्रधानमंत्री हैं जो डिजिटल दुनिया के माहिर हैं, या कम से कम सेल्फ़ी और ऐप वाली भाषा में धाराप्रवाह बोलते हैं.

लेकिन मार्के की बात ये है कि वे भारत की वाचिक परंपरा से जुड़े हुए हैं. वो समझते हैं कि टीवी कई बार सियासी खेल का ढंग बदल देता है लेकिन वे सहज रूप से जानते हैं कि वाचिक परंपरा का असर भारत पर कितना गहरा है.

प्रधानमंत्री को अगर संवाद करना है तो उसे मौखिक, लिखित और डिजिटल, तीनों तरीक़ों में महारत होनी चाहिए.

लेकिन अपनी छवि को गढ़ने और निखारने में मोदी की महारत की जड़ें उनके बोलने के हुनर में ही हैं.

वाचिक परंपरा में कथा सुनाने के नियम अलग होते हैं. पहली बात कि दोहराव काफ़ी अहम होता है, दोहराव से एक ही बात के अनेक रूप सामने आते हैं.

मोदी दोस्ताना तरीक़े से बात बताते हैं, और उनके दोहराव पूरी बात को प्रश्न-उत्तर में बदल देते हैं.

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भाव भंगिमाएँ काफ़ी अहमियत रखती हैं, मोदी अपने शरीर पर उतना ही ध्यान देते हैं जितना किसी कबीले का सरदार किसी बड़े अनुष्ठान से पहले देता है.

फिर बात आवाज़ की भी है, वो दोस्ताना तो हो ही, साथ में जनता को पसंद आने वाला हो.

लोगों को अपने मुहल्ले में होने वाली बातों की झलक भी मिलनी चाहिए और लगना भी चाहिए कि देश की बात हो रही है जिसे वे जानते हैं.

लेकिन इन सबसे बढ़कर है भावनाएँ, कई बार घटनाएँ उतनी अहम नहीं होतीं लेकिन भावनाएँ उनको यादगार बना देती हैं. अगर कोई किसी से पूछता है कि "मोदी ने क्या कहा?" तो उसे जवाब शब्दों में नहीं, आँसुओं में मिलेगा.

आंसू नाटकीयता पैदा करते हैं, निकटता पैदा करते हैं, अपनेपन का आभास देते हैं और लगने लगता है कि यह तो हमारे जैसा ही है.

आँसू दूरियों को पाटते हैं, भावनाओं को उकसाते हैं, पूरी घटना को निजी अनुभव में बदल देते हैं, फिर लोग कहते हैं, "आज हमारे पीएम रो पड़े."

अब उनके आँसू बलिदानों की माँग करने लगते हैं जो मोदी जी राष्ट्रहित में माँग रहे हैं.

आँसुओं ने जो नाटकीयता पैदा की है उसका जवाब भी जनता नाटकीयता के साथ ही देती है, ये सब किसी सीधे-सादे भाषण से हासिल नहीं हो सकता.

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नरेंद्र मोदी

आँसू पहले समूह बनाते हैं, फिर उनमें एकता का भाव जगाते हैं और फिर लोग आँसुओं का कर्ज़ उतारने में लग जाते हैं.

अक्सर होने वाले शक्ति प्रदर्शन के बीच में कभी-कभी आँसू ऐसा दिखाते हैं जैसे महानायक ख़तरे में है, उसे मदद चाहिए.

जनता का दिल भर आया है, अब आप कहते रहिए कि ये तो किसी घटिया हिंदी फ़िल्म सरीखी नाटकीयता है, लेकिन असली बात तो यही है कि हम सब बी-ग्रेड हिंदी फ़िल्मों की भारी खुराक पर पले हैं. नीरस एकाउंटेंट, कड़क मैनेजर सब ये कहते मिल जाते हैं कि यही बेस्ट पीएम है, यही असली नेता है, वही हमें समझता है.

जब पिक्चर हिट है तो क्रिटिक कुछ भी कहते रहें. जनता मान चुकी है कि मोदी का नोटबंदी का फ़ैसला महान और ऐतिहासिक है, जनता त्याग के लिए तैयार है.

आँसुओं ने रोज़मर्रा की आलोचना और अविश्वास को धो डाला है.

जनता को लगा कि मोदी सच्चे हैं, मोदी का तीर निशाने पर लगा है.

बैंकों के बाहर की लंबी कतारें और लोगों की परेशानी की बातों का कुछ ख़ास असर नहीं हो रहा है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

उनका एक भाषण मुझे पसंद नहीं आया, मेरे साथ बैठे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम्हीं में कुछ गड़बड़ है, मोदी में नहीं, तुम्हें मोदी की नहीं, अपनी फिक्र करनी चाहिए".

मोदी मनोविज्ञान के आचार्य हैं, मैं जिसे 'डिज़ाइनर आँसू' समझता हूँ, दूसरे लोगों के लिए वो गंगा की तरह निर्मल और पवित्र हैं.

मैं समझ रहा था कि मैं सही हूँ लेकिन मैं एक ग़लती भी कर रहा था, वो ग़लती है मोदी इफेक्ट को न समझना.

वीर और करुण रस का अदुभुत संगम नोटबंदी को कामयाब बना सकता है, रोकर वे लोगों की तकलीफ़ों की बात नहीं कर रहे हैं, त्याग और समर्पण की माँग कर रहे हैं.

उनकी इस अदाकारी को सलाम, काश लोग याद रख पाते कि अदाकारी से देश और दुनिया नहीं चलती.

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