नज़रियाः 'नोटबंदी के निशाने पर भ्रष्ट थे, लेकिन शिकार ग़रीब हुए'
- शिव विश्वनाथन
- समाजशास्त्री

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2016 एक अजीब साल था, एक साल जो अपनी बातों से ज़्यादा ख़ामोशी के लिए जाना जाएगा. असल में, घोषणाएं शोर बन गईं और मोदी के भाषणों का शोर नीतियों पर हावी रहा. वो वास्तव में अपनी नीति के अर्णब गोस्वामी बन गए, विरोधियों पर ताने मारना, उन्हें धमकियां देना, ऐसी आक्रामकता दिखाना जो अक्सर उनके विचारों के खालीपन को छुपा लेती है.
मोदी की नोटबंदी की नीति की शुरुआत थ्योरी के शोर से हुई.
एटीएम पर लगी लंबी कतारों को नोटबंदी का समर्थन मान लिया गया. भारत के लोग लाइन में लगने के विशेषज्ञ हैं, समाजवाद से ये ही एक चीज़ उन्होंने सीखी है कि नागरिकता अधिकारों के इंतज़ार की रस्म है. राशन की कतार में लगकर बड़ी हुई पीढ़ी के लिए एटीएम की कतार में लगना कोई बड़ी बात नहीं है.
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उनकी ख़ामोशी, और उनका ये विश्वास कि सरकार भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रही है, दिलचस्प है. सबको यही लगा कि एक बड़ा स्वच्छता अभियान, एक सच्चा स्वच्छ भारत प्रगति पर है. वो विश्वास करना चाहते थे, वो विश्वास करने के लिए उतावले थे, इसलिए ख़ामोशी से इंतज़ार किया और समर्थन किया.
मीडिया ने इस ख़ामोशी को प्रशंसा की तरह दिखाया. तर्क दिया गया कि लोग सरकार का समर्थन कर रहे हैं और उनका ग़ुस्सा बैंकों पर है. मीडिया के लिए ये स्पष्ट था कि ख़ामोशी से इंतज़ार करना समर्थन है.
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अर्थव्यवस्था में आस्था को लगभग धार्मिक रूप दे दिया गया. नोटबंदी को सांस्कारिक कर्म की तरह देखा गया, स्वच्छता का एक संस्कार, भ्रष्टाचार के दानव का संहार. मतदाताओं ने यही सोचा कि उनकी कुछ दिनों की पीड़ा राष्ट्रनिर्माण में उनका योगदान है.
लेकिन जब आप मिथक को बदल देते हैं तो अनुष्ठान के अर्थ भी बदल जाते हैं. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई का अपना नैतिक गुण है. लेकिन भारत को डिजिटल करना और कैशलेस अर्थव्यवस्था एक अलग ही आदर्शलोक का स्वप्न है. यह यथार्थवादी होने के बजाए भविष्यवादी है. इसके लिए कोई तैयारी नहीं थी और इसके परिणामों के बारे में तो सोचा ही नहीं गया. जिस काम के लिए सालों की तैयारी की ज़रूरत है उसे सप्ताह भर के भीतर सतही रूप में सप्ताहभर के भीतर लागू कर दिया गया.
नोटबंदी को 500 और 1000 रुपए के नोटों को ख़त्म करने का नैतिक अनुष्ठान कहा जा सकता है. लेकिन डिजिटलीकरण एक तकनीकी क़दम था जिसका चरित्र मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह है.
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कैशलेस अर्थव्यवस्था में ग़रीबों, प्रवासियों, दिहाड़ी मज़दूरों और कैश आधारित निर्वाहन अर्थव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं है. ये वो लोग हैं जो बहुत कम में गुज़ारा करते हैं और इनके लिए 10-100 रुपए तक के नोट अहम हैं. मोदी भूल गए कि ग़रीब को ही रोज़ाना धन की ज़रूरत होती है.
उनकी नीति को मिला ख़ामोश समर्थन पहले स्तर पर ही विभाजित था. इसमें से कुछ तो ख़ामोशी थी और कुछ उलझन.
अघोषित रूप से ऐसा लग रहा था कि सरकार ने गियर बदल लिया है. शुरुआती उम्मीदों ने व्याकुलता, थकावट और कम में गुज़ारा करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया.
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लेकिन थकावट की ख़ामोशी समर्थन की ख़ामोशी नहीं है. भारत में ख़ामोशी कई भाषाएं बोलती है और मौजूदा ख़ामोशी के कई संदेश हैं. मतदाताओं को लग रहा है कि भले ही नोटबंदी के निशाने पर भ्रष्ट लोग थे, लेकिन इसका शिकार ग़रीब ही हुए हैं.
फिलहाल नोटबंदी वो रॉकेट है जिसने ग़लत निशाना भेद दिया है. लेकिन अब भी 'भक्त और आशावादी' लोग इंतेज़ार ही कर रहे हैं.
ये स्वीकार करना मुश्किल है कि सरकार ने उन्हें बेवकूफ़ बनाया है और सुधारों को पटरी से उतार दिया है.
अब ख़ामोशी का मतलब इन दोनों धारणाओं में से किसी एक के सच बन जाने के इंतज़ार का खालीपन है.
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नोटबंदी का विरोध कर रही तृणमूल कांग्रेस ने प्रदर्शन भी किए हैं.
शक़ बढ़ता जा रहा है क्योंकि समय लगातार खिंचता जा रहा है. दो महीनों की परेशानी का वादा अब छह महीने हो गया है. इंतज़ार अपना अर्थ खो देता है जब वादे बदल जाते हैं.
जब रोज़मर्रा की ज़रूरतों का दबाव बढ़ता जाएगा तो गृहणियां, दुकानदार, चायवाले ये पूछने लगेंगे कि हो क्या रहा है? शुरुआत का जोश अब ग़ायब सा हो गया है. नोटबंदी स्वर्ग के वादे और जादू होने जैसी लगी थी. इसमें यक़ीन करने वाला हर व्यक्ति अब उस जादू को देखना चाहता है, लेकिन जैसे-जैसे समय खिंचता है, भरोसा करने वाले ही शक़ करने लगते हैं. तब ख़ामोशी का भी अर्थ बदल जाता है.
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मतदाता जानता है कि अभी वो निंदक या अविश्वासी नहीं है लेकिन उसे अहसास हो रहा है कि समय उसे ऐसा बना देगा. उसकी ख़ामोशी में निराशा भी है क्योंकि वो सच्चे मन से विश्वास करना चाहता है. मोदी जिसे नष्ट कर रहे हैं वो संस्थानों में लोगों का विश्वास है.
नोटबंदी संस्थानों को ख़त्म करने का ट्रेंड शुरू कर सकती है. फिर हमारे सामने ब्रेक्सिट जैसा मतदाता हो सकता है जो बहुत ख़ामोशी से मोदी को सत्ता से बाहर कर देगा.
ख़ामोशी को निष्क्रिय होने की ज़रूरत नहीं है. वो जितना इंतज़ार करती है उसकी शक्ति बढ़ती जाती है. जब उसकी शक्ति बढ़ती है तो उसके मायने भी बदल जाते हैं.
उम्मीद है कि मोदी ये समझेंगे कि ख़ामोशी के अलग वक़्त में अलग मायने होते हैं. ये शासन करने की बुनियादी समझ है. वो इसे नज़रअंदाज़ करने का ख़तरा नहीं उठा सकते हैं.
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