चो रामास्वामी- जिन्होंने 2008 में ही मोदी में भावी पीएम देखा
- इमरान कुरैशी
- बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
चो रामास्वामी का जाना तमिलनाडु में राजनीतिक व्यंग्य के दौर का खत्म होना जैसा है. ये वो दौर था जब कद्दावर नेताओं को भी पता था कि वे किसी आलोचना से परे नहीं हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि व्यंग्यकार, पत्रकार, नाटककार, अभिनेता और राजनीतिक सलाहकार चो रामास्वामी का राजनीतिक झुकाव दक्षिणपंथ की ओर था. इसके बावजूद जो भी पार्टी सत्ता में रही हो, जब भी मीडिया की आज़ादी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात उठी, वे मोर्चे पर सबसे आगे रहे.
रामास्वामी ने अपनी तुग़लक पत्रिका के ज़रिए देश के भीतर संवेदनशील मौकों पर समय समय पर हस्तक्षेप किए. 1975 में जब इमरजेंसी लागू हुई तब पत्रिका ने विरोध दर्ज करते हुए अपना पहला पन्ना काला करके छापा.
यही नहीं, ये अकेली पत्रिका थी जिसने 1992 में हुए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद फिर से काला मुखपृष्ठ छापा था. तुग़लक का नाम 60 के दशक के अंतिम दौर में तमिल दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले नाटक के नाम पर रखा गया है.
चो रामास्वामी एक फ़िल्म में अभिनय करते हुए
'कस्तूरी एंड सन्स' के चेयरमैन और 'द हिंदू' अखबार के पब्लिशर एन राम ने बीबीसी हिंदी को बताया, "चो खास थे, सबसे अलग. तमिलनाडु में उनकी तंज की शैली और बातचीत का लहजा अलग था. मंच पर ऐतिहासिक घटनाओं का मंचन करने वाले, मौजूदा दौर की बड़ी और प्रभावशाली शख्सियत थे वो."
चो का राजनीतिक पक्ष कई बार कई लोगों को पसंद नहीं आता था.
राम बताते हैं, "राजनीति को लेकर अक्सर उनकी सोच और अंदाज़ व्यावहारिक होते थे. मिसाल के तौर पर जब भाजपा मज़बूत विपक्ष नहीं थी तो उन्होंने केंद्र में कांग्रेस का और तमिलनाडु में एआईएडीएमके का समर्थन किया. आप उनके राजनीतिक रवैये को नजरअंदाज नहीं कर सकते. उनके अपने तर्क हुआ करते थे."
उन्होंने बताया, "लेकिन जब श्रीलंका की बात आई, तो उन्होंने एलटीटीई यानी लिट्टे का पक्ष लेते हुए भारत के फैसले का विरोध कर सबको चकित कर दिया."
राम के मुताबिक़, "हालांकि आखिरकार चो सही साबित हुए और मैंने सबके सामने इस बात को स्वीकार किया था."
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एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक वासंती बताते हैं, "वे बड़े ही निडर व्यक्ति थे. डीएमके या इसके किसी भी नेता से उनका कोई खास लेना-देना नहीं था. लेकिन जयराम जयललिता के लिए उनके मन में सॉफ्ट कॉर्नर था. वे उन्हें तब से जानते थे जब वे तमिल सिनेमा में युवा अभिनेत्री थीं. तब वो भी एमजी रामाचंद्रन के साथ, उनके मुख्यमंत्री बनने के पहले, फ़िल्मों में अभिनय किया करते थे. वे हमेशा से एमजी रामाचंद्रन को अच्छा इंसान और उदार नेता मानते थे."
लेखक और आलोचक गौरी रामनारायण कहते हैं, "उन्हें खुद पर भरपूर यकीन था. खूब हाजिरजवाब थे. इसमें कोई दो राय नहीं कि संवाद अदा करने के अंदाज ने उनके नाटक तुग़लक को चर्चित कर दिया. लेकिन वे पुरुषवादी सोच के थे. ये बात उनकी पत्रिका में भी झलकती रही है."
कला समीक्षक सदानंद मेनन कहते हैं कि चो के नाटक के बारे में उनकी राय अलग है. वे कहते हैं, "मैं उन्हें कोई बड़ा नाटकार नहीं मानता. उनके थियेटर ने समाज में कोई नई लहर पैदा नहीं की. ये बस ये बताने का जरिया बन कर रह गया था कि द्रविड़ पार्टियां कितनी भ्रष्ट हैं, बेकार हैं. मैं उन्हें नाटककार से ज्यादा राजनीतिक विश्लेषक मानता हूं."
उनमें ग़जब की राजनीतिक दूरदर्शिता थी. उनके दोस्त और साथ काम करने वालों ने एक वाकया बताया. इससे पता चलता है कि कैसे चो लिट्टे पर भारत की नीति पर अपने अलग राय रखने के साथ ही भविष्य में होने वाली बातों को भांप लेते थे.
हर साल, तुग़लक पत्रिका के हजारों पाठक पत्रिका के सलाना समारोह में आते थे. यहां चो राजनीतिक हालात पर चर्चा करते. पाठक उनसे छोटी सी पर्ची पर लिखकर सवाल पूछते थे.
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ये 14 जनवरी, 2008 की बात थी जब वो ऐसे ही किसी सवाल का जवाब दे रहे थे. जवाब देते देते उन्होंने एक बात कही थी, "गुजरात के मुख्यमंत्री में मुझे देश का भावी प्रधानमंत्री दिखाई देता है."
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे 2015 अगस्त में अपने बेहद व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद अस्पताल में जाकर मुलाकात की थी.