नज़रिया: वामपंथ को मिटाने की कसम क्यों खा रहा है आरएसएस?
- अपूर्वानंद
- लेखक और विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए

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दिल्ली में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों का प्रदर्शन
"हम कम्युनिस्टों को इसकी इजाज़त नहीं देंगे कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय को जेएनयू बना दें".
रामजस कॉलेज में 'प्रतिरोध की संस्कृति' पर होने वाली एक गोष्ठी को जबरन बंद करवाने और वामपंथी छात्र संगठनों के छात्रों पर हमला करने के बाद देश के एकमात्र राष्ट्रवादी संगठन के एक सदस्य ने अपना आख़िरी इरादा बताया.
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प्रदर्शन के दौरान घायल हुए डीयू के प्रोफेसर
हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में महाश्वेता देवी की एक कहानी के मंचन के बाद उसके आयोजन के लिए जिम्मेवार अध्यापिका पर हमला करते हुए कहा गया कि इसे जेएनयू-कम्युनिस्टों का गढ़ नहीं बनने देंगे.
यही धमकी राजस्थान में, पुणे में और मुंबई में भी सुनाई पड़ती है.
वामपंथ या कम्युनिज़्म ऐसा ख़तरा है जिसे जड़ से उखाड़े बिना यह देश बच नहीं सकता- ऐसा बताया जा रहा है.
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वामपंथ के लिए सबसे बुरा वक़्त
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इसे देखकर कहा जा सकता है कि भारत में वामपंथ के लिए यह सबसे बुरा वक़्त है. बुरा इसलिए कि राजनीतिक रूप से इस वक़्त वह सबसे कमज़ोर स्थिति में है.
संसद में उसकी संख्या नगण्य है. केरल और त्रिपुरा में उसका एक हिस्सा ज़रूर सत्ता में है, लेकिन 33 साल तक जिस प्रदेश पर उसका एकछत्र राज था, उस बंगाल में उसका आत्मविश्वास सबसे कम है. वामपंथ वहां वापस खड़ा हो पाएगा या नहीं, कहना कठिन है.
राजनीतिक रूप से बिहार वामपंथ के लिए हमेशा से उत्साह दिलाने वाला राज्य रहा था. अब वहां उसका सिर्फ नाम ही बचा है.
माओवादियों का हौव्वा कितना ही क्यों न खड़ा किया जाए, यह भी सबको पता है कि वो अपने इतिहास के सबसे कमज़ोर क्षण पर खड़े हैं.
कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ़्तर अब न तो नौजवानों को और न शहरों के बुद्धिजीवियों को आकर्षित करते हैं.
लेकिन यही वक़्त है जब वह सबसे कमज़ोर हालत में है, उस पर शासक दल और उसके संगठनों के हमले सबसे तेज़ हो गए हैं.
जो आज उन पर आक्रमण कर रहे हैं, उन्होंने ही भारत-चीन युद्ध के समय कम्युनिस्ट पार्टियों के ऊपर भयानक हमले किए थे, उनके दफ़्तरों को नष्ट कर देने की कोशिश की थी.
उमर ख़ालिद के विरोध के दौरान झड़प
वामपंथ और चुनौतियां
कहा जा सकता है कि उसके बाद यह पहला मौक़ा है कि हर प्रकार के वामपंथी चौतरफा हमला झेल रहे हैं. इसी वजह से कहा जा सकता है कि यह वामपंथ के लिए सबसे अच्छा वक़्त है, क्योंकि कई बार आप अपने विरोधी द्वारा परिभाषित होते हैं.
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन आप पर हमला कर रहे हैं और आपको मिटाने की कसम खा रहे हैं तो ज़रूर आपमें कुछ दम होगा! एक नई निगाह तो कम से कम आपमें अपने लिए आशा की किरण देख लेगी.
अगर विचार के तौर पर आप अभी भी सबसे बड़ी चुनौती हैं, तो संख्या के हिसाब से कम होने के बावजूद भी आप अपना उद्धार कर सकते हैं. शायद पुनर्जीवन का स्रोत वही विचार हो!
वह मूल विचार बराबरी का है, सबकी बराबरी का और सबकी गरिमा का. इस सपने का किसी की ख़ुशहाली किसी और की कीमत पर न होगी.
ऐसे में शायद वामपंथ ऐसे स्रोतों की ओर जा पाए जिनकी ओर उसने पहले अपने अहंकार में देखा नहीं था, मसलन गाँधी की ओर.
वामपंथ और बदलता नज़रिया
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उसने आंबेडकर की बात करनी शुरू कर दी है, लेकिन यह अभी बहुत कुछ बदहवासी में और रणनीतिक है. गाँधी और आंबेडकर से अभी उसकी ईमानदार चर्चा होनी बाक़ी है. नारीवाद से रिश्ता भी जनसंख्या के एक हिस्से से जुड़ने का ज़रिया भर नहीं, अपना नज़रिया बदलने का तरीका सुझाएगा.
जनतंत्र का महत्व भी उसे पहली बार क़ायदे से समझ में आया है. एकजुटताओं का भी. इस बात का अहसास कि सिर्फ और सिर्फ वही विचार रहेगा और बाक़ी को अपदस्थ कर देगा, यह सिर्फ कोरा ख़्याल नहीं एक ख़तरनाक इरादा है.
अपने विरोधियों के साथ बहस करते हुए उन्हें बर्दाश्त ही नहीं बल्कि उनके साथ इज़्ज़त से पेश आना, यह बात उसे नेहरू से सीखनी थी. अब शायद याद आए तो भी बुरा नहीं.
यह कहने का वक़्त है कि वह जिसे सबसे अधिक त्याज्य मानता है, वह है हिंसा. यह कि व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता एक ऐसा मूल्य है जिससे किसी भी बड़े आदर्श के नाम पर समझौता नहीं किया जा सकता.
यह कि उत्पादन-बहुलता का सिद्धांत समाज की ख़ुशहाली की बुनियाद नहीं हो सकता. उसे मेधा पाटकर से काफी कुछ सीखना है.
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क्या वामपंथ अप्रासंगिक हो गया है?
अतीत को संबोधित करने का यह सबसे अच्छा समय है: यह कहने का कि वह स्टालिन, ख्रुश्चेव, माओ, ख्मेर रूज़ का वारिस नहीं और वह कास्त्रो से भी अलग रास्ता चुन सकता है.
अगर वामपंथ अप्रासंगिक हो गया होता तो फिर उसे नेस्तनाबूत कर देने की मुहिम ही क्यों चलती? यह ऐसा ख्याल है जो अभी भी मानव मुक्ति के लिए उपयोगी है.
लेकिन उसे एक नए, जनतांत्रिक, व्यक्ति की गरिमा के आदर की भावना के साथ ख़ुद को पुनः परिभाषित करना होगा. उसे मनुष्य और समाज की इंजीनियरिंग करके उसे उपयोगी बनाने की जगह एक ब्रह्मांडीय और पर्यावरणीय दृष्टि विकसित करनी है.
यह सब मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं. हमेशा ख़ुद को नए ढंग से खोजने की संभावना बनी रहती है.
अपनी कमज़ोरी को ही वह अभी अपनी ताकत बना सकता है और यही हमें उम्मीद भी करनी चाहिए.