क्या आंध्र प्रदेश-तेलंगाना में दिखेगा नरेंद्र मोदी-अमित शाह का जादू?

  • बीएसएन मल्लेशवर राव
  • बीबीसी तेलुगू संवाददाता
मोदी शाह

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साल 2019 में तेलंगाना में सत्ता हमारी ही है. इसमें कोई शक नहीं होना है- बीजेपी के महासचिव राम माधव इन्हीं शब्दों के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच उत्साह भरने की कोशिश कर रहे थे.

"आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सरकार बनाना हमारा लक्ष्य है." पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ये बात बार-बार दोहराते रहे हैं.

तेलंगाना में चुनावी रणनीति तय करने के लिए वे शुक्रवार को हैदराबाद में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिलने वाले हैं.

लेकिन सियासी हलकों में ये सवाल उठने लगा है कि दक्षिण के इन दो राज्यों में बीजेपी के सत्ता में आने की संभावना कितनी है.

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बीजेपी के तेलंगाना अध्यक्ष के. लक्ष्मण का कहना है कि राज्य की 117 विधानसभा सीटों में 60 सीटें जीतकर सरकार बनाना उनका लक्ष्य है. तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों में कम से कम 10 में जीत के लिए पार्टी हर मुमकिन कोशिश कर रही है.

के. लक्ष्मण पिछले दो हफ़्ते से तेलंगाना में प्रजा चैतन्य यात्रा निकाल रहे हैं.

आंध्र प्रदेश में 225 विधानसभा और 25 लोकसभा की सीटें हैं. आंध्र प्रदेश में पार्टी ने हाल ही में कन्ना लक्ष्मी नारायण को राज्य में पार्टी संगठन की कमान सौंपी है. वे भी ज़िलेवार दौरे कर रहे हैं.

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पुराना इतिहास दोहरा पाएगी बीजेपी?

साल 2014 में आंध्र प्रदेश का बंटवारा हुआ, तब संयुक्त राज्य में विधानसभा की 294 सीटें और लोकसभा की 42 सीटें थीं. अविभाजित आंध्र प्रदेश में बीजेपी ने अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन 1999 में किया था.

एक वोट से बहुमत हारने और करगिल की लड़ाई के बाद हुए आम चुनाव में वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने इस राज्य में लोकसभा की सात सीटें जीती थीं. साल 2014 के मोदी लहर में बीजेपी ने आंध्र प्रदेश में पांच सीटें और तेलंगाना 8 सीटों पर चुनाव लड़ा. हालांकि उसके खाते में आंध्र में दो और तेलंगाना में एक ही सीट आ पाई.

विधानसभा में आंध्र में बीजेपी ने 15 सीटों पर चुनाव लड़कर चार सीटें जीतीं, तेलंगाना में 47 विधानसभा सीटों पर लड़कर पांच सीट में जीत हासिल हुई. साल 1999 और 2014 में, दोनों ही बार बीजेपी का चंद्र बाबू नायडू की तेलुगूदेसम पार्टी से गठबंधन था.

1998 में बीजेपी ने तेलुगूदेसम के लक्ष्मी पार्वती (एनटी रामाराव की पत्नी) धड़े के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. उस बार भी बीजेपी ने राज्य की चार सीटों पर जीत हासिल की थी.

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आंध्र ज्योति अख़बार के सीनियर जर्नलिस्ट ए कृष्णाराव कहते हैं, "बीजेपी ने आंध्र प्रदेश में बिना किसी सहयोगी दल के कभी भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है."

साल 2018 में चंद्र बाबू नायडू एनडीए से बाहर चले गए. बीजेपी ने ये स्पष्ट कर दिया है कि वो आंध्र और तेलंगाना में अकेले दम पर चुनाव लड़ेगी.

असम की तरह तेलंगाना जीत पाएगी बीजेपी?

जुलाई के पहले हफ़्ते में वारंगल में एक रैली में राम माधव ने कहा, "पिछले चार साल में बीजेपी को 17 राज्यों में जीत मिली है. केवल छह राज्यों में हमें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है. हम तेलंगाना में टीआरएस (तेलंगाना राष्ट्र समिति) को हराएंगे. इसमें कोई शक नहीं है. लोग ऐसा सोच सकते हैं कि पांच विधायकों के साथ बीजेपी क्या कर सकती है."

"असम में हमारे पास केवल दो विधायक हुआ करते थे लेकिन आज हम वहां सरकार में हैं. असम की जनसंख्या 3.5 करोड़ है और तेलंगाना की आबादी 4.5 करोड़ है. यहां हमारे पास पांच विधायक हैं और साल 2019 में तेलंगाना में सरकार बनाने का चांस केवल बीजेपी के पास है और हम ज़रूर कामयाब होंगे."

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क्या असम की तरह बीजेपी तेलंगाना में सत्ता में आने में कामयाब हो पाएगी?

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राजनीतिक पंडितों का कहना है कि असम में बीजेपी की जीत की तीन बड़ी वजहें थीं. वहां उनकी पार्टी का संगठन ज़मीनी स्तर पर मौजूद था और असम गण परिषद के साथ उन्होंने चुनावी गठबंधन कर रखा था. तीसरी बड़ी वजह उनके पास एक अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेटवर्क भी राज्य में कई सालों से सक्रिय था. कांग्रेस से बीजेपी में आए नेताओं के सिर भी इस जीत का सेहरा बांधा जाता है.

राजनीतिक विश्लेषक तेलकपल्ली रवि कहते हैं, "तेलंगाना में हैदराबाद के आस-पास और निज़ामाबाद जैसे कई इलाकों में बीजेपी की थोड़ी बहुत मौजूदगी है. मगर आंध्र और तेलंगाना दोनों ही राज्यों में पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद के लायक कोई चेहरा नहीं है. पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेता भी उतने मजबूत नहीं हैं. राज्य में सरकार बनाने के दावे पर लोग हंसी उड़ा रहे हैं."

बीजेपी के प्रवक्ता और सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव इस पर जवाब देते हैं, "हमारे पास नेतृत्व की कमी नहीं है. मगर बूथ लेवल पर हम पार्टी को और मजबूत करना चाहते हैं. जो हमारे सिद्धांतों से सहमत हैं, हम उन्हें अपने से जोड़ रहे हैं."

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'आंध्र में केरल फॉर्मूला'

राज्य में पार्टी की कमान कन्ना लक्ष्मी नारायण को सौंपने के बाद से चीज़ें बदलती हुई दिख रही है. वे ज़िलेवार दौरे कर रहे हैं और इसके साथ राज्य में बीजेपी पर राजनीतिक हिंसा भड़काने के आरोप लग रहे हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी आंध्र प्रदेश में अपने विस्तार के लिए केरल फॉर्मूले पर अमल करती हुई दिख रही है.

साल 2016 में केरल विधानसभा में बीजेपी ने पहली बार एक विधायक के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी. इससे पहले वहां विधानसभा चुनावों में उन्हें छह फीसदी वोट मिले थे लेकिन आज वे दस फीसदी वोटों पर दखल रखते हैं.

तेलकपल्ली रवि की राय में, "केवल केरल ही नहीं, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में भी बीजेपी ने राजनीतिक हिंसा के फॉर्मूले को औज़ार बनाया है."

लेकिन क्या राजनीतिक हिंसा का सहारा लेकर वोट हासिल किए जा सकते हैं?

तेलकपल्ली रवि कहते हैं, "ऐसा होता है. पहले हिंसा भड़काई जाती है और बाद में राजनीतिक दल लोगों के पास जाकर खुद को पीड़ित की तरह पेश करते हैं."

हालांकि जीवीएल नरसिम्हा राव इससे साफ तौर पर इनकार करते हैं. उनका कहना है, "बीजेपी ने कभी भी राजनीतिक हिंसा का इस्तेमाल सियासत के लिए नहीं किया है. ऐसे आरोप बेबुनियाद हैं."

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आरएसएस और अन्य हिंदू समूहों की भूमिका

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मीडिया में धर्म से जुड़ी ख़बरें प्रमुखता से छाई रहती हैं. इनमें ख़ासतौर पर तिरुमला मंदिर से जुड़ी छोटी-छोटी बातें भी बड़ी ख़बर बन जाती हैं. और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के पूर्वज तेलंगाना से थे.

दोनों राज्यों में धर्म गुरुओं का भी ख़ासा असर हैं. दोनों राज्यों की बहुसंख्यक आबादी हिंदुओं की है लेकिन इसके बावजूद न तो आंध्र में और न ही तेलंगाना में हिंदू वोट बैंक से जैसी कोई बात वजूद में है.

लेकिन ए कृष्णाराव कहते हैं, "तेलंगाना में सिकंदराबाद, मलकाजगिरि, महबूबनगर और निज़ामाबाद जैसी जगहों पर बीजेपी और संघ की मौजूदगी ठीक ठाक है. इन लोकसभा सीटों पर बीजेपी पहले भी जीत चुकी है."

कई दिनों से हैदराबाद में भगवान राम को लेकर चल रहा विवाद अपने चरम पर पहुंच गया है. एक दलित फिल्म समीक्षक और एक हिंदू धर्म गुरु को हैदराबाद पुलिस ने छह महीने तक शहर की सीमाओं से तड़ीपार किया है.

पुलिस ने इन दोनों को तेलंगाना से ले जाकर आंध्र प्रदेश छोड़ दिया है. हिंदू धर्म गुरु को घर में नज़रबंद रखने और उन्हें शहर से बाहर निकालने के विरोध में बीजेपी ने विरोध प्रदर्शन किया है. उन्होंने इस सिलसिले में राज्यपाल से भी मुलाकात की है.

ए कृष्णाराव कहते हैं, "ऐसी घटनाओं से लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़कती हैं."

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कांग्रेस मुक्त तेलंगाना

तेलंगाना में सरकार बनाने का सपना देख रही बीजेपी को राज्य में सबसे बड़ी चुनौती के चंद्रशेखर राव की टीआरएस है. बीजेपी राज्य की हर समस्या के लिए टीआरएस को ज़िम्मेदार ठहराती है. लेकिन टीआरएस के लिए राज्य में सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस पार्टी है.

और कांग्रेस को किनारे रखने के लिए टीआरएस दिल्ली की राजनीति में हर क़दम पर बीजेपी का साथ दे रही है. हालांकि इस पर टीआरएस वालों की दलील ये है कि वे देश के विकास के लिए बीजेपी को मुद्दों पर समर्थन देती है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दरअसल दोनों ही राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस मुक्त तेलंगाना के साझे लक्ष्य पर काम कर रहे हैं.

ए कृष्णाराव कहते हैं, "बीजेपी को लेकर केसीआर के मन में कोई बैर नहीं है. अभी बीजेपी राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भी नहीं है. अगर पूरे देश में कांग्रेस बढ़ गया तो केसीआर को राजनीतिक चुनौती ज़्यादा महसूस होगी."

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केसीआर और बीजेपी की दोस्ती नई नहीं है. साल 2009 में भी केसीआर अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर एनडीए के प्लेटफॉर्म पर साथ आ चुके हैं.

साल 2014 में भी ये कहा जाने लगा था कि केसीआर चुनावों के बाद मोदी सरकार में शामिल हो सकते हैं.

केसीआर कुछ महीने पहले ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा पार्टियों के साथ तीसरे मोर्चे के गठन की कोशिश कर चुके हैं.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के विपक्षी नेता स्टालिन और कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर के कुमारास्वामी और देवगौड़ा के साथ उन्होंने इस सिलसिले में बात आगे बढ़ाने की कोशिश की है.

लेकिन इन राजनीतिक दलों का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ ज़्यादा दिख रहा है.

तेलकपल्ली रवि कहते हैं, "अगर तेलंगाना में बीजेपी मज़बूत हुई तो केसीआर को ज़्यादा फ़ायदा होगा क्योंकि सरकार विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाएगा. राज्य में बीजेपी के विस्तार का सीधा मतलब है कांग्रेस का नुक़सान. राज्य में बीजेपी और टीआरएस दोनों ही कांग्रेस को रोकना चाहते हैं. आंध्र में चंद्रबाबू नायडू से दूरी बनाने के बाद बीजेपी तेलंगाना में केसीआर से नज़दीकी बढ़ा रही है."

जीवीएल नरसिम्हा राव का कहना है, "प्रधानमंत्री मोदी ने पहले ही कहा है कि वे सहकारी संघवाद की भावना से काम करते हैं. इसलिए हम केसीआर और तेलंगाना को मदद दे रहे हैं. केसीआर भी हमें राष्ट्रीय मुद्दों पर समर्थन दे रहे हैं. इसमें कोई राजनीतिक रहस्य की बात नहीं है. तेलंगाना में हम विपक्ष में हैं और हमारा विरोध केसीआर और उनके टीआरएस से है."

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क्या आंध्र और तेलंगाना बीजेपी के लिए दुर्जेय हैं?

राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता है. लेकिन इसके लिए लक्ष्य और योजना की ज़रूरत होती है. इस पर अमल के लिए पार्टी का संगठन ज़रूरी होता है. केंद्र में सत्ता में होकर भी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बीजेपी ने पार्टी नेताओं को कोई मलाईदार पद नहीं दिया है.

एक तरफ़ आंध्र से ही आने वाले वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति के पद पर पहुंच गए पर दूसरी तरफ़ तेलंगाना से पार्टी के इकलौते सांसद दत्तात्रेय भी कैबिनेट से बाहर हैं. महाराष्ट्र के राज्यपाल के विद्यासागर राव के अलावा पार्टी ने आंध्र और तेलंगाना के किसी दूसरे नेता को ऐसे पद नहीं दिए हैं.

तेलकपल्ली रवि कहते हैं, "आंध्र और तेलंगाना को लेकर किए गए दावे बीजेपी की वास्तविक स्थिति से कहीं बढ़ चढ़कर हैं. पहले उन्हें पार्टी के विस्तार के लिए काम करना चाहिए."

राजनीतिक विश्लेषकों का ये भी कहना है कि बीजेपी का फोकस उत्तर की तरफ़ ज़्यादा है, दक्षिण भारत उनके रडार में उस तरह से हो भी नहीं सकता.

अगर बीजेपी दक्षिण भारत के इन दो राज्यों में आधार बढ़ाना चाहती है तो उसे राजनीतिक साझीदार खोजने होंगे लेकिन यहां ऐसे हालात हैं कि न तो तेदेपा और न ही टीआरएस और न ही जगन रेड्डी की पार्टी उनसे गठबंधन करना चाहती है.

ए कृष्णाराव का कहना है कि विशेष राज्य का दर्जा, विशाखापत्तनम को रेलवे ज़ोन या दूसरी आर्थिक सहूलियतें देने से बीजेपी को साझीदार तो मिल जाएंगे और इससे उसकी सीटें भी बढ़ सकती हैं लेकिन इन राज्यों की सत्ता अभी भी उनसे दूर है.

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