'वाम' का पश्चिम बंगाल कैसे बन रहा है 'राम' की राजनीति का केंद्र?

  • अमिताभ भट्टासाली
  • बीबीसी संवाददाता, कोलकाता से
आसनसोल

इमेज स्रोत, PTI

पिछले हफ्ते 'रामनवमी' को लेकर पश्चिम बंगाल में बहुत सारी सांप्रदायिक झड़पें देखने को मिलीं.

पुलिस के मुताबिक़ कम से कम पांच लोगों की जान गई हैं और कई ज़ख्मी हुए हैं. घरों और दुकानों को आग लगा दी गई और तोड़फोड़ की गई है.

आसनसोल, रानीगंज, पुरुलिया या 24 परगना में हिंसा कैसे फैली, इसके पीछे कई तरह की कहानियां चल रही हैं.

इन सभी में जो बात कॉमन है- इनमें धार्मिक मसला नहीं था.

सभी संघर्ष दो सत्ताधारी पार्टियों, जिनमें से एक राज्य में और दूसरी केंद्र में सरकार चल रही है, द्वारा राजनीतिक ताकत हासिल करने या बरकरार रखने की कोशिश के कारण हुए. ये पार्टियां तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी हैं.

ताक़त के खेल में रामनवमी एक बहाना

जब मैं पिछले हफ्ते आसनसोल के दंगा प्रभावित इलाके में घूम रहा था, तब चांदमड़ी के एक निवासी ने मुझे बताया, "मैं यहां पचास से ज्यादा सालों से रह रहा हूं. दोनों समुदायों के बीच छोटे-मोटे झगड़े होते रहे हैं मगर बड़े स्तर पर ऐसा दंगा कभी नहीं दिखा था."

पूरा इलाका लगभग वीरान था; कई दुकानें जला दी गई थीं या लूट ली गई थीं. फुंकी हुई कारों और बाइकों के ढांचे सड़क के किनारे पड़े हुए थे.

लाइट के खंबो पर लगे सीसीटीवी कैमरे टूटकर लटके हुए थे.

एक अन्य व्यक्ति ने कहा, "मुसलमानों ने हमारे अखाड़े पर पथराव शुरू कर दिया. इसके बाद आगजनी और लूटपाट शुरू हो गई."

जब मैं वहां पहुंचा तो ज़्यादातर लोग, जिनमे ज्यादा हिंदू हैं, इलाके को छोड़ चुके थे. जो रुके हुए थे, मैंने उनसे पूछा, "इस बार क्या हुआ?"

वे एक स्वर में बोले, "ये सब राजनीति का खेल है."

मैं इस इलाके से आगे बढ़ा और मुस्लिम बहुल कुरैशी मोहल्ले में दाखिल हुआ.

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लोग हाल ही में स्थानीय इमाम के 16 साल के लड़के मोहम्मद सिवग़ातुल्ला के जनाज़े में शामिल हुए थे.

सुबह उसकी विकृत और अधजली लाश मिली थी. जिस समय दंगा चरम पर था, उस समय उसे कुछ लोगों ने दबोच लिया था.

कुरैशी मोहल्ले के लोगों ने कहा, "हमने कभी हिंदुओं से बदसलूकी नहीं की. दुर्गा पूजा के दौरान हम पानी की छबीलें लगाते हैं. आप खुद देख सकते हैं, कई हिंदू परिवार यहां रहते हैं. यहां हनुमान मंदिर भी है. क्या हमने कुछ जलाया? फिर उन्होंने जुलूस में भड़काऊ नारे क्यों लगाए?"

आरोप-प्रत्यारोप बहुत थे.

यब सब 'भाईचारे के शहर' के नाम से पहचाने जाने वाले औद्योगिक क़स्बे आसनसोल में दंगा होने के अगले दिन की बात है.

यह शहर और साथ का ही कोयला बेल्ट रानीगंज एक दौर में लेफ्ट के गढ़ थे और ट्रेड यूनियन आंदोलनों के केंद्र भी.

यह शहर कैसे सांप्रदायिक विवाद वाले शहर में तब्दील हो गया?

मैंने ये सवाल अंतरराष्ट्रीय एनजीओ यूनाइटेड रिलिजन्स इनिशिएटिव के भारत संयोजक बिस्वदेब चक्रवर्ती से किया.

उन्होंने कहा, "हमें भी यह बात परेशान कर रही है. हम भी समझने की कोशिश कर रहे हैं कि हमारे पड़ोस में क्या हुआ. जिस तरह से हम लोग आपस में मिलते हैं, जैसे हम पले-पढ़े, उससे यहां कभी इस तरह का सांप्रदायिक तनाव पैदा नहीं हुआ. लेकिन हमने महसूस किया है कि पिछले कुछ सालों से कुछ पक रहा है. जमीनी स्तर पर लोगों के साथ काम करते हुए इसका संकेत मिला था. लेकिन ऐसा नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी नतीजा देखने को मिल जाएगा. इसके लिए सिर्फ राजनेता जिम्मेदार हैं. इसके साथ धर्म का कोई संबंध नहीं."

हालांकि, इंडस्ट्रियल बेल्ट में तृणमूल कांग्रेस के एक अहम नेता और आसनसोल के मेयर जितेंद्र तिवारी दावा करते हैं, "इस सब के बावजूद समुदायों के बीच सौहार्द है. किसी हिंदू बहुल इलाके में जाइए आप पाएंगे कि वे वहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा कर रहे हैं. ऐसा ही मुस्लिम बहुल इलाकों में देखने को मिल रहा है. तो इसकी जांच होनी चाहिए कि किन बाहरी तत्वों ने रामनवमी के मौके पर दंगा भड़काया."

पश्चिम बर्धमान ज़िले के प्रवक्ता प्रशांत चक्रवर्ती पूछते हैं, "रामनवमी को क्यों दोष दिया जा रहा है? क्या आपने कभी सुना था कि आसनसोल या पश्चिम बंगाल में रामनवमी के दौरान कभी दंगा हुआ? क्या इससे पहले किसी आदमी की मौत हुई है? हम अपने पारंपरिक हथियारों के साथ हर साल जुलूस निकालते हैं. इसका मतलब किसी पर हमला करना नहीं होता, ये तो पवित्र हथियार होते हैं, हम इनकी पूजा करते हैं. फिर क्यों प्रशासन ने हथियारों से साथ यात्रा निकालने पर प्रतिबंध लगाकर इतना बड़ा मुद्दा बना दिया?"

लेकिन इस साल राम नवमी मनाने के दौरान दंगा हुआ और मौतें भी हुईं.

न सिर्फ आसनसोल-रानीगंज इलाके में, बल्कि पश्चिम बंगाल के अन्य हिस्सों में भी.

जानी-मानी बुद्धिजीवी मिराथुन नाहर पिछले हफ्ते इन सांप्रदायिक झड़पों का विश्लेषण करती रहीं.

वह कहती हैं, "एक तरफ तो वो राजनीतिक पार्टी है जो लाज-हया छोड़कर सीधे सांप्रदायिक हिंसा कर रही है. यह पार्टी हिंदू समुदाय को बचाने के इरादे से एक खा समुदाय के लोगों को मारने में ऐसे जुट गई है, मानो यह उसका राष्ट्रीय कर्म हो. दूरी तरफ ऐसी राजनीतिक पार्टी है, जो यह साबित करना चाहती है कि वह इस राज्य से मुसलमानों की हितैषी है और वह इसे लेकर कोई समझौता नहीं करेगी. दोनों बेवकूफ हैं."

प्रोफ़ेसर नाहर ने उन दोनों पार्टियों के नाम नहीं लिए. मगर पश्चिम बंगाल अल्पसंख्यक युवा संघ के मोहम्मद कमरुज्ज़मान इन पार्टियों को सीधा दोष देते हैं.

"यह विशुद्ध रूप से ताकत का खेल है. रामनवमी पर बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह से रैलियां निकालीं, वह प्रदेश के लिए अशुभ संकेत है. पश्चिम बंगाल के हम अल्पसंख्यकों ने ममता बनर्जी के प्रशासन पर पूरा भरोसा जताया था. फिर हथियारों वाले रामनवमी के जुलूसों को मुस्लिम मोहल्लों से क्यों गुज़रने दिया गया? हम इसी का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं. "

प्रोफेसर नाहर या कमरुज्ज़मान ही नहीं, कई और भी तृणमूल कांग्रेस को इस बात के लिए दोष दे रहे हैं कि उसने कैसे बीजेपी की राजनीति का मुकाबला करने के लिए खुद भी रामनवमी के जुलूस निकाले.

राजनीतिक विश्लेषख बिस्वजीत भट्टाचार्य कहते हैं, "बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति का मुकाबला करते करते अगर तृणमूल भी नरम हिंदुत्व की राह पकड़ लेती है तो इसका घातक प्रभाव होगा. बीजेपी इस तरह की राजनीति में पूरे भारत की उस्ताद है, यह बात पहले ही साबित हो चुकी है. अगर टीएमसी को बीजेपी से राजनीतिक मुकाबला ही करना था तो वह राम की राजनीति में क्यों पड़ी? इसमें तो बीजेपी माहिर है. अगर टीएमसी अपनी योजना नही बदली तो वह खुद को बर्बाद कर लेगी."

पश्चिम बर्धमान में सीपीएम के ज़िला सचिव गौरांग चैटर्जी कहते हैं, "हम इसे सांप्रदायिक होड़ कहते हैं. बीजेपी और टीएमसी धर्म के मामले में एक दूसरे से मुकाबला कर रही हैं."

पश्चिम बंगाल ने धर्म को लेकर ऐसी राजनीति हाल के दिनों कभी नहीं देखी थी, भले ही विभाजन के समय यहां सांप्रदायिक हिंसा में ख़ूब ख़ून बना था.

लेकिन वह इतिहास की बात है.

रामनवमी और राम को लेकर राजनीति हाल के समय में पश्चिम बंगाल में कभी आगे नहीं रही.

कोलकाता के चारूचंद्र कॉलेज में राजनीतिक शास्त्र के प्रोफेसर बिमल शंकर नंदा कहते हैं, "लेकिन राम अब भारत की राजनीति के अभिन्न अंग हो गए हैं. वह महाकाव्य के पात्र रहे होंगे, मगर अब नहीं."

उन्होंने कहा, "यहां तक कि मोहनदास कर्मचंद गांधी भी राम को राजनीति संवाद में ले आए थे मगर एक अलग रूप में. और बीजेपी राम को लेकर इसी भावना को भुनाकर पश्चिम बंगाल में क़दम जमाना चाहती है. उनके लिए ममता बनर्जी के शासन का विरोध करना एक राजनीतिक मुद्दा है, मगर बीजेपी को लगता है कि वोट शेयर के मामले में राम उन्हें बड़ा लाभ देंगे."

तो पश्चिम बंगाल की राजनीति में राम का आगमन हो चुका है- कुछ लोग इससे खुश हो सकते हैं तो कुछ इसे नापसंद कर सकते हैं.

लेकिन जब राम आ चुके हैं तो भला रहीम पीछे कैसे रहेंगे? धर्मनिरपेक्ष तंत्र में आदर्श स्थिति तो यही होनी चाहिए.

तो 'राम' की राजनीति के साथ यहां राशिदी हैं- मोहम्मद इमददुल्ला राशिदी.

राशिदी आसनसोल की नूरानी मस्जिद के इमाम हैं. उनके पिता उन मोहम्मद सिवगतुल्ला के पिता हैं, जिनका बेटा दंगे में मारा गया था.

अपने बेटे के क्षत-विक्षत शव को लिए इमाम ने लोगों से शांति की अपील की और अपने बेटे की मौत का बदला लेने के बारे में सोचा तक नहीं.

उन्होंने अकेले ही एक और दंगा रोक लिया. वह सांप्रदायिक समरसता के पर्यायवाची बन गए हैं.

उन्हें हिंदू और मुस्लिम दोनों सलाम कर रहे हैं. और दंगाइयों को भी संदेश मिल चुका है.

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