बीबीसी ग्राउंड रिपोर्ट: ‘हम मरें भी और अपने मरने का सबूत भी लायें?’
- प्रियंका दुबे
- बीबीसी संवाददाता, भोजपुर (बिहार) के बथानी टोला से

पीड़ित साधु पलटन राम
साधु पलटन राम को अपनी उम्र का कोई अंदाज़ा नहीं है. पर अब बिना सहारे उनके पैर ज़मीन पर टिक नहीं पाते.
अपने दुबले पतले काले शरीर पर सफ़ेद बालों वाली अपनी लंबी खुली जटायें बिखराकर गाँव के मुहाने पर अपने घर के सामने बैठे पलटन राम, हमेशा से साधु नहीं थे.
उनके साधु बनने की कहानी उनके गाँव की भी कहानी है.
पलटन राम बिहार के भोजपुर ज़िले में बथानी टोला गाँव के निवासी हैं. 21 जुलाई 1996 को 'रणवीर सेना' ने उनके गाँव पर हमला किया था.
इस हमले में रणवीर सेना के हमलावरों ने 21 दलितों और मुसलमानों की हत्या कर दी थी, जिनमें 11 महिलाएं, 6 बच्चे थे. यहाँ तक कि तीन दूध पीते बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया.
मारवारी चौधरी मल्लाह के घर का वह आंगन जहां 14 लोगों की हत्या हुई थी
'बथानी टोला जनसंहार' के नाम से जाना जाने वाला यह हत्याकांड, देश भर में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के इतिहास में एक स्याह पन्ने की तरह दर्ज है.
पलटन राम की 13 वर्षीय बेटी फूला कुमारी भी मार डाली गई थी.
गाँव में एक शहीद स्मारक बनवाया गया है जिसमें सभी मृतकों के चेहरे उभारने की कोशिश की गई है.
पलटन राम का एक कमरे का घर ठीक इसी स्मारक के सामने पड़ता है.
बथानी टोला गांव की ओर जाती सड़क
बोलने में भी तकलीफ़
एक मटमैली धोती में लिपटे पलटन राम घर के बरामदे में अपनी जटाएं खोले बैठे हैं. पिछले कुछ सालों से उन्हें कम सुनाई देता है.
मई की भीषण गर्मी और बढ़ती कमज़ोरी की वजह से उन्हें बोलने में भी तकलीफ़ होती है.
फूला कुमारी के बारे में पूछते ही पलटन राम अपना हाथ उठाकर सामने बने शहीद स्मारक में मौजूद फूला के चेहरे की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं, "वो रही हमारी फूला. मैं यहाँ से रोज़ देखता हूँ अपनी लड़की को."
इतना कहने के बाद आँखों में आंसू लिए वो देर तक शहीद स्मारक को देखते रहते हैं. बथानी टोला नरसंहार के चश्मदीदों में से एक फूला की हत्या के तीन साल बाद पलटन राम साधु बन गए.
रणवीर सेना का नाम
14 साल की लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद भोजपुर की निचली अदालात ने 68 आरोपियों में से 23 को दोषी क़रार दिया.
बथानी टोला नरसंहार के चश्मदीद (बाएं से) हीरालाल, यमुना राम, कपिल और मारवारी चौधरी मल्लाह
मई 2010 में भोजपुर के ज़िला मुख्यालय आरा में सुनाए गए इस फ़ैसले में 20 अपराधियों को उम्र क़ैद के साथ-साथ तीन को फांसी की सज़ा सुनाई गई थी.
लेकिन अप्रैल 2012 के नए निर्णय में पटना उच्च न्यायलय ने 'साक्ष्यों की कमी' के चलते सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया. इन बरी हुए लोगों में रणवीर सेना प्रमुख ब्रम्हेश्वर 'मुखिया' का नाम भी शामिल है.
'ऊंची जातियों' के ज़मींदारों की हथियारबंद सेना बनाने वाले ब्रह्मेश्वर मुखिया को 2012 में गोली मार दी गई थी.
सभी अभियुक्तों की रिहाई के बाद बथानी टोला के निवासी उच्चतम न्यायालय में इंसाफ़ की फ़रियाद लेकर तो गए हैं पर उन्हें इंसाफ़ मिलने की उम्मीद लगभग न के बराबर है.
बथानी टोला नरसंहार की कहानी दलितों और मुसलमानों के लिए न्याय के मुश्किल रास्तों का जीता-जागता आख्यान है.
'दलितों और मुसलमानों को कितना मिल पता है न्याय?'
दलितों और मुसलमानों से जुड़ी बीबीसी की स्पेशल सिरीज़ के लिए जब हम इस सवाल का जवाब तलाशने बथानी टोला के दलित नरसंहार पीड़ितों से मिले तो निराशा में डूबी एक उदास तस्वीर उभर कर सामने आई.
अरवल ज़िले में सोन नदी के किनारे बसा लक्ष्मणपुर बाथे गांव. दलित टोले से सोन नदी को जाता यह वही रास्ता है जहां से 1 दिसंबर 1997 की रात 'रणवीर सेना' ने हमला बोला
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के इस साल के आंकड़े बताते हैं कि 1996 में जातीय हिंसा का शिकार हुए बथानी टोला के दलित हिंसा के इस दुष्चक्र में अकेले नहीं हैं.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में (2007-2017) भारत में दलितों के ऊपर होने वाली हिंसा में 66 प्रतिशत का इजाफा हुआ है.
इन्हीं आंकड़ों के मुताबिक हर 15 मिनट में भारत में किसी एक दलित के ख़िलाफ़ एक मुक़दमा दर्ज किया जाता है.
बीते नवंबर में जारी किए गए एनसीआरबी के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2015 में दर्ज 38,670 मामलों की तुलना में 2016 में दलितों के ख़िलाफ़ 40801 अपराध के मामले दर्ज किए गए.
अप्रैल 2018 में गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार दलितों के ख़िलाफ़ जारी जातीय हिंसा के मामलों में दोषियों को सज़ा मिलने की दर मात्र 16.3 प्रतिशत है.
'रणवीर बाबा की जय' के नारे
'बाथे नरसंहार' में 57 दलितों की हत्या हुई. अक्टूबर 2013 में पटना उच्च न्यायलय ने इस मामले में आरोपी सभी 23 लोगों को रिहा कर दिया. तस्वीर में पीड़ित महेश कुमार खड़े हैं जिनके परिवार के 4 सदस्य इस हत्याकांड में मारे गए
बथानी टोला के लोगों की कहानी इन आकंड़ों का हर्फ़-ब-हर्फ़ बयान लगती है. पलटन राम से बातचीत के दौरान गाँव के बाकी लोग मेरे आसपास इकठ्ठा हो जाते हैं. फिर तकरीबन 40 मीटर दूर स्थित मारवारी चौधरी मल्लाह के घर ले जाया जाता है.
आज ईंट के पक्के कमरों के बीच मौजूद इस घर के आंगन में बथानी नरसंहार के दौरान 14 क़त्ल हुए थे. मारे गए लोगों में सिर्फ़ महिलाएं और बच्चे शामिल थे.
घर के मुख्य दरवाज़े में आज तक फंसी बन्दूक की एक गोली दिखाते हुए मारवारी बताते हैं, "उस समय इस घर में सिर्फ़ मिट्टी के बने कच्चे कमरे थे.
जुलाई में दोपहर का वक़्त था. गाँव के इस टोले में सिर्फ़ भूमिहीन दलित रहते हैं. उस दिन भी ज़्यादातर आदमी लोग मज़दूरी के लिए ही गए हुए थे. तभी दोपहर में 'रणवीर बाबा की जय' के नारे लगाते हुए रणवीर सेना के लोग टोले में घुस आए."
दलितों की मजदूरी बढ़ाने की माँग
नरसंहार में हुई गोलीबारी के दौरान अपने दरवाज़े में लगी गोली दिखाते पीड़ित
वो आगे कहते हैं, "दिवाली के पटाखों की तरह बन्दूक से गोलियां दाग रहे थे. 60 के आसपास आदमी थे. सबके हाथों में बन्दूकें, राइफ़ल, तलवार और गड़ासे थे. आधे घंटे के अन्दर उन्होंने गाँव में 21 लाशें गिरा दीं. मेरे घर के भी तीन मारे गए. एक थी समुद्री देवी, दूसरा लाखिया और तीसरा बुधना बुधना बुलाते थे- 11 साल का नाती था मेरा. सबको काट दिया".
घटना के चश्मदीद गवाह और गाँव के ही दूसरे बुज़ुर्ग हीरालाल कहते हैं कि उनके गाँव में नरसंहार सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि उनके गाँव के दलित अपनी मज़दूरी 20 रुपये से 21 रुपये प्रतिदिन करवाने की मांग कर रहे थे.
वो कहते हैं, "शुरू में तो हमारे यहाँ तकरीबन 150 दलित बंधुआ मज़दूर थे. फिर 79 में यहाँ ज़िले में एक कलेक्टर आए- मनोज कुमार श्रीवास्तव. उन्होंने लेबर कोर्ट में सरकारी लड़ाई लड़कर हमारी बंधुआ मजदूरी पर रोक लगवाई और सारे बंधुआ दलितों को आज़ाद करवाया गया. इससे हमारे गाँव के सवर्ण सामंतों को बड़ा बुरा लगा."
मजदूरी का सबसे कम रेट
हीरालाल ने बताया, "इसके बाद हमें बहुत कम मज़दूरी मिलने लगी तो गाँव के दलितों ने मिलकर मजदूरी बढ़ाने की मांग की. सरकारी रेट 21 रुपया प्रतिदिन था और हमें बहुत लड़ने पर भी 20 ही दिया जाता था. बस मजदूरी मांगने पर बाबू साहब कहते थे कि नक्सल मत बनो. फिर बिहार में रणवीर सेना का गठन हुआ उन्होंने ठान लिया कि बथानी को ख़त्म करना है. सो कर दिया."
बथानी टोला गाँव में शहीद स्मारक को देखते पलटन राम और यमुना राम
इतने में अब तक चुपचाप सारी बातचीत सुन रहे गाँव के और अन्य बुज़ुर्ग यमुना राम बोले, "मेरे लड़की राधिका देवी को भी सीने पर गोली लगी थी. तब उसे बच्चा होने वाला था. पांच महीने हो गए थे. वो गोली खाने के बाद भी बच गयी और फिर चश्मदीद गवाह बनी. हम दोनों अदालत जाते थे. कितने चक्कर लागाए. कितनी गवाहियां दीं. सबके सामने उसने अदालत में पहचाना कि उस पर किस-किस ने गोली चलाई थी. जज साहब को सब कुछ बताया. फिर भी वो सब छूट गए. आज पूछती हैं इंसाफ़ क्या है? इंसाफ़ कुछ नहीं है सर!"
इतना कहते-कहते यमुना के चेहरे पर एक पथरीला खालीपन आ जाता है. जैसे पिछले 22 सालों में उनके आँसू सूख गए हैं.
डर के साये में ज़िंदगी
मारवारी के आंगन में हमारे साथ बैठे 50 वर्षीय कपिल बताते हैं की गाँव में रहने वाले दलितों के जीवन में अब तक कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है.
वो कहते हैं, "शांति सिर्फ़ तब तक है जब तक वो हम पर ज़ुल्म करते रहे और हम चुप रहे. आज भी यहाँ दलितों को सिर्फ़ 100 रुपया प्रतिदिन की मज़दूरी दी जाती है जो कि पूरे देश में सबसे कम रेट में से है. दलितों को चुपचाप काम करना पड़ता है क्योंकि हम भूमिहीन हैं. हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. जिन्होंने यहाँ नरसंहार किया, उन्हीं के खेतों में यहाँ के दलितों को काम करना पड़ता है."
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार में मारे गए 57 दलितों की याद में गांव के दलित टोले में बना 'शहीद स्मारक'
कपिल बताते हैं, "वो लोग हमारे सामने खुले घुमते हैं. कुछ भी बोलें तो ज़मींदार लोग कहते हैं- पहले भी काटा था हमने और हमें कुछ नहीं हुआ, भूल गए? मर्द तो मर्द, उनके घरों की महिलाएं भी फ़ब्ती कस देती हैं- कटाईल रहल जा बाकिर आदत नईखे छुटत." (काटे गए थे न, लेकिन आदत नहीं छूटती).
बथानी टोला के निवासी आज भी डर के साए में ज़िंदगी बसर कर रहे हैं.
दलितों के ख़िलाफ़ अत्यचार
हीरालाल जोड़ते हैं, "आप तो देख ही रही होंगी, जिस तरह का देश में माहौल है, सब जानते हैं कि दलितों और मुसलामानों पर दमन की घटनाएं बढ़ रही हैं. क्या पता कल हिन्दू धर्म के नाम पर कोई और सेना बनाकर लोग यहाँ आ जाएं और फिर से ख़ून ख़राबा मचा दें. वैसे भी मामले में आरोपियों के बरी होने से यहाँ ऊंची जातियों का मनोबल बढ़ा हुआ है".
उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक काम कर चुके रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता एसआर दारापुरी का कहना है कि वर्तमान सरकार में दलितों के खिलाफ अत्यचार बढ़े हैं.
वे बताते हैं, "मैंने एनसीआरबी के ताज़ा आंकड़ों का अध्ययन किया तो पाया कि भाजपा शासित प्रदेशों में दलितों के ख़िलाफ़ अपराध दूसरे प्रदेशों की तुलना में कहीं अधिक है. इस सरकार का दलित विरोधी रुख़ एकदम साफ़ है. यहाँ तक कि पुलिस प्रशासन और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल दलितों और पिछड़ों की मदद की बजाय उन्हें विकास की यात्रा में पीछे धकेलने के लिए किया जा रहा है".
एसआर दारापुरी की टिप्पणी आरा में रहने वाले मोहम्मद नईमुद्दीन से हुई मेरी बातचीत का अक्स जान पड़ती है.
बथानी टोला नरसंहार पीड़ित मोहमम्द नईमुद्दीन
'22 साल से सो नहीं पाता'
बथानी नरसंहार में नईमुद्दीन के परिवार के 6 लोग का क़त्ल हुआ था. घटना के बाद डर के मारे नईमुद्दीन ने अपने बचे हुए परिवार के साथ गाँव छोड़ कर आरा में रहने का फैसला किया.
उनके परिवार के मृतकों में उनकी बड़ी बहन, बड़ी बहू, एक दस साल के बेटे के साथ साथ तीन महीने की नवजात पोती भी शामिल है.
दलितों और मुसलामानों के लिए न्याय के क्या मायने हैं. यह सवाल सुनकार नईमुद्दीन की आँखें और गला दोनों भर जाता है.
वो सिसकते हुए रोने लगते हैं मानो 22 साल पुराना ज़ख्म उनके दिल में किसी 22 दिन पुराने नासूर की तरह ताज़ा और ज़िंदा है.
एक गिलास पानी पीने के बाद ख़ुद को संभालते हुए नईमुद्दीन कहते हैं, "मेरा दिल खौलता है. अपने 6 परिवारों को अपने हाथों से मिटटी दिया हूं. 22 साल से सो नहीं पाता हूं. 5 परिवार की लाशें एक ही ट्रैक्टर में रख कर ले गए थे. 10 साल के मेरे बेटे की गर्दन पीछे से काट दी थी. वो 20 दिन पटना के अस्पताल में भर्ती रहा पर जिया नहीं. बेचारा कहां से जीता, गर्दन जो काट दी थी".
नईमुद्दीन के आंसू उनके शब्दों के साथ साथ बहते जा रहे थे.
आरा में बने अपने नए घर के सामने बैठे पीड़ित मोहमम्द नईमुद्दीन
'जज साहब केस देखते नहीं'
वे पूछते हैं, "इंसाफ़ क्या मिलेगा हमको? सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद थी पर जब भी पता करते हैं वकील साहब यही बताते हैं कि तृतीय जज की कोर्ट में मामला अटका पड़ा है. अब हम क्या करें?"
नईमुद्दीन बताते हैं, "जज साहब बैठते ही नहीं हैं और जब बैठते हैं तो हमारा केस देखते ही नहीं हैं."
पास ही ज़मीन में आखें गड़ाए नईमुद्दीन के बड़े बेटे इमामामुद्दीन बैठे थे.
उनकी पत्नी नगमा ख़ातून भी मृतकों में शामिल थीं.
पूछने पर वह बिना सर उठाये सिर्फ़ इतना कहते हैं, 'नई-नई शादी हुई थी हमारी तब'.
मोहमम्द नईमुद्दीन के घर की गली
नईमुद्दीन आगे बताते हैं, "घटना से पहले तक हम गाँव में चूड़ी बेचते थे. हम घटना के चश्मदीद गवाह हैं. उस दिन सारी औरतें जान बचाने के लिए मारवारी मल्लाह के घर भागीं थीं. उनमें मेरे घर की महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. उन लोगों ने सबको उस आंगन में घेर कर मार दिया. मुझे जान की धमकियां मिलती रहीं पर फिर भी मैं रोज़ अदालत जाता रहा. जज साहब को सब बताया.
आरा के जज मुझे रोते देखकर चुप करवाते और कहते कि हम इंसाफ़ करेंगे. 14 साल बाद उन्होंने 20 को उम्र क़ैद और 3 को मौत की सजा दी. फिर ऐसा कैसे हुआ कि बड़ी अदालात ने सिर्फ़ 6 महीने की सुनवाई में 21 लोगों के क़त्ल के मामले में सबको सीधे बरी कर दिया?
वहाँ जज साहब बोले कि सबूत नहीं है. अरे, सबूत लाना तो पुलिस का काम है न. या हम मरें भी और ख़ुद अपने मरने का सबूत भी लाएं?"
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