नोटबंदी की हदों से बाहर राजनीतिक चंदे
- प्रोफ़ेसर जगदीप छोकर
- बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

इमेज स्रोत, Getty Images
आठ नवंबर को नोटबंदी की प्रधानमंत्री की घोषणा को 44 दिन हो गए हैं लेकिन इस मुद्दे पर देश में हलचल और चर्चा जारी है.
वित्त मंत्रालय में राजस्व सचिव के यह कहने पर कि राजनीतिक दल अपनी मर्ज़ी के मुताबिक रकम पुराने नोटों में बैंक में जमा करवा सकते हैं और उनसे कोई पूछताछ नहीं की जाएगी.
जबकि अगर कोई साधारण नागरिक ढाई लाख रूपए से ज़्यादा की रक़म बैंक में जमा करवाता है तो उससे आयकर विभाग जवाब मांगेगा, इसे लेकर देश में काफी ख़लबली मची हुई है.
बड़ा सवाल जो पूछा जा रहा है वो ये है कि क्या नोटबंदी और काले धन को समाप्त करने के और कदम राजनीतिक दलों पर लागू नहीं हैं और ना ही होंगे?
राजनीति में पैसा
इमेज स्रोत, Getty Images
राजनीति में पैसा, और ख़ास तौर पर काले धन के इस्तेमाल पर चर्चा कई सालों से हो रही है. हालांकि इस बात का कोई ठोस सबूत नहीं है कि राजनीति में काला धन प्रयोग होता है पर इस बात को खुद कई राजनेता भी मानते हैं कि राजनीति में पैसे की आवश्यकता दो कामों के लिए पड़ती है.
एक है उम्मीदवारों का चुनाव लड़ने के लिए खर्च और दूसरा है राजनीतिक दलों को चलाने के लिए लगने वाला पैसा. जहाँ तक चुनाव के लिए उम्मीदवारों के खर्च का सवाल है, दो बातें गौर करने लायक हैं. एक तो यह कि हर चुनाव के लिए उम्मीदवार के खर्चे की एक तय सीमा होती है जो चुनाव आयोग निर्धारित करता है.
हर उम्मीदवार को चुनाव के बाद प्रचार अभियान में किए गए खर्चे का ब्यौरा एक शपथपत्र में निर्वाचन आयोग को देना होता है. अधिकतर उम्मीदवार शपथ पत्र में लिखते हैं कि उन्होंने तय सीमा से बहुत कम खर्चा किया है.
आयकर से छूट
इमेज स्रोत, Getty Images
लेकिन ये सब जानते हैं कि वास्तव में खर्चा सीमा से कहीं अधिक किया जाता है और इस बात को चुनावी उम्मीदवार भी मानते हैं.
दिवंगत गोपीनाथ मुंडे ने 2014 के लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले मुंबई में एक जनसभा में कहा था कि 2009 के लोक सभा चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपए ख़र्च किए थे जबकि उस समय लोकसभा के ख़र्च की सीमा 25 लाख रुपए थी.
अगर राजनीतिक दलों के कामकाज चलाने के खर्चे का सवाल है तो हालात शायद उससे भी बदतर हैं. हालांकि राजनीतिक दलों को आयकर देने से पूरी तरह से छूट है लेकिन उन्हें हर साल अपनी आय का ब्यौरा आयकर विभाग को देना होता है.
चुनाव आयोग
इमेज स्रोत, Getty Images
जब इस ब्यौरे को लेने का प्रयत्न किया गया तो सारे के सारे राजनीतिक दलों ने इसका भरपूर विरोध किया. सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत इस ब्यौरे को लेने में पूरे दो साल लगे.
आयकर कानून के जिस सेक्शन में राजनीतिक दलों को आयकर से पूरी छूट दी गई है, उसमें यह भी लिखा है कि आयकर की छूट उन्हीं दलों को मिलेगी जो अपनी आमदनी का पूरा हिसाब रखेंगे और उनको जितने चंदे बीस-बीस हज़ार रुपये से ज़्यादा के मिलते हैं, उनका ब्यौरा चुनाव आयोग को देंगे.
किसी भी दल की कुल आमदनी में 20-20 हज़ार रूपए के सभी चंदों की हिस्सेदारी 20 से 25 फीसदी की होती है. इसका मतलब यह हुआ कि सभी राजनीतिक दलों की कुल आमदनी का 75 से 80 फीसदी हिस्से के स्रोतों का किसी को पता नहीं है.
सूचना का अधिकार
इमेज स्रोत, Getty Images
75 से 80 फ़ीसदी सभी राजनीतिक दलों का आँकड़ा औसतन है. जब कुल आमदनी का 75 से 80 फ़ीसदी हिस्सा गुमनाम स्रोतों से आता हो और राजनीतिक दल इन स्रोतों के बारे में कुछ भी बताने के लिए राज़ी न हों तो यह संदेह होता है कि यह काला धन तो नहीं है जो संदिग्ध और ग़ैर-कानूनी स्रोतों से या गैर-क़ानूनी तरीकों से आता हो.
इस 75 से 80 फ़ीसदी आमदनी के स्रोतों के बारे में जब राजनीतिक दलों से सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत पूछा गया तो सभी दलों ने कहा कि वह सूचना अधिकार क़ानून के दायरे में नहीं आते.
जब यह मामला केंद्रीय सूचना आयोग के सामने लाया गया तो दो साल तक सुनवाई करने के बाद आयोग ने फैसला दिया कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल (कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी, बसपा, भाकपा और माकपा आरटीआई कानून के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी हैं और उनको इस क़ानून का पालन करना चाहिए.
पारदर्शिता का सवाल
इमेज स्रोत, Getty Images
लेकिन छहों के छहों दलों ने केंद्रीय सूचना आयोग के इस फ़ैसले को मानने से इंकार कर दिया. अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि राजनीतिक दल अपनी आमदनी के बारे में खुल कर ब्यौरा देने को तैयार नहीं हैं और उसे पारदर्शी बनाने की सभी कोशिशों को नाकाम करने की भरसक कोशिश करते हैं.
यह तभी किया जाता है जब कुछ छिपाने को हो. ऐसी हालत में राजस्व सचिव का यह कहना कि राजनीतिक दल जितनी मर्ज़ी राशि पुराने नोटों में बैंक में जमा करवायें, उनसे कोई पूछताछ नहीं की जाएगी, बहुत अजीब और अटपटा लगता है.
यह तो हो नहीं सकता के सरकार को यह पता नहीं कि देश में काला धन तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक राजनीतिक दल उसका प्रयोग बंद नहीं करेंगे. ऐसे में राजस्व सचिव के बयान से सरकार के इरादों पर शंका होना स्वाभाविक है.
सरकार को यह समझना होगा कि काले धन को समाप्त करने के लिए नोटबंदी करना ही काफी नहीं, आगे भी बहुत कुछ करना होगा और उसमें से बहुत कुछ शायद आसान ना हो. इसीलिए नोटबंदी के आगे आसमां और भी हैं!
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉयड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)