नज़रिया- मोदी को कौन बोलने नहीं दे रहा?

  • क़मर वहीद नक़वी
  • वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
नरेंद्र मोदी

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ग़ज़ब बोलम-बोल कबड्डी चल रही है. बोलो-बोलो का हल्ला बोल है, लेकिन सबको शिकायत है कि कोई बोलने ही नहीं देता!

सत्ता वाले बोलते हैं कि विपक्ष बोलने नहीं देता, विपक्ष बोलता है कि सत्ता वालों ने बोलने नहीं दिया. बोल सब रहे हैं, लेकिन कोई बोल पा नहीं रहा है!

नोटबंदी में जनता की बोलती बंद है, और संसद में बहस बंद है! कहावत है कि नौ दिन चले अढ़ाई कोस. यहां तो नौ में एक दहाई भी जुड़ गई, उन्नीस दिन हो गए, लेकिन संसद में विपक्ष और सत्ता पक्ष का रगड़ा ढाई इंच भी नहीं सरक पाया!

मुद्दा गया भाड़ में. सारा बोलबाला यही है कि बोलना है कि नहीं बोलना है, और बोलने देना है कि नहीं बोलने देना है.

प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वह लोकसभा में नहीं बोल पाए, इसलिए जनसभा में बोले. क्या करते? मजबूरी थी!

उधर, विपक्ष उन्नीस दिनों से कह रहा है कि प्रधानमंत्री देश भर में घूम-घूम कर जनसभाओं में बोल रहे हैं, तो लोकसभा में क्यों नहीं बोलते? वह बहस से क्यों भाग रहे हैं? क्या मजबूरी है?

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मजबूरी तो जनता की है. रोज़ बैंकों और एटीएम के सामने लाइन लगाने की. वह चुपचाप लाइन लगा रही है.

नोट मिल गए तो ख़ुश, नहीं मिले तो दिल को ढाढ़स देकर अगले दिन फिर लाइन हाज़िर! नरेंद्र मोदी जी ने कह ही दिया है कि एटीएम की लाइन में ईमानदार जनता देश की सेवा में खड़ी है!

तो जनता की जेब में नोट हों, न हों, दो-दो तमग़े ज़रूर टाँक दिए गए हैं, ईमानदारी के और देश-सेवा के! विपक्ष वालों का कहना है कि जनता बड़ी परेशान है.

मोदी जी का कहना है कि जनता देश-सेवा में लगी है, देश-सेवा में परेशानी कैसी? दोनों के अपने-अपने चश्मे हैं. एक जनता दोनों को अलग-अलग रंग की दिखती है!

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प्रधानमंत्री लोकसभा में नहीं बोल पाए. और पिछले हफ़्ते राहुल गाँधी भी यही शिकायत कर रहे थे कि वह लोकसभा में बोल नहीं पाए! अजीब माजरा है कि नहीं!

न ये बोल पा रहे हैं, न वो बोल पा रहे हैं. दोनों कह रहे हैं कि वह बोलना चाहते हैं, लेकिन दूसरे पालेवाले हू तू तू, हू तू तू कर बोलने ही नहीं देते. इसी को कहते हैं बोल कबड्डी. बोलेंगे बोलो, और बोलने भी नहीं देंगे!

तो शुक्रवार को सत्ता पक्ष ने राहुल गाँधी को बोलने नहीं दिया. सुना है कि वह बड़ी तैयारी करके आए थे. कह रहे थे कि वह बोलेंगे तो भूकम्प आ जाएगा!

लेकिन सत्ता पक्ष ने आख़िरी मौक़े पर अचानक रणनीति बदल ली. और राज्यसभा में मनमोहन सिंह को बोलने का मौक़ा देकर जो 'ग़लती' की थी, वह नहीं दोहरायी.

तो पिछला हफ़्ता तो किसी 'भूकंप से सुरक्षित' बीत गया. अब बाक़ी के तीन दिन हैं. शायद नोटबंदी पर बहस हो जाए. क्योंकि दोनों पक्ष अब कुछ न कुछ तो 'स्कोर' करना ही चाहेंगे.

ज़ाहिर है कि अगले इन तीन दिनों में नज़रें नरेंद्र मोदी पर भी होंगी कि वह 'जनसभा' के बजाय लोकसभा में बोलेंगे, तो क्या बोलेंगे? और राहुल गाँधी पर भी कि वह क्या वाक़ई किसी ऐसे 'स्कैम' का भंडाफोड़ करने वाले हैं, जिससे 'भूकंप' आ सकता हो?

अगर वाक़ई उनके पास ऐसा कोई सनसनीख़ेज़ मामला है, तब तो ठीक. वरना राहुल गाँधी को एक बिन माँगी सलाह कि राजनीतिक संवाद में भाषा और शब्दों का मामला बड़ा नाज़ुक होता है. बात सिर्फ़ बोलने की नहीं, बल्कि कब, कहाँ, क्या और कैसे बोलने की है.

कैसे बोलना चाहिए, यह न बोलनेवाले मनमोहन सिंह ने दिखा दिया. राज्यसभा में दिया उनका भाषण सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर गया. तीन वजहें थीं.

एक तो यह कि उनके 'समझदार अर्थशास्त्री' होने पर किसी को कोई शक नहीं. दूसरे उनके ईमानदार होने पर भी किसी को कोई शक नहीं. इसलिए वह केवल राजनीतिक निशानेबाज़ी के लिए कुछ बोलेंगे, ऐसा उन्होंने पहले कभी किया नहीं.

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यानी लोगों को लगा कि मनमोहन सिंह जो बोल रहे हैं, वह राजनीति नहीं, बल्कि शुद्ध अर्थशास्त्र है. और तीसरा यह कि जो आदमी लगभग नहीं के बराबर बोलता हो, जब वह बोलने पर मज़बूर हो, तो उसकी बात को गम्भीरता से लेना ही पड़ता है.

बहरहाल, अब सवाल है कि नोटबंदी पर चर्चा को लेकर यह अड़ा-अड़ी क्यों थी? विपक्ष क्यों वोटिंग वाले नियम को लेकर बहस की माँग कर रहा था और सरकार को यह माँग क्यों नामंज़ूर थी? क्या दोनों ही पक्ष मामले को टरकाए रखना चाहते थे कि कुछ दिन की नोटबंदी के बाद असर को देख लें और तब बोलें.

हो सकता है कि यह विपक्ष की रणनीति हो क्योंकि विपक्ष की मजबूरी थी कि वह नोटबंदी का समर्थन कर नहीं सकता था, उसे तो इसका विरोध करना ही था, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त तब यह थी कि जनता नोटबंदी को बहुत 'बोल्ड' क़दम मान रही थी.

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आज महीने भर बाद जनता का मूड वैसा 'उत्साहमयी' तो नहीं ही दिखता. इसलिए राजनीतिक जोड़-घटाव से आज लगता है कि सरकार ने अगर शुरू के दिनों में ही इस पर चर्चा करा कर मामला ख़त्म कर लिया होता, तो शायद वह फ़ायदे में रहती.

अब जो भी हो, संसद का सत्र तो तीन दिन में ख़त्म हो जाएगा, लेकिन जनता की परेशानी कब ख़त्म होगी.

प्रधानमंत्री मोदी ने शनिवार को गुजरात में अपने भाषण में जनता को फिर से भरोसा दिलाया कि परेशानियाँ बस दिसम्बर तक ही हैं. लेकिन आर्थिक संकेतकों की सारी सुइयाँ कम से कम अभी तक तो लंबी मुसीबतों के इशारे कर रही हैं.

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