मालदीव क्यों नहीं जा रही भारतीय फ़ौज?

  • भरत शर्मा
  • बीबीसी संवाददाता
सेना

इमेज स्रोत, Getty Images

साल 1988, नवंबर का महीना. भारतीय वायु सेना के इल्युशिन आईएल-76 विमान में 50वीं इंडिपेंडेंट पैराशूट ब्रिगेड, पैराशूट रेजीमेंट की छठवीं बटालियन और आगरा एयरफ़ोर्स स्टेशन से 17वीं पैराशूट फ़ील्ड रेजीमेंट के जवान सवार हुए.

विमान ने रनवे पर दौड़ना शुरू किया तो ब्रिगेडियर फ़ारुख़ बुल बलसारा और सैनिकों के दिलोदिमाग में ये बात साफ़ थी कि वो जिस मिशन पर जा रहे हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.

दो हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा सफ़र करने के बाद विमान हुलहुले आइलैंड में माले इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरा और कुछ ही घंटो बाद मालदीव के राजनीतिक और सामाजिक हालात बदल गए.

राष्ट्रपति मौमुन अब्दुल गयूम के भारत से मदद मांगने के नौ घंटे के भीतर भारतीय सैनिकों ने मालदीव की सरज़मीं पर क़दम रख दिए थे. जी हां, नौ घंटे.

30 साल में क्या-कुछ बदल गया?

मालदीव

इमेज स्रोत, Getty Images

लेकिन वो साल 1988 था और ये 2018 है. 30 साल में भारत और मालदीव के बीच रिश्ते और दुनिया के हालात कितने बदल चुके हैं, इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मालदीव में बवाल मचा है और भारत चुप है.

माले में राजनीतिक गतिरोध जारी है, राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन अब्दुल ग़यूम 15 दिनों का आपातकाल लगा चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट का आदेश मानने से भी मना कर चुके हैं.

मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने छह फ़रवरी को लिखा था, ''हालात आंतरिक रूप से संभाले जाने चाहिए, ये कहना बग़ावत को बढ़ाने जैसा है, जिससे स्थिति और बिगड़ेगी. मालदीव भारत से सकारात्मक भूमिका की उम्मीद कर रहा है.''

''साल 1988 में वो आए थे, संकट दूर किया और चले गए. वो कब्ज़ा करने वाले नहीं थे, आज़ादी दिलाने वाले थे. यही वजह है कि मालदीव की जनता भारत की ओर देख रही है.'' तीन दिन बीतने के बावजूद भारत की तरफ़ से उन्हें कोई ठोस आश्वासन या कदम नहीं मिला है.

कांग्रेस ने मोदी को ललकारा

नशीद

इमेज स्रोत, Getty Images

नशीद की इस दरख़्वास्त के बाद कांग्रेस ने भी भाजपानीत सरकार पर निशाना साधा. मनीष तिवारी ने लिखा, ''साल 1988 में राजीव गांधी ने मालदीव में सैन्य हस्तक्षेप कर राष्ट्रपति गयूम की सरकार बचाई थी.''

''क्या साल 2018 में प्रधानमंत्री मोदी के पास इस देश में लोकतंत्र को बचाने लायक राजनीतिक-कूटनीतिक समझदारी है? चीन चेतावनी के दांत दिखा रहा है, ऐसे में भाषण से कुछ ज़्यादा करना होगा.''

ख़बरें हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने मालदीव के बारे में प्रधानमंत्री मोदी से चर्चा की है लेकिन अब तक सरकार ने इस बारे में खुलकर कुछ नहीं बोला.

और इस चुप्पी की कई वजह हैं. लेकिन सबसे बड़ा कारण है, चीन! चीन का कहना है कि मालदीव में जारी राजनीतिक संकट इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि भारत उसके आंतरिक हालात में दख़ल दे रहा है.

क्या भारत सेना भेजेगा?

विमान

इमेज स्रोत, Getty Images

लेकिन क्या भारत, चीन की बात दरकिनार कर मालदीव का संकट सुलझाने के लिए चिंता जताने से ज़्यादा कुछ कर सकता है? क्या 30 साल पहले की तरह वहां सैनिक भेजे जा सकते हैं? क्या मोदी, राजीव जितने सख़्त कदम उठा सकते हैं?

शायद नहीं. और वजह कई हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के सह-संपादक और रक्षा-सामरिक मामलों के जानकार सुशांत सिंह ने बीबीसी से बातचीत में ये कारण सामने आए.

उन्होंने कहा, ''साल 1988 और 2018 के बीच बहुत कुछ बदल चुका है. 1988 में इस इलाके में चीन का कोई दबदबा नहीं था. लेकिन आज की तारीख़ में चीन बड़ा फ़ैक्टर है. चीन ने मालदीव को लेकर बयान भी दिया है.''

चीन क्यों धमका रहा है?

लड़ाकू

इमेज स्रोत, Getty Images

''चीन ने फिर कहा है कि ना यूएन, ना किसी और को वहां दख़ल देना चाहिए. और चीन की वजह से भारत वो कोशिश नहीं कर सकता जो उसने साल 1988 में की थी.''

इसके अलावा मालदीव के जो लोग भारत से मदद मांग रहे हैं, उनकी भूमिका भी जुदा है.

सिंह ने कहा, ''दूसरी बात, साल 1988 में वहां के राष्ट्रपति गयूम ने भारत से मदद मांगी थी, वहां के लोगों ने भारतीय सेना को बुलाया था.''

''लेकिन जो लोग आज आग्रह कर रहे हैं, वो विपक्ष में हैं और उनमें से कुछ को देश से बाहर निकाला जा चुका है. वहां की सरकार या राष्ट्रपति, भारत सरकार से मदद नहीं मांग रही.''

मालदीव को लेकर खींचतान क्यों?

मालदीव

इमेज स्रोत, Getty Images

लेकिन, चीन अचानक मालदीव में क्यों दिलचस्पी ले रहा है?

इसके जवाब में सिंह ने कहा, ''जैसे-जैसे चीन की सामरिक शक्ति बढ़ी है, अपना असर बढ़ाने के लिए वो अलग-अलग देशों में ऐसा ही कर रहा है. ख़ास तौर से भारत के पड़ोसी देशों में. अगर पाकिस्तान को छोड़ भी दिया जाए तो नेपाल. बांग्लादेश या श्रीलंका में देख लीजिए.''

ऐसी भी ख़बरें आई हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी के बीच मालदीव को लेकर फ़ोन पर चर्चा हुई है. क्या कोई कदम उठ सकता है?

उन्होंने कहा, ''भारत-अमरीका मिलकर कोई कदम उठा सकते हैं, इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि सैन्य विकल्प व्यावहारिक है या उठाया जा सकता है.''

क्या भाजपानीत सरकार ने मालदीव का मामला संभालने में कोताही बरती है. जानकार ऐसा नहीं मानते क्योंकि अलग-अलग वक़्त पर मालदीव को अलग-अलग तरज़ीह दी गई है.

क्या ख़तरे उठाने होंगे?

राजीव और मोदी

इमेज स्रोत, AFP

लेकिन अगर फ़ैसला होता है और भारत वहां सेना भेजता है तो इसके क्या ख़तरे हो सकते हैं?

सुशांत सिंह ने कहा, ''पहली चुनौती ये कि मालदीव की भी अपनी सेना होगी, छोटी-मोटी हो लेकिन होगी तो. दूसरी बात ये कि मालदीव सरकार नहीं बुला रही है, आप उसे हटाने के लिए जाएंगे.''

उनका कहना है कि सेना भेजने के वक़्त उसके जाने का राजनीतिक लक्ष्य साफ़ होना चाहिए, आप वहां एक तरह से राष्ट्रपति को हटाने के लिए जा रहे हैं, ऐसा करने के बाद क्या सेना वही रहेगी, क्या नया राष्ट्रपति बनाया जाएगा, ये सब बातें साफ़ होनी चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो बुरे फंस जाएंगे.

उन्होंने कहा, ''अगर वहां भारतीय सैनिक मरने शुरू हो गए तो आपको घर में भी आलोचना का सामना करना होगा. ये एक तरह से सामरिक दलदल में फंसने जैसा होगा.''

चीन ने बदली रणनीति

मालदीव

इमेज स्रोत, Getty Images

लेकिन कभी भारत के इतना क़रीब माने जाने वाला मालदीव, चीन के इतना क़रीब क्यों दिखने लगा है.

अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार स्वर्ण सिंह के मुताबिक भारत बीते एक दशक से मालदीव के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने से बच रहा है. इसका सीधा फायदा चीन को मिलता दिख रहा है.

राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब भारत आए थे तब वे मालदीव और श्रीलंका होते हुए आए थे. दोनों देशों में मैरीटाइम सिल्क रूट से जुड़े एमओयू पर हस्ताक्षर किए गए लेकिन जब राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए तो इस मुद्दे पर पूरी तरह से चुप्पी रही.

चीनी राष्ट्रपति साल 2013 के सितंबर और अक्टूबर में मैरीटाइम सिल्क रूट और वन बेल्ट वन रोड (ओआरओबी) की बात की थी.

चीन की रफ़्तार ज़्यादा तेज़

चीन

इमेज स्रोत, Reuters

इसके बाद से भारत के साथ इस मुद्दे पर चुप्पी छाई हुई थी. कहा जाता कि फरवरी 2014 में विशेष प्रतिनिधियों की एक बैठक हुई थी जिसमें इस मुद्दे पर अनौपचारिक रूप से बात हुई थी.

चीन समेत श्रीलंका और मालदीव को पता था कि इस मामले में भारत का रवैया सकारात्मक नहीं है.

इसके बावजूद मालदीव ने साल 2014 के सितंबर महीने में इस तरह की संधियों पर हस्ताक्षर किए तो मालदीव का चीन की ओर झुकाव साफ दिखाई दे रहा था.

भारत सरकार ने इस मामले में थोड़ी कोशिश ज़रूर की लेकिन इसे पुरज़ोर कोशिश नहीं कहा जा सकता. दक्षिण एशियाई देशों में भारत की स्थिति की बात करें तो बढ़ते चीनी प्रभाव के सामने भारत कमजोर होता दिखाई पड़ रहा है.

इन देशों की नज़र में मदद करने के वादे से लेकर असलियत में मदद पहुंचाने में चीन की गति भारत के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है.

(बीबीसी हिंदी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)