इसराइल पर नेहरू ने आइंस्टाइन की भी नहीं सुनी थी
- रजनीश कुमार
- बीबीसी संवाददाता

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एक स्वतंत्र देश बनने के वक़्त में भारत और इसराइल के बीच महज नौ महीने का फ़र्क़ है. 15 अगस्त, 1947 को भारत एक स्वतंत्र देश बना तो 14 मई, 1948 को इसराइल.
अरब देशों की कड़ी आपत्ति के बीच इसराइल का जन्म एक स्वतंत्र देश के रूप में हुआ था. इसराइल को दुनिया भर में अपने अस्तित्व की स्वीकार्यता हासिल करने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा है. 14 मई, 1948 को इसराइल की घोषणा हुई और उसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने उसे मान्यता दे दी.
तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने भी इसराइल को उसी दिन मान्यता दे दी थी. डेविड बेन ग्युरियन इसराइल के पहले प्रधानमंत्री बने. इन्हें ही इसराइल का संस्थापक भी कहा जाता है.
तब भारत इसराइल के गठन के ख़िलाफ़ था. भारत को फ़लस्तीन में इसराइल का बनना रास नहीं आया था और उसने संयुक्त राष्ट्र में इसके ख़िलाफ़ वोट किया था. संयुक्त राष्ट्र ने इसराइल और फ़लस्तीन दो राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव पास किया था और इसे दो तिहाई बहुमत मिला था. दो नवंबर 1917 को बलफोर घोषणापत्र आया था.
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भारत ने पहले विरोध किया फिर मान्यता दी
यह घोषणापत्र ब्रिटेन की तरफ़ से था जिसमें कहा गया था कि फ़लस्तीन में यहूदियों का नया देश बनेगा. इस घोषणापत्र का अमरीका ने भी समर्थन किया था. हालांकि अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डी रुजवेल्ट ने 1945 में आश्वासन दिया था कि अमरीका अरबी लोगों और यहूदियों से परामर्श के बिना किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा.
आख़िरकार भारत ने 17 सितंबर, 1950 को आधिकारिक रूप से इसराइल को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी. इसके बावजूद भारत ने 1992 में इसराइल के साथ राजनयिक संबंध को बहाल किया. नेहरू फ़लस्तीन के बंटवारे के ख़िलाफ़ थे. इसी आधार पर भारत ने 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के गठन के ख़िलाफ़ वोट किया था.
भारत और नेहरू का रुख़ इस मामले में कोई गोपनीय नहीं था. तब नेहरू को दुनिया के जाने-माने वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने चिट्ठी लिख इसराइल के समर्थन में वोट देने की अपील की थी. हालांकि आइंस्टाइन की बात को भी नेहरू ने स्वीकार नहीं किया था.
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आइंस्टाइन ने नेहरू को लिखा था खत
आख़िर आइंस्टाइन इसराइल के गठन को लेकर इतना इच्छुक क्यों थे कि उन्हें नेहरू को चिट्ठी लिखनी पड़ी. मध्य-पूर्व मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं, ''आइंस्टाइन ख़ुद यहूदी थे. उन्होंने यूरोप में यहूदियों के साथ हुए अत्याचार को देखा था. आइंस्टीन यहूदियों के नरसंहारों के गवाह रहे हैं.''
1948 में भारत ने इसराइल के गठन का विरोध किया और 1950 में मान्यता दे दी. अब सवाल उठता है कि आख़िर दो सालों में ऐसा क्या हो गया कि नेहरू इसराइल गठन के विरोध से उसके अस्तित्व की स्वीकार्यता और मान्यता तक पहुंच गए?
कमर आगा कहते हैं, ''भारत यहूदियों के ख़िलाफ़ हुए अत्याचार की पीड़ा और दर्द को बख़ूबी समझता था. नेहरू यहूदियों के ख़िलाफ़ कतई नहीं थे. नेहरू फ़लस्तीन के बंटवारे के ख़िलाफ़ थे. जब इसराइल बन रहा था तब भारत अपने ही बंटवारे के दर्द से उबर नहीं पाया था. नेहरू को यहूदियों की पीड़ा की समझ थी, लेकिन बंटवारे की पीड़ा को तो वो अपनी आंखों से देख रहे थे. लाखों शराणार्थी फंसे हुए थे. ऐसे में नेहरू कैसे फ़लस्तीन के बंटवारे का समर्थन कर सकते थे.''
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पहली नज़र में प्रेम नहीं
भारत और इसराइल आज की तारीख़ में भले क़रीबी दोस्त हो गए, लेकिन इतिहास यही बताता है कि भारत को इसराइल की सोहबत 'पहली नज़र में ही प्रेम' हो जाने वाली तर्ज पर कबूल नहीं हुई है.
1950 में भारत ने इसराइल को मान्यता तो दे दी, लेकिन राजनयिक संबंध कायम होने में 42 साल लग गए और यह काम कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने ही 1992 में किया. इसराइल से आज भी अरब या मुस्लिम देशों में जॉर्डन और मिस्र को छोड़कर राजनयिक संबंध नहीं हैं.
हालांकि ऐसा नहीं था कि आइंस्टाइन यहूदीवाद के प्रचंड समर्थक थे. यूरोप में ही यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हुआ था. आइंस्टाइन को लगता था कि अगर इस तरह का कोई देश बनता है तो यहूदियों से जुड़ी संस्कृति, यातना सह रहे यहूदी शरणार्थी और दुनिया भर में बिखरे यहूदियों के बीच एक भरोसा जगेगा.
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इसराइल क्यों चाहते थे आइंस्टाइन?
आइंस्टाइन चाहते थे कि इसराइल में अरबी और यहूदी दोनों एक साथ रहें. वो किसी यहूदी राष्ट्रीयता के समर्थक नहीं थे. इसराइल के पहले प्रधानमंत्री बेन-ग्यूरियन ने अल्बर्ट आइंस्टीन को इसराइल का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था.
इसराइल को लेकर नेहरू के मन में द्वंद्व था. वो यहूदियों के इतिहास को लेकर पूरी तरह से सजग थे. यूरोप में यहूदियों के साथ जो कुछ भी उसे लेकर वो अनभिज्ञ नहीं थे. यूरोप में यहूदियों पर हुए अत्याचार के ख़िलाफ़ वो लिखते और बोलते भी रहे.
नेहरू फ़लस्तीन के बंटवारे को लेकर सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि फ़लस्तीन में अरबी सदियों से रह रहे हैं और जब एक यहूदी देश बनेगा तो उन्हें बेदखल होना पड़ेगा जो कि अन्यायपूर्ण होगा. नेहरू ने आइंस्टीन की चिट्ठी के जवाब में भी यही कहा था.
आइंस्टीन ने नेहरू को 13 जून 1947 को चार पन्ने की एक चिट्ठी लिखी थी. इस ख़त में आइंस्टीन ने भारत में छुआछूत ख़त्म करने की तारीफ़ की थी . इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि यहूदी भी दुनिया भर में भेदभाव और अत्याचार के शिकार हैं. आइंस्टीन ने नेहरू के आधुनिक विचारों की इस चिट्ठी में तारीफ़ की थी.
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नेहरू ने आइंस्टाइन की भी नहीं सुनी
उन्होंने नेहरू को लिखे खत में कहा था, ''सदियों से यहूदी दरबदर स्थिति में रहे हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है. लाखों यहूदियों को तबाह कर दिया गया है. दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहां वो ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें. एक सामाजिक और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नेता के रूप में मैं आपसे अपील करता हूं कि यहूदियों का आंदोलन भी इसी तरह का है और आपको इसके साथ खड़ा रहना चाहिए.''
नेहरू ने आइंस्टाइन को जवाब में लिखा था, ''मेरे मन में यहूदियों को लेकर व्यापक साहनुभूति है. मेरे मन में अरबियों को लेकर भी सहानुभूति कम नहीं है. मैं जानता हूं कि यहूदियों ने फ़लस्तीन में शानादार काम किया है. लोगों के जीवनस्तर को बेहतर बनाने में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता है. इतना होने के बावजूद अरब में यहूदियों के प्रति भरोसा क्यों नहीं बन पाया?''
आख़िरकार नेहरू ने 17 सितंबर 1950 में इसराइल को मान्यता दी और उन्होंने कहा था कि इसराइल एक सच है. नेहरू ने कहा था कि तब उन्होंने इसलिए परहेज किया था क्योंकि अरब देश भारत के गहरे दोस्त थे और उनके ख़िलाफ़ नहीं जा सकते थे.
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नेहरू की अरब नीति से भारत को कितना फ़ायदा?
न्यूयॉर्क टाइम्स ने 22 दिसंबर 1974 की अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि अरब के प्रति नेहरू के इस समर्पण को उस वक़्त झटका लगा जब 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारत को अरब देशों का साथ नहीं मिला और उन देशों ने एक इस्लामिक देश पाकिस्तान का साथ दिया.
तब के एक पूर्व भारतीय राजनयिक प्रोफ़ेसर अदारकर के एक लेख का हवाला दिया गया है जिसमें उन्होंने पूछा था, ''हमें अरब देशों के साथ रहने से क्या हासिल हुआ? इससे न तो हमारी न्याय को लेकर प्रतिबद्धता में प्रतिष्ठा बढ़ी और न ही कोई राजनीतिक फ़ायदा मिला.''
1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो नेहरू ने इसराइल से मदद मांगी. अरब देशों के प्रति उनका झुकाव किसी से छुपा नहीं था लेकिन उन्होंने इसराइल से मदद मांगने में कोई संकोच नहीं किया. यरूशलम के इसराइली अर्काइव के दस्तावेजों के मुताबिक 1962 में जब भारत-चीन युद्ध चरम पर था तब इसराइली पीएम डेविड बेन ग्यूरियन ने नेहरू से पूरी सहानुभूति दिखाई और उन्होंने भारतीय बलों को हथियार मुहैया कराने की पेशकश की.
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इन दस्तावेजों के मुताबिक भारत उन जलजहाजों से हथियार लाना चाहता था जिन पर इसराइल के झंडे नहीं लगे हों लेकिन इसराइल का कहना था कि बिना इसराइली झंडे के हथियार नहीं भेजे जाएंगे.
सऊदी अरब और बहरीन में भारत के राजदूत रहे तलमिज़ अहमद का मानना है, ''पाकिस्तान और भारत का युद्ध शीत युद्ध के दौरान हुआ था. तब तो अमरीका भी हमारे ख़िलाफ़ था. 1971 में तो अरब के देश भी बंटे हुए थे. उस ज़माने में जहां राजशाही थी वो अमरीका के साथ थे और जो लेफ्ट विंग थे वो रूस के साथ थे. ज़ाहिर है उस वक़्त ईरान अमरीका के साथ था और उसने पाकिस्तान का समर्थन किया था. अमरीका भी पाकिस्तान के साथ था. शीत युद्ध के दौरान इन देशों ने पाकिस्तान को एक पार्टनर के तौर पर देखा था. बुनियादी बात ये थी कि दुनिया दो गुटों में बंटी थी न कि हिन्दू बनाम मुसलमान जैसी कोई बात थी. बुनियादी चीज़ तो उस वक़्त विचारधारा थी.''
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