पिछड़ों को दलित बनाने पर क्यों तुली है सपा सरकार ?
- समीरात्मज मिश्र
- लखनऊ से बीबीसी डॉटकॉम के लिए

इमेज स्रोत, Samiraatmaj Mishra
उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार ने अन्य पिछड़े वर्गों की 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने संबंधी प्रस्ताव को मंज़ूरी देकर एक बार फिर आरक्षण के मामले में सियासी कार्ड खेलने की कोशिश की है.
समाजवादी पार्टी की पिछली सरकार में भी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ऐसा प्रयास किया गया था.
विपक्षी दल इस पर सरकार की आलोचना कर रहे हैं और इसे इन जातियों के साथ धोखा बता रहे हैं तो जानकार इसके पीछे राजनीतिक साज़िश देख रहे हैं. हालांकि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले समाजवादी पार्टी सरकार ने आरक्षण का एक ऐसा शिगूफ़ा छोड़ा है जिससे बीजेपी और बहुजन समाज पार्टी दोनों को परेशानी हो सकती है, लेकिन दोनों ही पार्टियां फ़िलहाल इसे बहुत गंभीरता से नहीं ले रही हैं.
बहुजन समाज पार्टी ने तो सीधे तौर पर कहा है कि इस फ़ैसले का न तो कोई मतलब है और न ही राज्य सरकार को ऐसा करने का अधिकार है. विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गयाचरण दिनकर इस मामले में समाजवादी पार्टी के साथ-साथ बीजेपी को भी घेरते हैं.
दिनकर कहते हैं, "ये टोटल धोखाधड़ी है. ये स्वाभाविक है कि अगर ऐसा किया जाएगा तो आरक्षण का कोटा भी बढ़ाना पड़ेगा. ये बिना संविधान संशोधन के संभव नहीं है. बीजेपी और सपा दोनों ही पिछड़ों को अपनी ओर करने की कोशिश कर रहे हैं और मिलकर जनता को धोखा दे रहे हैं."
राज्य सरकार ने कैबिनेट की बैठक में 17 अन्य पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने संबंधी प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार के पास भेज दिया है. हालांकि ऐसा ही प्रस्ताव समाजवादी पार्टी ने अपनी पिछली सरकार में भी भेजा था.
इमेज स्रोत, Samiraatmaj Mishra
बीजेपी ने सवाल उठाया है कि दोबारा सत्ता में आने के बाद उसने इस काम में क़रीब पांच साल क्यों लगा दिए.
बीजेपी नेता विजय बहादुर पाठक कहते हैं, "इस फ़ैसले से सरकार की नीयत पर संदेह होता है. 2014 तक केंद्र में यूपीए की सरकार थी और समाजवादी पार्टी उसे समर्थन दे रही थी, लेकिन तब राज्य सरकार ने ये प्रस्ताव नहीं भेजा. अब जब चुनाव की घोषणा में कुछ ही दिन बचे हैं, पांच मिनट में कैबिनेट की बैठक में इसे पारित कर दिया जाता है."
दरअसल, पिछले कुछ समय से भारतीय जनता पार्टी भी इन समुदायों को अपनी ओर करने की कोशिशों में लगी थी और उसने इस बाबत कई सम्मेलन भी आयोजित किए थे. लेकिन अब समाजवादी पार्टी एक बार फिर बीजेपी के इन प्रयासों पर पलीता लगाने की कोशिश कर रही है.
निषाद, मल्लाह, केवट, कहार कश्यप जैसी जिन जातियों को इसमें शामिल किया गया है, उनमें से ज़्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाक़े की हैं. समाजवादी पार्टी इन जातियों के ज़रिए पूर्वांचल में अपनी पैठ और मज़बूत करना चाहती है.
इमेज स्रोत, Samiraatmaj Mishra
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
हालांकि प्रतिशत के हिसाब से इनकी संख्या कोई बहुत ज़्यादा नहीं है, लेकिन राजनीतिक रूप से इन्हें काफी अहम माना जा रहा है. पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी ने भी इनमें से तमाम जातियों को अपने पक्ष में करने के लिए अलग-अलग सम्मेलन आयोजित किए थे.
लेकिन जानकारों का कहना है कि ऐसा करके समाजवादी पार्टी ने बीएसपी का नुक़सान करने की कोशिश की है.
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र कहते हैं, "निश्चित तौर पर इससे बीएसपी का नुक़सान करने की कोशिश की गई है. क्योंकि यदि पिछड़ों की संख्या दलितों के हिस्से में बढ़ाएंगे तो वहां कंप्टीशन बढ़ेगा. ऐसे में दलितों का नुक़सान होगा और राजनीतिक रूप से वो नुक़सान बीएसपी को होगा."
सुभाष मिश्र ये भी कहते हैं कि समाजवादी पार्टी इन पिछड़ी जातियों को दलित समुदाय में करने का समर्थन इसलिए नहीं कर रही है कि वो इनकी हितैषी है, बल्कि वो तो अपने समर्पित पिछड़ी जातियों के लिए राह आसान करना चाहती है.
उनके मुताबिक यदि पिछड़ी जातियों की जनसंख्या कम हो जाएगी तो निश्चित तौर पर उन्हें इसका फ़ायदा होगा और पिछड़ी जातियों के जो वर्ग उनके साथ जुड़े हैं और मज़बूती से पार्टी के साथ खड़े रहेंगे.
इमेज स्रोत, Samiraatmaj Mishra
कुछ जानकार इस फ़ैसले के पीछे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का दिमाग़ कम, पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का दिमाग़ ज़्यादा लगने की बात कर रहे हैं. उनका कहना है कि मुलायम सिंह यादव इस सोच पर पिछले एक दशक से काम कर रहे हैं.
जानकारों का कहना है कि यदि इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार मान भी लेती है, तो भी दलित समुदाय में इन्हें शामिल करने के बाद दलित समुदाय को मिले कुल आरक्षण प्रतिशत को भी बढ़ाना पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि पिछड़े वर्ग से हटाकर जातियां दलित वर्ग में जोड़ दी जाएं और आरक्षण का प्रतिशत न बढ़ाया जाए.
ऐसे में समाजवादी पार्टी ने गेंद भले ही बीजेपी के पाले में फेंकने की कोशिश की हो, लेकिन शायद इससे उसके मंसूबे पूरे न हों. जानकारों के मुताबिक, अव्वल तो ये प्रस्ताव केंद्र सरकार मानने वाली नहीं और यदि मानती भी है तो उसमें इतने संवैधानिक और राजनीतिक पेंच है कि वो ख़ुद किसी तरह का जोख़िम नहीं लेना चाहेगी.
इमेज स्रोत, Samiraatmaj Mishra
जहां तक उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव को देखते हुए इस फ़ैसले की बात है तो राजनीतिक रूप से किसका फ़ायदा होगा, किसका नुक़सान, ये सब तो चुनाव बाद ही पता चलेगा, लेकिन आरक्षण को एक बार फिर चुनावी मुद्दों के केंद्र में लाने की कोशिश तो हो ही गई है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)