नज़रिया: नकारात्मक खबरें आम आदमी पार्टी को कमज़ोर कर रही हैं
- प्रमोद जोशी
- वरिष्ठ पत्रकार

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आम आदमी पार्टी के जन्म के साथ उसके भविष्य को लेकर अटकलों का जो सिलसला शुरू हुआ था, वह रुकने के बजाय बढ़ता जा रहा है. उसके दो वरिष्ठ नेताओं के ताज़ा इस्तीफों के कारण कई किस्म के कयास लगाए जा रहे हैं.
ये कयास पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र, उसकी रीति-नीति, दीर्घकालीन रणनीति और भावी राजनीति को लेकर हैं. इस किस्म की खबरों के बार-बार आने से पार्टी का पटरा बैठ रहा है.
पार्टी के उदय ने देश में 'नई राजनीति' की सम्भावनाओं को जन्म दिया था. ये सम्भावनाएं ही अब क्षीण पड़ रहीं हैं. उत्साह का वह माहौल नहीं बचा, जो तीन साल पहले था. पार्टी का नेतृत्व खुद बहुत आशावान नहीं लगता.
पैरों में लिपटे भँवर
हाल में पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सात सीटों को लेकर एक सर्वेक्षण कराया है, जिसमें उसने सात में से चार सीटों पर सफल होने की उम्मीद ज़ाहिर की है. यह उसका अपना सर्वे है. यह उसकी मनोकामना है.

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पार्टी बताना चाहती है कि हम दिल्ली में सबसे बड़ी ताकत हैं. शायद वह सही है, पर उसे अपना क्षरण भी दिखाई पड़ रहा है. प्रमाण है उसके अपनों का साथ छोड़कर जाना. यह आए दिन का टाटा-बाय-बाय अच्छा संकेत नहीं है.
पार्टी की आशा और निराशा के ज़्यादातर सूत्र दिल्ली की राजनीति से जुड़े हैं. उसकी लोकप्रियता की अगली परीक्षा लोकसभा चुनाव में होगी. पर उस चुनाव की तैयारी उसके अंतर्विरोधों को भी बढ़ा रही है. चुनाव लड़ने के लिए साधन चाहिए, जिनके पीछे भागने का मतलब है पुराने साथियों से बिछुड़ना.
बीजेपी और कांग्रेस दोनों से पंगा लेने के कारण उसकी परेशानियाँ बढ़ी हैं. उसके आंतरिक झगड़े पहले भी थे, पर अब वे सामने आने लगे हैं. झगड़ों ने उसके पैरों को भँवर की तरह लपेटना शुरू कर दिया है.
पुराने साथियों की अपेक्षाएं
पुराने कार्यकर्ताओं की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पाईं हैं, वहीं नई ताकतें मंच पर प्रवेश कर रहीं हैं. इससे विसंगतियाँ खड़ी हो रही हैं.
राज्यसभा चुनाव में ये विसंगतियाँ देखने को मिलीं और अब लोकसभा चुनाव में भी उभरेंगी.

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आज हालत यह है कि पार्टी के आधे से ज्यादा संस्थापक सदस्य बाहर हैं और उसकी बखिया उधेड़ने में सबसे आगे हैं.
आशुतोष के अलावा आशीष खेतान के इस्तीफे की ख़बर देर से आई, पर जो जानकारी मिली है, उसके अनुसार दोनों ने एकसाथ इस्तीफे दिए थे. इस्तीफे स्वीकार नहीं हुए हैं.
पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति को इस्तीफों पर फ़ैसला करना है. हाल ही में हुई पीएसी की बैठक में कोई फ़ैसला नहीं हुआ.
अफ़वाहें ही अफ़वाहें
आशीष खेतान का कहना है कि मैं वकालत पर ध्यान लगाना चाहता हूँ, पर वकालत का राजनीति से बैर नहीं है. तमाम वकील राजनीति में सक्रिय हैं.

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इस्तीफ़े की खबरें मीडिया में आने के बाद खेतान ने ट्वीट किया, 'मैंने वकालत शुरू करने के लिए ही अप्रैल में दिल्ली संवाद आयोग से इस्तीफ़ा दे दिया था. यही एक हकीकत है, बाकी अफ़वाहों में मेरी दिलचस्पी नहीं.
क्या है अफ़वाहें? पार्टी सूत्रों के हवाले से ही ख़बर है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी ने पांच सीटों के लिए पार्टी ने जिन्हें चुना है, उनमें इन दोनों के नाम शामिल नहीं हैं.
पर यह निराशा पैदा हो गई थी जब राज्यसभा के लिए दो ऐसे प्रत्याशी सामने आए, जो 'शरीके-सफर' न थे. यानी कि अपरिचित यात्री थे, जो बाद में ड्राइवर की सीट पर बैठा दिए गए.
क्या दोनों साथ रहेंगे?
कहा जा रहा है कि शायद पार्टी दोनों नेताओं से जुड़े रहने की अपील करेगी. इससे होगा क्या? शायद वकालत में राजनीतिक जुड़ाव दिक्कत पैदा नहीं करेगा, पर सक्रिय पत्रकारिता के लिए राजनीतिक दल की सदस्यता दिक्कत पैदा करेगी.

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बहरहाल यह व्यक्तिगत निराशा है या पार्टी की दशा-दिशा को लेकर इनके मन में कोई शुबहा पैदा हो रहा है. पार्टी में इससे पहले जो इस्तीफ़े हुए हैं या निकाला गया है, वे सब मामले सीधे-सीधे तकरार के थे.
ताजा मामले तकरार के नहीं हैं, असंतोष के हैं. दिक्कत यह है कि पार्टी के पास देने के लिए पुरस्कार कम होते जा रहे हैं. बहरहाल अटकलें इसलिए भी हैं, क्योंकि बहुत सी बातें साफ नहीं है. पार्टी से अलग होने वालों को भी अपनी बात स्पष्ट करनी चाहिए.
असंतोष क्यों?
वास्तविक वजह सामने नहीं आएगी तो अटकलें लगाई ही जाएंगी. जब आशुतोष राजनीति में आए थे, तब उन्होंने लम्बा-चौड़ा लेख लिखकर बताया था कि मैं राजनीति में क्यों आया हूँ. अब उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वे इसे छोड़ना क्यों चाहते हैं.
इस स्पष्टीकरण की अनुपस्थिति में कयासबाजी स्वाभाविक है. इससे पार्टी का नुक़सान हो रहा है. उसकी छवि बिगड़ रही है. सायास या अनायास पार्टी मजाक का विषय बन रही है.

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आंतरिक उमड़-घुमड़ के अलावा पार्टी की वाह्य राजनीति भी असमंजस से पीड़ित है. दिल्ली और पंजाब की राजनीतिक अनिवार्यताओं के कारण कांग्रेस ने उसके साथ जुड़ने से इनकार कर दिया है. पर महागठबंधन के अनेक दलों की दिलचस्पी इस पार्टी में है.
वैचारिक असमंजस
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
आम आदमी पार्टी को कांग्रेस से अलग दिखाना है, तो उसे महागठबंधन से भी दूरी बनानी होगी.
हाल में अरविंद केजरीवाल ने महागठबंधन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की है. उन्होंने यह भी कहा कि जो पार्टियां महागठबंधन में शामिल हो रही हैं, उनकी देश के विकास में कोई भूमिका नहीं है.
पार्टी अब दिल्ली-हरियाणा-पंजाब तक अपनी राजनीति को सीमित रखना चाहती है और अपनी छवि उसके अनुरूप तैयार कर रही है.
इस इलाके में कांग्रेस और बीजेपी के समानांतर एक ताकत के रूप में उभरने की कामना सिद्धांततः गलत नहीं है, पर यह लम्बा रास्ता है. दिक्कत इसके नेतृत्व में है, जिसकी स्पीड का पता नहीं लगता. कब धीमी चले और कब तेज. इसमें लम्बा रास्ता तय करने की सामर्थ्य होती तो इतनी टूट-फूट हुई भी न होती.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है.)
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