बेटी जहाँआरा से शाहजहां के संबंध इतने विवादित क्यों थे

  • रेहान फ़ज़ल
  • बीबीसी संवाददाता
जहाँआरा

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मुग़ल बादशाह शाहजहाँ अपनी सबसे बड़ी बेटी जहाँआरा के साथ शतरंज खेल रहे थे, तभी मुमताज़ महल के कमरे से एक हरकारा ने दौड़ते हुए आकर ख़बर दी कि मलिका मुमताज़ महल की हालत ख़राब हो चुकी है.

जहांआरा दौड़ती हुई अपनी माँ के पास गईं और दौड़ते हुए लौट कर अपने पिता को ख़बर दी कि उनकी माँ की प्रसव वेदना असहनीय हो चली है और बच्चा उनके पेट से निकल ही नहीं पा रहा है.

शाहजहाँ ने अपने क़रीबी दोस्त हकीम आलिम-अल-दीन वज़ीर ख़ाँ को तलब किया, लेकिन वो भी मुमताज़ महल की पीड़ा को कम करने में असफल रहे.

मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी किताब 'स्टडीज़ इन मुग़ल इंडिया' में कवि क़ासिम अली आफ़रीदी की आत्मकथा से उद्धत करते हुए लिखते हैं, ''अपनी माँ की मदद करने में असहाय जहांआरा ने इस उम्मीद से ग़रीबों को रत्न बांटने शुरू कर दिए कि ईश्वर उनकी दुआ को सुन कर उनकी माँ को अच्छा कर देगा. उधर शाहजहाँ का भी रोते-रोते बुरा हाल था और उनकी आँखों से आंसुओं की बारिश हो रही थी. तभी मुमताज़ महल की कोख के अंदर से ही बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी.''

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मुमताज महल

मुमताज की ख़्वाहिश

उन्होंने लिखा है, ''ये आम धारणा है कि अगर बच्चा कोख में ही रोने लगता है, तो माँ का बचना असंभव होता है. मुमताज़ महल ने बादशाह शाहजहाँ को अपने पास बुला कर अपने क़सूरों के लिए माफ़ी मांगी और कहा कि मेरी एक इच्छा है. अगर हो सके तो उसे पूरा करने की कोशिश करिए. बादशाह ने अपनी क़सम खाते हुए कहा कि तुम्हारी हर इच्छा पूरी की जाएगी. मुमताज़ महल ने कहा मेरे मरने के बाद आप एक ऐसा मक़बरा बनवाइए जो आज तक इस दुनिया में बनवाया न गया हो.''

जदुनाथ सरकार ने लिखा है, ''इसके तुरंत बाद उन्होंने गौहर आरा को जन्म दिया और हमेशा के लिए अपनी आँखें मूंद लीं.'

कई इतिहासकारों ने बाद में ज़िक्र किया कि शाहजहाँ इस सदमे से कभी नहीं उबर पाए. डब्लू बेगली और ज़ेड ए देसाई ने अपनी किताब 'शाहजहाँनामा ऑफ़ इनायत ख़ाँ' में लिखा, ''शाहजहाँ ने संगीत सुनना छोड़ा दिया और सफ़ेद कपड़े पहनने लगे. लगातार रोने की वजह से उनकी आँखें कमज़ोर हो गईं और वो चश्मा लगाने लगे. पहले जब उनका एक भी बाल सफ़ेद होता था तो वो उसे उखड़वा देते थे, लेकिन मुमताज़ के मरने के एक सप्ताह के भीतर उनके बाल और दाढ़ी सफ़ेद हो गए.''

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शाहजहां

जहाँआरा और बेटे दाराशिकोह का साथ

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इसके बाद शाहजहाँ अपनी सबसे बड़ी बेटी जहाँआरा और बेटे दाराशिकोह पर निर्भर हो गए. जहाँआरा का जन्म दो अप्रैल, 1614 को हुआ था. शाहजहाँ के एक दरबारी की पत्नी हरी ख़ानम बेगम ने उन्हें शाही जीवन के तौर तरीक़े सिखाए. जहांआरा बला की हसीन होने के साथ-साथ विदुषी भी थीं, जिन्होंने फ़ारसी में दो ग्रंथ भी लिखे थे.

1648 में बने नए शहर शाहजहाँनाबाद की 19 में से 5 इमारतें उनकी देखरेख में बनी थीं. सूरत बंदरगाह से मिलनेवाली पूरी आय उनके हिस्से में आती थी. उनका ख़ुद का पानी का जहाज़ 'साहिबी' था जो डच और अंग्रेज़ों से तिजारत करने सात समंदर पार जाता था.

मशहूर इतिहासकार और 'डॉटर्स ऑफ़ द सन' की लेखिका इरा मुखौटी बताती है, ''जब मैंने मुग़ल महिलाओं पर शोध शुरू किया तो पाया कि शाहजहाँनाबाद जिसे हम आज पुरानी दिल्ली कहते हैं का नक्शा जहाँआरा बेग़म ने अपनी देखरेख में बनवाया था. उस समय का सबसे सुंदर बाज़ार चांदनी चौक भी उन्हीं की देन है. वो अपने ज़माने की दिल्ली की सबसे महत्वपूर्ण महिला थीं. उनकी बहुत इज़्ज़त थी, लेकिन साथ ही वो बहुत चतुर भी थीं. दारा शिकोह और औरंगज़ेब में दुश्मनी थी. जहाँआरा ने दारा शिकोह का साथ दिया. लेकिन जब औरंगज़ेब बादशाह बने तो उन्होंने जहाँआरा बेगम को ही पादशाह बेगम बनाया.''

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औरंगज़ेब

सबसे सुसंस्कृत महिला

जहाँआरा बेगम की गिनती मुग़ल काल की सबसे सुसंस्कृत महिलाओं में होती थी. उनकी सालाना आय उस ज़माने में 30 लाख रुपए होती थी. आज के ज़माने में इसका मूल्य डेढ़ अरब रुपए के बराबर है.

मुग़ल प्रजा भी उन पर जान छिड़कती थी. एक और इतिहासकार राना सफ़वी बताती हैं, ''उनको हम यह नहीं कहेंगे कि वो शहज़ादी थीं, शाहजहाँ की बेटी थीं या औरंगज़ेब की बहन थीं. वो अपने आप में एक मुकम्मल शख़्सियत थीं. जब वो सिर्फ़ 17 साल की थीं तो उनकी माँ का इंतक़ाल हो गया था और उन्हें पादशाह बेगम बनाया गया था जो उस ज़माने में किसी औरत के लिए सबसे बड़ा ओहदा था. जब वो पादशाह बेगम बनती हैं तो वो अपने यतीम भाई बहनों को तो संभालती ही हैं, अपने बाप को भी सहारा देती हैं जो पनी बीवी के इंतेक़ाल के बाद बहुत ग़मज़दा थे.''

1644 में जहाँआरा के साथ एक बहुत बड़ी दुर्घटना घटी. जब वो किले के अंदर चहलकदमी कर रही थीं तो उनके जामे में गलियारे में रखी मशाल से आग लग गई थी और उन्हें 11 महीनों तक बिस्तर पर रहना पड़ा था.

मुग़ल काल की कई कहानियों का विस्तृत अध्ययन करने वाले आसिफ़ ख़ाँ देहलवी कहते हैं, ''जहाँआरा की सालगिरह का मौक़ा था. उन्होंने रेशमी लिबास पहना हुआ था. जब वो अपनी ख़ादिमाओं के साथ बाहर आईं तो एक शमा उनसे रश्क करने लगी. उन्होंने उनके जामे का बोसा लिया और शहजादी के कपड़ो में आग लग गई.''

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जहांआरा बुरी तरह जल गईं

ख़ाँ देहलवी ने लिखा है, ''उनको ख़ादिमाओं ने उनके ऊपर कंबल फेंक कर किसी तरह आग बुझाई. जहांआरा बुरी तरह जल गईं और उनकी हालत बेहद नाज़ुक हो गई. किसी ने बताया कि मथुरा वृंदावन में एक जोगी रहता है. उसकी दी हुई भभूति अगर ज़ख़्मों में लगा दी जाए तो वो ठीक हो जाते हैं. उससे जहाँआरा को आराम तो मिला लेकिन कुछ दिनों बाद ज़ख्म फिर उठ आते थे.''

देहलवी कहते हैं, ''फिर एक नजूमी ने शाहजहाँ को बताया कि जहाँआरा बेगम को किसी की माफ़ी की ज़रूरत है, क्योंकि किसी ने उन्हें बद्दुआ दी हुई है. ख़ादिमाओं से पूछा गया कि जहाँआरा ने हाल ही में किसी को कोई सज़ा तो नहीं दी है? पता चला कि एक सिपाही इनकी एक ख़ादिमा पर डोरे डाल रहा था. उन्होंने उसे हाथी के पांव तले मरवा दिया था. सिपाही के परिवार को बुलवाया गया और उससे माफ़ीनामा लिखवाया गया और उसे पैसा दिया गया. इसके बाद जा कर जहाँआरा ठीक हुईं और तब शाहजहाँ ने अपने ख़ज़ाने के दरवाज़े खोल दिए और दिल खोल कर पैसा लुटाया.''

शाहजहाँ के शासनकाल में जहाँआरा का ऐसा रुतबा था कि हर महत्वपूर्ण फ़ैसला उनकी सलाह से लिए जाते थे. उस ज़माने में भारत आए कई पश्चिमी इतिहासकारों ने उस समय प्रचलित 'बाज़ार गॉसिप' का ज़िक्र किया है जिसमें शाहजहाँ और उनकी बेटी जहांआरा के बीच नाजायज़ संबंधों की बात कही गई है.

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इतिहासकार राना सफ़वी के साथ बीबीसी स्टूडियो में रेहान फ़ज़ल

ताक़तवर मुग़ल बेगमें

इरा मुखौटी बताती हैं, ''जब ये पश्चिमी यात्री भारत आते थे तो उन्हें ये देख कर बहुत हैरानी होती थी कि मुग़ल बेगमें कितनी ताक़तवर होती थीं. इसके ठीक उलट उस ज़माने की अंग्रेज़ औरतों के पास उस तरह के अधिकार नहीं थे. उन्हें इस बात पर ताज्जुब होता था कि बेगमें व्यापार कर रही हैं और उन्हें हुक्म दे रही हैं कि वो इस चीज़ का व्यापार करें. इसका कारण उन्हें लगता था कि उनके शाहजहाँ के साथ ग़लत संबंध हैं. उन्होंने ये भी लिखा कि शाहजहाँ की बेटी बहुत सुंदर हैं, जबकि मैं नहीं समझती कि उन्हें कभी जहाँआरा को देखने का मौक़ा मिला था. वो ऐसा मानते थे कि शाहजहाँ के अपनी बेटी से ग़लत संबंध हैं, तभी तो वो उन्हें इतने ढ़ेर सारे अधिकार मिले हैं.'

फ़्रेंच इतिहासकार फ़्रांसुआ बर्नियर अपनी किताब, 'ट्रैवेल्स इन द मुग़ल एम्पायर' में लिखते है, ''जहाँआरा बहुत सुंदर थीं और शाहजहाँ उन्हें पागलों की तरह प्यार करते थे. जहाँआरा अपने पिता का इतना ध्यान रखती थीं कि साही दस्तरख़्वान पर ऐसा कोई खाना नहीं परोसा जाता था जो जहांआरा की देखरेख में न बना हो.''

बर्नियर ने लिखा है, ''उस ज़माने में हर जगह चर्चा थी कि शाहजहाँ के अपनी बेटी के साथ नाजायज़ ताल्लुक़ात हैं. कुछ दरबारी तो चोरी-छिपे ये कहते सुने जाते थे कि बादशाह को उस पेड़ से फल तोड़ने का पूरा हक़ है जिसे उसने ख़ुद लगाया है.''

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जहाँआरा बेगम- जिनकी औरंगज़ेब भी करता था बहुत इज़्ज़त

वहीं एक दूसरे इतिहासकार निकोलाओ मनूची इसका पूरी तरह से खंडन करते हैं. वो बर्नियर की थ्योरी को कोरी गप बताते हैं, लेकिन वो ये भी कहते हैं कि जहाँआरा के भी प्रेमी थे जो उनसे गुप्त रूप से मिलने आया करते थे.

राना सफ़वी भी मनूची का समर्थन करते हुए कहती हैं, ''सिर्फ़ बर्नियर ने शाहजहाँ और जहांआरा के नाजायज़ संबंधों की बात लिखी है. वो औरंगज़ेब के साथ थे और उन्हें दारा शिकोह से बहुत रंजिश थी. उस वक्त भी ये कहा जाता था कि ये बाज़ार गॉसिप है और ग़लत है. बर्नियर उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगज़ेब का साथ दे रहे थे और जहाँआरा दाराशिकोह के साथ थीं, इसलिए उन्होंने इस तरह की अफ़वाहें फैलाईं. बहुत पहले से ये परंपरा चली आ रही है कि अगर आपको किसी औरत को नीचा दिखाना हो तो उसके चरित्र पर कीचड़ उछाल दीजिए.''

जहाँआरा ताउम्र कुंवारी रहीं. इसके पीछे भी कई तर्क दिए जाते हैं. मसलन एक तर्क ये है कि उन्हें अपने स्तर का कोई शख़्स मिला ही नहीं.

आसिफ़ ख़ां देहलवी बताते हैं, ''बादशाह हुमांयू तक मुग़ल शहज़ादियों की शादियों का ज़िक्र मिलता है. बादशाह अकबर ने भी अपनी सौतेली बहन का विवाह अजमेर के पास एक सूबे के हाकिम से किया था. अकबर के इन बहनोई ने उनके ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी. अकबर ने तब फ़ैसला किया कि कि मुग़ल शहज़ादों में पहले ही बादशाह बनने की होड़ लगी रहती थी.''

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बीबीसी स्टूडियो में लेखिका इरा मुखौटी के साथ रेहान फ़ज़ल

बेटियों को लेकर पसोपेश में

देहलवी बताते हैं, ''अब इसमें दामाद भी शामिल हो जाएंगे तो मुग़ल सल्तनत का क्या होगा. दूसरे मुग़ल बादशाहों का मुक़ाम इस ऊंचाई तक पहुंच चुका था कि उनके सामने वास्तव में ये समस्या थी कि वो अपनी बेटियों को किसे देंगे? बादशाह के मुक़ाम जैसा मुक़ाम किसका होगा? अगर वो किसी को अपनी बेटी देंगे तो उसकी हैसियत बहुत बढ़ जाएगी और इस बात का डर रहेगा कि वो भविष्य में मुग़ल साम्राज्य को चुनौती दे सकता है. जहाँआरा बेगम का भी मुक़ाम बहुत बड़ा था, इसलिए उनके लायक शौहर मिला ही नहीं.''

दारा शिकोह और औरंगज़ेब के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई में जहाँआरा ने दाराशिकोह का साथ दिया. जब दाराशिकोह की हार हो गई तो वो औरंगज़ेब के पास एक प्रस्ताव ले कर गईं कि मुग़ल सल्तनत को शाहजहाँ के चार बेटों और औरंगज़ेब के सबसे बड़े बेटे के बीच बांट दिया जाए.

योजना के अनुसार पंजाब दारा को मिलना था, गुजरात मुराद को, बंगाल शाहशुजा को और डेकन औरंगज़ेब के सबसे बड़े बेटे सुल्तान मोहम्मद को. बाक़ी पूरी हिंदुस्तानी सल्तनत और बुलंद इक़बाल का ख़िताब औरंगज़ेब को मिलना था. लेकिन औरंगज़ेब ने उसे स्वीकार नहीं किया. जब औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को नज़रबंद कर आगरा के किले में रखने का फ़ैसला किया तो जहाँआरा ने भी कहा कि वो अपने पिता के साथ ही रहेंगी.

आसिफ़ ख़ाँ देहलवी बताते हैं, ''कहा जाता है कि जब मुमताज़ महल का इंतक़ाल हो रहा था तो उन्होंने शाहजहाँ के साथ अपनी सबसे बड़ी बेटी जहांआरा को बुलाया और उनका हाथ पकड़ कर उनसे ये वादा लिया कि कुछ भी हो जाए, तुम्हें अपने वालिद का साथ कभी नहीं छोड़ना है.''

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दाराशिकोह

वादों से बंधी जहाँआरा

देहलवी कहते हैं, ''इतिहास को अगर छोड़ भी दिया जाए और आप इस कहानी को आज के परिप्रेक्ष्य में लें तो जहाँआरा ने अपनी मरती हुई माँ को दिए गए वादे को निभाया. दारा शिकोह और औरंगज़ेब के बीच लड़ाई के दौरान जहांआरा ने शाहजहाँ से पूछा भी कि आप औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ दारा शिकोह का साथ दे रहे हैं. अगर दाराशिकोह की जीत होती है तो क्या इसे तख़्त की जीत समझा जाए?''

देहलवी के अनुसार, ''शाहजहाँ ने इसका जवाब हाँ में दिया. जहांआरा ने फिर पूछा कि अगर इस जंग में भाई दारा हार गए, तो क्या इसे तख़्त यानी शाहजहाँ की हार समझा जाए? इस पर शाहजहाँ चुप लगा गए और कुछ नहीं बोले. जब औरंगज़ेब ने आगरा के किले पर कब्ज़ा कर लिया और जिस तरह का उनका रवैया शाहजहाँ के प्रति था, जहाँआरा को लगा कि उन्हें बुरे वक़्त में अपने पिता का साथ नहीं छोड़ना चाहिए. दिलचस्प बात ये है कि इतना सब कुछ होने पर भी औरंगज़ेब अपनी बड़ी बहन जहाँआरा की उतनी ही इज़्ज़त करते थे जितनी कि दाराशिकोह और शाहजहाँ.''

दारा शिकोह का साथ देने के बावजूद औरंगज़ेब ने शाहजहाँ की मौत के बाद जहांआरा को पादशाह बेगम का ख़िताब दिया. इरा मुखोटी बताती हैं, ''उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगज़ेब की छोटी बहन रोशनारा बेगम ने उनका साथ दिया था, लेकिन औरंगज़ेब ने बड़ी बहन जहाँआरा बेगम को ही पादशाह बेगम बनाया. रोशनारा बेगम को हमेशा अपने भाई से शिकायत रही कि उन्हें वो नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए था.''

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इरा कहती हैं, ''जब जहाँआरा पादशाह बेगम बनीं तो उन्हें क़िले के बाहर एक सुंदर सी हवेली दी गई जबकि रोशनारा बेगम को क़िले के अंदर हरम से निकलने की अनुमति औरंगज़ेब ने नहीं दी. ऐसा लगता है कि औरंगज़ेब को रोशनारा बेगम पर पूरा विश्वास नहीं था. हो सकता है कि रोशनारा बेगम के कुछ प्रेमी रहे हों और उसकी भनक औरंगज़ेब को लग गई हो.''

सितंबर 1681 में 67 साल की उम्र में जहांआरा का निधन हो गया. उनकी मौत की ख़बर औरंगज़ेब के पास तब पहुंची, जब वो अजमेर से डेकन जाने के रास्ते में थे. उन्होंने जहाँआरा की मौत का शोक मनाने के लिए शाही काफ़िले को तीन दिनों तक रोक दिया.

जहांआरा को उनकी इच्छानुसार दिल्ली में निज़ामुद्दीन औलिया की मज़ार के बग़ल में दफ़नाया गया.

राना सफ़वी कहती है, ''जहाँआरा ने वसीयत की थी कि उनकी क़ब्र खुली होनी चाहिए. उसे पक्का नहीं किया जाना चाहिए. मुग़ल इतिहास में सिर्फ़ औरंगज़ेब और जहांआरा की क़ब्रें ही पक्की नहीं बनाई गई हैं और वो बहुत साधारण क़ब्रें हैं. आज भी जहांआरा की क़ब्र वहाँ मौजूद है.''

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