ये किशोरवय बच्चियां क्यों डरती हैं होली से?

  • सीटू तिवारी
  • पटना से, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
पटना, प्रेरणा छात्रावास की लड़कियां

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"हर बार होली में घर जाती हूं तो अम्मा कहती हैं शादी के लिए फोटो खिंचा लेने को. मैं हर बार उनकी बात टाल देती हूं लेकिन कब तक. मुझे शादी से डर लगता है. शादी हो गई तो हम मर जाएंगे."

ये कहते हुए आठवीं में पढ़ने वाली मुनचुन के चेहरे पर एक किशोरी की शर्म, शादी की उलझन, परिवार की गरीबी का दर्द चिपक गया. वो 14 साल की हैं लेकिन शादी के डर ने उसे अभी से ही अपनी जद में ले लिया है.

मुनचुन उन 150 महादलित बच्चियों में से एक हैं जो बिहार की राजधानी पटना से सटे दानापुर के प्रेरणा छात्रावास में रहती हैं.

होली नजदीक आते ही इस हॉस्टल की फिजा में डर घुल मिल जाता है. डर इस बात का कि अबकी होली कौन सी बच्ची घर जाकर वापस पढ़ने नहीं लौटेगी.

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पूनम मांझी

प्रेरणा छात्रावास की निदेशक सुधा वर्गीज बताती हैं, "होली हम सबको डराती है क्योंकि हर बार होली में घर गई बच्चियों में 3-4 की शादी हो जाती है. वो बच्चियां वापस नहीं लौटतीं. हम एक-एक बच्ची के साथ आठ नौ साल काम करके उसे सांस्कृतिक शैक्षणिक अनुभव देते है लेकिन एक दिन अचानक शादी हो गई और सब खत्म."

मुसहर समुदाय

15 साल की पूनम मांझी आठवीं में पढ़ती हैं. बिहटा के खोरहर गांव की इस बच्ची ने साल 2013 में खूब सुर्खियां बटोरी थी. दरअसल तब पूनम ने संयुक्त राष्ट्र में बाल विवाह पर अपनी बात रखी थी.

पूनम कहती है, "ये मुसहर समुदाय के लिए अनोखी बात थी. सब बहुत खुश थे. मां- बाप, गांव वाले सब लोग. सारे बड़े लोग कहते थे मेरी बच्ची का भी दाखिला करा दो हास्टल में." लेकिन पूनम की अमरीका की हवाई जहाज की उड़ान की उपलब्धि भी उसके सपनों के पंख कतरने की कोशिश को ना रोक पाई.

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गुलाबी दुपट्टे में शांता अपनी सहेली के साथ

साल 2015 में उसकी शादी तय कर दी गई.

पूनम बताती हैं, "ये होली का ही वक्त था. हम बहुत गरीब हैं. पापा खेत मजदूर हैं. ऐसे में मां ने कहा कि मैं शादी कर लूं तो उनका बोझ कुछ हल्का हो जाएगा. मां की बात सुनकर मैं शादी के लिए तैयार हो गई लेकिन शादी से ऐन पहले सुधा दीदी को मालूम चल गया जिन्होंने आकर शादी रुकवाई. उस वक्त तो शादी रुक गई लेकिन हर बार होली में मां ये दबाव बनाती हैं कि मैं घर पर रुक जाऊं ताकि वो मेरी शादी कर दें."

गांववालों का ताना

पूनम जैसी ही कश्मकश से और भी लड़कियां जूझ रही हैं. 14 साल की शांता जहानाबाद के धराउत गांव की हैं. वो बताती हैं, "मां को किसी तरह समझा भी लें लेकिन गांव वालों को ताना तो हमेशा जारी रहता है कि बेटी को हॉस्टल में रखे हैं, अभी तक ब्याहे नहीं."

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बीते तीन दशक से ज्यादा समय से महादलितों खासकर मुसहर समुदाय के बीच काम कर रही सुधा वर्गीज कहती हैं, "बाल विवाह की समस्या को इस समुदाय में थोड़ा अलग नजरिए से भी देखना होगा. ये वो लोग हैं जो जीवन में सबसे ज्यादा असुरक्षा के साथ रहते हैं. कोई बड़ी बीमारी फैली तो पूरा का पूरा टोला खत्म, फिर गरीबी, परंपरा, लड़की को लेकर इज्जत का अहसास तो है ही. समुदाय की लड़कियां किसी का भी सबसे आसान शिकार है क्योंकि इनकी ताकत बहुत कम है."

दलित आबादी

बता दें बिहार में दलित आबादी 15 फीसदी है. महादलित आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर सबसे अधिक पिछड़े हैं जिसके चलते बाल विवाह की समस्या यहां गहरे से धंसी हुई है. अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक बिहार में 60 फीसदी शादियां बाल विवाह होते हैं.

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यूएनएफपीए के बिहार हेड नदीम नूर बताते है, "बिहार का प्रजनन दर 3.4 है जो देश भर में सबसे ज्यादा है, लेकिन दलित आबादी में ये 3.7 फीसदी है. यानी बाल विवाह बहुत ज्यादा इस आबादी में हो रही है. अब इसकी वजह जागरूकता, शिक्षा, गरीबी भी है. दूसरी बात है कि इस कम्युनिटी में बर्थ रजिस्ट्रेशन होता ही नहीं है, ऐसे में विवाह कम उम्र मे हो रहा है या सही उम्र में, ये कैसे तय किया जाए."

फिल्म शोले का बहुत मशहूर डायलॉग है, अरे ओ सांभा, होली कब है रे? फिल्म का ये डायलॉग हमें खूब गुदगुदाता है. लेकिन इन महादलित बच्चियों के लिए तो होली अक्सर रंगों से सराबोर करने वाली नहीं बल्कि जीवन को बदरंग करने वाली ही साबित होती है.

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