सबरीमला से लेकर तीन तलाक़, महिलाएं ही महिलाओं के ख़िलाफ़ क्यों?

केरल में सबरीमला मंदिर के दरवाज़े खुलने का वक्त जितना नज़दीक आ रहा है उतना ही महिलाओं के प्रवेश पर विरोध की आवाज़ तेज होती जा रही है.
कुछ हिंदू संगठनों और राजनीतिक दलों के नेतृत्व में विरोध करते प्रदर्शनकारी तिरुवनंतपुरम में सचिवालय तक पहुंच गए हैं.
'सबरीमला बचाव' अभियान के तहत केरल में ही नहीं अहमदाबाद और दिल्ली में भी प्रदर्शन किया गया. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाली गई है.
प्रदर्शनकारियों ने पहले राज्य सरकार से भी याचिका डालने की मांग की थी. अब उनका कहना है कि वह महिलाओं को मंदिर के अंदर नहीं जाने देंगे.
सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ये मामला गरमाया हुआ है. 12 साल के संघर्ष के बाद 28 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने 4-1 के बहुमत से महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने का फैसला सुनाया था.
तब कोर्ट ने कहा था कि सभी श्रद्धालुओं को पूजा का अधिकार है. उन्हें रोकने के दोतरफा नजरिए से महिला की गरिमा को ठेस पहुंचती है. सालों से चले आ रहे पितृसत्तात्मक नियम अब बदले जाने चाहिए.
फैसला लेने वाले चार जजों में शामिल जस्टिस इंदू मल्होत्रा प्रवेश के पक्ष में नहीं थीं. उनका कहना था कि कोर्ट को धार्मिक मान्यताओं में दख़ल नहीं देना चाहिए क्योंकि इसका दूसरे धार्मिक स्थलों पर भी असर पड़ेगा.
अब प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए हैं और उनमें महिलाएं बड़ी संख्या में हैं. उनके हाथ में झंडे में हैं और भगवान अयप्पा की तस्वीर. महिलाओं के पक्ष में आए इस फैसले का खुद महिलाएं ही विरोध कर रही हैं.
फैसले के विरोध में पहले भी 4000 से ज्यादा महिलाओं ने मार्च निकाला था. उनका कहना है कि सालों पुरानी परंपरा को नहीं तोड़ना चाहिए. इससे भगवान अयप्पा का अपमान होगा.
ऐसा पहली बार नहीं है जब बात महिलाओं के अधिकारों की हो और वो खुद उसके ख़िलाफ़ खड़ी हों.
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पहले भी सार्वजनिक तौर पर महिलाओं के अधिकारों की मांग होने पर महिलाएं ही उसके विरोध में आई हैं. फिर चाहे शनि शिंगणापुर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर रोक का मामला हो या तीन तलाक को अवैध करार देने का.
तब भी कई जगह महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन किए थे और इसे धर्म से छेड़छाड़ बताया था.
ये विरोध क्यों?
समान अधिकारों के इन मामलों में महिलाएं बंटी हुई नज़र आती हैं. लेकिन अपने ही अधिकारों की बात पर आखिर महिलाएं आमने-सामने क्यों होती हैं? किसी भी मुहिम पर इसका क्या असर पड़ता है.
इस पर सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन कहती हैं, ''महिलाएं ही महिलाओं के ख़िलाफ़ दिखती जरूर हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. दरअसल हम औरतें भी पितृसत्तात्मक सोच के प्रभाव में होती हैं. हमने बचपन से यही सीखा है. हम चांद पर तो पैदा नहीं हुए. हिंदुस्तान में पैदा हुए जहां कुछ लोगों ने कहा कि औरतें नापाक हैं, अपवित्र हैं इसलिए मंदिर-मस्जिदों में नहीं जा सकतीं. औरतें भी यही मानते हुए पलती-बढ़ती हैं.''
''ये बात घरों में भी दिखती है जहां सास-बहू के झगड़े उन बातों पर होते हैं जो महिलाओं के अधिकार से जुड़े हैं. कन्या भ्रूण हत्या तक में मां और सास की सहमति होती है. यही बात बड़े स्तर पर भी लागू हो जाती है. उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं है. फिर उनमें ये हिम्मत भी नहीं होती कि बड़े-बड़े पंडितों और मौलवियों को जवाब दे सकें.''
'एक-दूसरे की दुश्मन नहीं महिलाएं'
लोगों के बीच ये आम धारणा है कि महिलाएं ही महिलाओं की दुश्मन होती हैं. इस तरह वह आपस में ही टकराव की स्थिति में रहती हैं. घरों में भी सास-बहू की लड़ाई के असल ज़िंदगी से लेकर टीवी तक पर चर्चे होते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे महिलाओं को एक-दूसरे के दुश्मन की तरह देखने के नजरिये का विरोध करती हैं.
वह कहती हैं, ''ये बहुत पुरानी धारणा है कि महिला ही महिला की दुश्मन होती है. सच्चाई ये है कि मतभेद पुरुषों के बीच भी होते हैं. औरतों के बीच मतभेद को बहुत उभारा जाता है. अगर सास-बहू का झगड़ा है तो क्या पिता-पुत्र के झगड़े नहीं होते? लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है.''
''दूसरी बात ये है कि हमारा समाज एक कटोरा है जिसमें जो भी विचारधारा है वो सब लोग सोखते हैं. स्त्रियों में भी बहुत सारी ऐसी महिलाएं हैं जो पितृप्रधान मानसिकता को अपने अंदर सोख लेती हैं. इसी तरह कई पुरुष हैं जो ज्यादा संवेदनशील होते हैं और वो स्त्रियों की दृष्टि से भी स्थिति को देख सकते हैं. इसलिए ये महिलाओं का आपस में विरोध नहीं है.''
क्या बोलती हैं अन्य महिलाएं
जब हमने बीबीसी के लेडीज़ कोच ग्रुप में ये मसला उठाया तो कई महिलाओं ने भी इस पर अपनी राय रखी.
प्रीति खरवार ने कमेंट किया, ''ऐसी महिलाएं दरअसल मोहरा होती हैं, जिन्हें पितृसत्तात्मक समाज महिला अधिकारों के खिलाफ इस्तेमाल करता है. इसमें उन महिलाओं का भी पूरी तरह दोष नहीं होता क्योंकि सोशल कंडिशनिंग, परनिर्भरता, जागरुकता का अभाव और विभिन्न प्रकार के डर के कारण उनके पास निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता.''
करिश्मा राठौड़ लिखती हैं, ''जहां तक तीन तलाक वाली बात है तो मुझे लगता है कि कुछ महिलाएं पुरुषवादी सोच के कारण अपने संबंध मर्दों के अधीन जीने की आदि हो चुकी हैं.''
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वहीं, दामिनी वर्षा कहती हैं, ''दरअसल महिलाएं ही महिलाओं का विरोध इसलिए करती हैं क्योंकि वो मानसिक तौर पर पुरुषवादी ही हैं.''
अंध श्रद्धा के ज़रिए डराना
वहीं, शनि शिंगणापुर में प्रवेश के लिए अभियान चलाने वाली संस्था भूमाता ब्रिगेड की प्रमुख तृप्ति देसाई इसका एक और पक्ष सामने लाती हैं. वह कहती हैं कि एक रणनीति के तहत भी महिलाओं को उनके ही ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है.
सबरीमला मंदिर के मामले में भी कुछ हिंदू संगठन और राजनीतिक दल प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व कर रहे हैं. महिलाओं के हाथों में उनके झंडे देखे जा सकते हैं.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एक्टर और बीजेपी समर्थक कोल्लम थुलासी ने मंदिर में प्रवेश करने वाली महिलाओं को दो टुकड़ों में चीर देने की धमकी भी दी थी. उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई है.
तृप्ति देसाई बताती हैं, ''सुप्रीम कोर्ट महिलाओं को समानता का अधिकार देने के लिए सामने आया है. इसलिए धर्म के तथाकथित ठेकेदार कुछ महिलाओं को धर्म के नाम पर भड़काते हैं. जब महिलाएं मंदिर में प्रवेश करने जाएंगी, या अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगी तो ये महिलाओं को ही सामने कर देंगे. हमेशा वो खुद सामने नहीं आती हैं बल्कि उन्हें विरोध में खड़ा कर दिया जाता है.''
''उन्हें अंध श्रद्धा के नाम पर डराया जाता है जैसे अगर आप धर्म के ख़िलाफ़ महिलाओं का साथ देंगे तो साढ़े साती का प्रकोप हो जाएगा. गांव पर संकट आ जाएगा. जो इनसे डर जाती हैं वो खुद ही विरोध करने आगे आ जाती हैं.''
तृप्ति देसाई ने बीबीसी को बताया कि वह 17 अक्टूबर को सबरीमला मंदिर के द्वार खुलने के बाद महिलाओं के समूह के साथ मंदिर में प्रवेश करने जाएंगी. हालांकि, अभी कोई तारीख निश्चित नहीं है.
अभियान को कमज़ोर करने की कोशिश
लेकिन, ऐसा करने के पीछे मकसद क्या होता है और अगर महिलाएं ही विरोध करती हैं तो उसका क्या असर होता है.
इस पर तृप्ति देसाई कहती हैं, ''अगर महिलाएं ही विरोध करती हैं तो लोगों के मन में सवाल उठता है कि अगर महिलाओं के हित की बात है तो वो ही विरोध क्यों कर रही हैं. इससे आंदोलन कमजोर पड़ता है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने वालों का उद्देश्य महिलाओं के लिए आए सकारात्मक निर्णय को नकारात्मक करना है.''
वहीं, कमला भसीन कहती हैं कि पारंपरिक सोच के कारण महिलाएं सुरक्षा जैसे मसले पर भी एक नहीं हो पातीं. छोटे कपड़े क्यों पहने थे, समय पर घर क्यों नहीं आईं ऐसे सवाल वो खुद उठाती हैं.
वह महिलाओं के एक वर्ग के तौर पर इकट्ठा न हो पाने को इसकी बड़ी वजह मानती हैं.
जाति, धर्म, रिश्तों में बंटी महिलाएं
कमला भसीन कहती हैं, '''महिलाएं कभी एक वर्ग के तौर पर संगठित ही नहीं हो पाईं. औरत होने से पहले वह जाति, धर्म, अमीर-गरीब में बंट जाती हैं. उन पर दूसरे मामले हावी हो जाते हैं. हम परिवारों में भी बंटे हुए हैं. औरत की परिवार के प्रति निष्ठा के सामने महिला के प्रति निष्ठा कम पड़ जाती है. यह बहुत गहरा और उलझा हुआ है.''
''जैसे महिला को अगर कोई खतरा या जरूरत है तो परिवार ही सामने आता है, बाहर की कोई औरत नहीं. ना ही सरकारी संस्थाएं इतनी मजबूत हैं कि महिला को वहां से सहारा मिल सके. इसलिए वो कई मसलों पर परिवार का विरोध नहीं कर पातीं जबकि दूसरे वर्गों में उनका सामना किसी बाहरी से होता है परिवार से नहीं.
लेकिन, महिलाओं को वर्ग के रूप में संगठित कैसे किया जा सकता है. इसके जवाब में कमला भसीन कहती हैं कि महिलाओं को एक वर्ग के तौर पर संगठित करने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत है. जब नारीवाद इतना फैल जाएगा और हम एक-दूसरे की मदद करने लगेंगे तब ये संभव होगा.
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