नज़रिया: मोदी के लिए मुश्किल वक़्त पर ही क्यों सामने आते हैं 'शहरी नक्सली'?
- नंदिनी सुंदर
- प्रोफ़ेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय

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सुधा भारद्वाज
कुछ साल पहले मैं दंतेवाड़ा के एक स्कूल में गई थी. स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझे कथित माओवादियों का एक पत्र दिखाया जिसमें लिखा गया था कि स्कूल बंद कर दो. इसके आख़िर में लाल स्याही से लिखा गया था- 'लाल सलाम.'
जांच में पता चला कि छुट्टी न मिलने के कारण प्रधानाचार्य से नाराज़ एक अध्यापक ने यह ख़त लिखा था. देश में इस तरह से बहुत सारे 'माओवादी' पत्र घूम रहे हैं. कई बार वे माओवादियों द्वारा दिए गए होते हैं तो कई बार पुलिस और आम लोग भी लिखते हैं ताकि निजी रंजिश निपटाई जा सके.
जब कभी गांव वाले इस तरह की नक्सली चिट्ठियां लिखते हैं तो वे लिखावट साफ़ रखने की कोशिश करते हैं क्योंकि उनकी नज़रों में माओवादियों का जुड़ाव पढ़ने-लिखने से रहता है. मगर पुलिस जब ऐसी माओवादी चिट्ठियां लिखती है तो वह उन्हें कुछ ज़्यादा ही अनपढ़ दिखाने की कोशिश करती है.
पुणे पुलिस ने जो चिट्ठियां जारी की हैं. वे इस तरह के फ़र्ज़ी माओवादी पत्रों के 'अर्बन पुलिस' संस्करण हैं जो उनकी 'अर्बन नक्सलियों' की कल्पना के अनुरूप बैठ सकें. इन पत्रों का कोई मतलब नहीं है.
उदाहरण के लिए एक पत्र को कथित तौर पर 'कॉमरेड सुधा' ने 'कॉमरेड प्रकाश' को लिखा है, उसमें कई बार वह अपना नकली नाम लिखती हैं तो कई बार असली नाम (ख़ासकर उन लोगों के, जिन्हें पुलिस गिरफ़्तार करना चाहती है).
इस कथित चिट्ठी में वह अलगाववादियों के लिए उग्रवादी लिख रही हैं जिनके साथ उनकी सहानुभूति बताई जाती है जबकि मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहे सुरक्षाबलों के लिए 'दुश्मन' शब्द इस्तेमाल कर रही हैं.

सुधा भारद्वाज द्वारा लिखी गई कथित चिट्ठी का अंश
सुधा भारद्वाज कभी पैसे नहीं मांगेंगी
सुधा भारद्वाज को जो थोड़ा-बहुत भी जानता हो, वह इस बात पर यक़ीन नहीं करेगा कि वह ख़ुद के लिए या अपनी बेटी के लिए पैसे मांगेंगी. सुधा नेकि पूरी तरह से वैध गतिविधियों, जैसे कि क़ानूनी सहायता देने, घटनाओं के पीछे का सच तलाशने और बैठकों तक को आतंकवादी साज़िश रचने का नाम दे दिया जा रहा है.
इन चिट्ठियों से इतर, ऐसा अचानक क्या हो गया कि पुलिस के मुताबिक़ इतने सारे वरिष्ठ नागरिक चुपके से साज़िशें रचने लगे और हत्या के प्रयास करने लगे. वह भी तब, जब वे ताउम्र सार्वजनिक रूप से लोकतात्रिक राजनीति में रहे हों और ख़ासकर आपातकाल में भी.
गिरफ़्तार किए गए लोगों में सबसे कम उम्र महेश राऊत की है जो प्राइम मिनिस्टर रूरल डिवेलपमेंट फैलो रह चुके हैं. दिसंबर 2017 में यलगार परिषद से कुछ दिन पहले वह गढ़चिरौली में आदिवासी गांववालों की एक बड़ी बैठक के आयोजन की तैयारी कर रहे थे ताकि वन अधिकार अधिनियम और पीईएसए (पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरियाज एक्ट, 1996) पर चर्चा की जा सके.
मगर पुलिस के गोलमोल लॉजिक के मुताबिक़, इन लोगों का ख़ुलापन और इनकी गतिविधियों का संविधान के अनुरूप होना ही इन्हें 'शहरी नक्सली' बनाता है.
कहा जा रहा था कि नोटबंदी ने माओवादियों और कश्मीरी अलगाववादियों की कमर तोड़ दी है. फिर वो इतने मज़बूत कैसे हो गए कि प्रधानमंत्री को ही धमकी देने लगें?



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गौतम नवलखा
'शहरी नक्सली' खुलेआम राजनीति में थे
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
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गृह मंत्री कहते हैं कि चूंकि ग्रामीण इलाक़ों में माओवादियों को हराया जा रहा है, वे शहरी इलाक़ों में फैल रहे हैं. मगर जो लोग शहरी नक्सली बताकर गिरफ़्तार किए जा रहे हैं, वे तो हमेशा से खुलेआम राजनीति में थे.
दिल्ली हाई कोर्ट में गौतम नवलखा की रिमांड पर बहस के दौरान एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अमन लेखी ने कहा कि पुलिस दावा करती है कि पहले उन्होंने पांच को गिरफ़्तार किया और फिर पहले दौर की गिरफ़्तारी से मिले सबूतों आदि के आधार पर पांच और को गिरफ़्तार किया. उनका कहना था कि इससे अभी और गिरफ़्तारियां भी हो सकती हैं.
अगर इस पूरे मामले में बड़े पैमाने पर साज़िश रची जा रही थी, वह साज़िश कार्यकर्ता नहीं बल्कि पुणे पुलिस और महाराष्ट्र व केंद्र की बीजेपी सरकार रच रही थी. आइए इस साज़िश और इन गिरफ्तारियों के पीछे के कारणों से पर्दा उठाएं. ये गिरफ़्तारियां अभी क्यों हुईं? इन्हीं लोगों को क्यों गिरफ़्तार किया गया और इससे सरकार क्या हासिल करना चाहती है?
इस कार्रवाई के पीछे का पहला कारण तो ज़ाहिर है सनातन संस्था की आतंकी गतिविधियों और गौरी लंकेश, एमएम कलबर्गी, गोविंद पानसरे और दाभोलकर की हत्याओं में कथित भूमिका से ध्यान बंटाना है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए जिस एफ़आईआर को आधार बनाया गया, वह भीमा कोरेगांव की हिंसा में नामजद संभाजी भिडे और मिलिंद एकबोटे के अनुयायी तुषार दमगुडे की शिकायत के आधार पर दर्ज की गई थी.
इसमें कोई हैरानी नहीं है कि इन दोनों के ख़िलाफ़ चल रही जांच कछुए की रफ़्तार से आगे बढ़ रही हैं. इसके साथ ही माया कोडनानी और 2002 के गुजरात नरसंहार में शामिल अन्य के बरी होने को भी इसी क्रम में देखा जाए. इशरत जहां और सोहराबद्दीन की हत्याओं में फंसे अमित शाह, वंजारा और अन्य से आरोप हटाए जाने को भी.
योगी आदित्यनाथ द्वारा अपने ऊपरे से मामले हटाने और जयंत सिंहा द्वारा झारखंड में लिंचिंग करने वालों को हार जैसे और भी कई मामले हैं.

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पीड़ितों पर ही आरोप लगाए जा रहे
समाज और देश के जिन स्वयंभू ठेकेदारों को इस सरकार ने हिंसा का ठेका दिया है, उन्हें यह स्पष्ट संकेत दे रही है कि उनके ऊपर कोई क़ानूनी आंच नहीं आने दी जाएगी और उन्हें आगे बढ़ने की पूरी इजाज़त है. भीमा-कोरेगांव समेत कई मामलों में तो पीड़ितों पर ही आरोप लगाए जा रहे हैं.
दूसरा, इनका लक्ष्य साफ़ है कि कुछ ही तरह के हिंदुत्व समर्थक दलित और आदिवासी कार्यकर्ता काम करते रहें और बाकियों को दबा दिया जाए. बीजेपी दलित और आदिवासी वोटों के लिए बेचैन हो चुकी है. उन्होंने दलित राष्ट्रपति बनाकर, एससी-एसटी एक्ट को कमज़ोर करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटकर और राजा सुहेलदेव जैसे दलित हीरो को उभारकर दलितों के क़रीब आने की कोशिश की है.
लेकिन आप अगर सरकारी दलित नहीं हैं तो आपको दबा दिया जाएगा- उत्तर प्रदेश की भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद की तरह, गुजरात के जिग्नेश मेवाणी और ऊना के दलितों की तरह या फिर नव-ब्राह्मणवादी पेशवाई के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए यल्गार परिषद में हिस्सा लेने वाले दलितों की तरह.
जहां तक आदिवासियों की बात है, बीजेपी वनवासी कल्याण परिषद और आरएसएस के अन्य मोर्चों पर आश्रित है. सिर्फ यही ऐसे एनजीओ हैं जिन्हें आदिवासी इलाक़ों में खुलकर काम करने की इजाज़त है.
सरकार इन गिरफ़्तारियों से जिस मक़सद को हासिल करना चाहती है, वह है उन आम भारतीयों को प्रभावित करना, जिनकी राष्ट्रवाद स्वाभाविक भावना है. भले ही उनका राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद या हिंसक राष्ट्रवाद नहीं है, जैसा कि बीजेपी चाहती है. मगर राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल जैसी शब्दावलियों से सरकार मानवाधिकार और विचार भिन्नता को अवैध बना देना चाहती है.
जिन लोगों ने उमर उन्हें यकीन था कि वे कोई महान कार्य कर रहे हैं. क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा की तरह. इसी तरह से जिस यात्री ने विमान में कन्हैया कुमार का गला घोंटने की कोशिश की, वह बीजेपी का समर्थक था जिसका जुनून उबाल मार रहा था.



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पुलिस के दुष्प्रचार से माओवादी बने रहे अछूत
दस साल पहले माओवादियों के बारे में राय यह थी कि वे दिग्भ्रमित आदर्शवादी हैं. मगर एक दशक तक पुलिस द्वारा किया गया दुष्प्रचार उन्हें अछूत बनाने में कामयाब रहा है. अगर यह सिलसिला जारी रहा तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ भी यही होगा.
हाल की गिरफ़्तारियां नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर किए जा रहे नरसंहार से भी ध्यान बंटाती हैं. 6 अगस्त 2015 को सुरक्षाबलों ने छत्तीसगढ़ के सुकमा में नुल्कातोंग गांव में बच्चों समेत 15 आदिवासी ग्रामीणों पर गोली चला दी. पत्रकारों, वकीलों, शोधकर्ताओं और अन्य लोगों को यहां से दूर रखकर सरकार यहां पर माइनिंग और कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने को आसान बना रही है.
पांचवां कारण है- नरेंद्र मोदी के लिए सहानुभूति बटोरना. यह संयोग ही है कि जब कभी उनके लिए हालात मुश्किल भरे होने लगते हैं, उनकी हत्या की साज़िश से पर्दा उठ जाता है.

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यह कथित हत्या की साज़िश दिखाती है कि या तो पुलिस और गृह मंत्रालय अपना काम ढंग से नहीं कर रहे या फिर मन से नहीं कर रहे जो उन्हें ये पहले यक़ीन करने लायक नहीं लग रही.
यह पुलिस का ही केस है कि उसने 17 अप्रैल 2018 को रोना विल्सन के घर से यह फंसाने वाला दस्तावेज़ हासिल किया था. फिर रोना और अन्य की गिरफ़्तारी छह जून को क्यों हुई, जबकि मोदी की सुरक्षा पर राजनाध सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक 11 जून को हुई.
इन सब बातों को देखें तो पुलिस और बीजीपी की सरकार को ख़ुद को और देश को शर्मिंदा करने से बाज़ आना चाहिए और सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को तुरंत रिहा कर देना चाहिए.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)



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