नज़रिया: नरेंद्र मोदी को सरदार पटेल से इतना लगाव क्यों है?

  • घनश्याम शाह
  • वरिष्ठ गुजराती पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
सरदार पटेल

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नरेंद्र मोदी और सरदार पटेल के बीच सबसे कॉमन बात तो दोनों का गुजरात से होना ही है. देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और देश के दूसरे गुजराती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ही राज्य से आते हैं.

अगर आप नरेंद्र मोदी के 2003 के बाद से दिए भाषणों को सुनेंगे तो आप को पता चलेगा कि वे लगातार गुजरात और सरदार पटेल की बात करते रहे हैं. नरेंद्र मोदी खुद की छवि को मज़बूती से पेश करना चाहते रहे हैं और इसके लिए उन्हें एक नामचीन चेहरे की ज़रूरत भी थी.

सरदार पटेल उनके लिए वही चेहरा हैं क्योंकि पटेल का नाम गुजरात के आम लोगों के दिलोदिमाग में बसा हुआ है.

सरदार पटेल को लोग लौह पुरुष के नाम से जानते हैं, उनकी पहचान एक ऐसे नेता की रही है जो कठोर फ़ैसले लेने वाले नेता थे. उन्हें अच्छे शासन के लिए भी याद किया जाता है. मोदी खुद को सरदार पटेल जैसे गुणों वाले नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करते रहे हैं.

सरदार पटेल की बात को नरेंद्र मोदी 2003 से कहते आए हैं, लेकिन उनके नाम को मजबूती से उठाने का काम 2006 से उन्होंने शुरू किया. ये बदलाव 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की हार के बाद मोदी की रणनीति का हिस्सा बनता गया.

2005-06 में मोदी ने केंद्र सरकार पर गुजरात के साथ सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाया. इसके साथ ही उन्होंने नेहरू परिवार पर सरदार पटेल के साथ अन्याय करने को मुद्दा बनाना शुरू किया.

पटेल-मोदी

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अपनी इसी रणनीति के तहत मोदी ने बातों को तोड़मरोड़ कर नेहरू और सरदार पटेल के बीच तनाव की बात को हाइप देना शुरू किया. उन्होंने ये भी प्रचारित करना शुरू किया कि सरदार पटेल को उचित सम्मान नहीं मिला.

मोदी ने सरदार पटेल का नाम लेकर गुजरात की उपेक्षा के लिए कांग्रेस को कोसना जारी रखा.

महात्मा गांधी को सभी धर्मों के आपसी सद्भाव में विश्वास था. लेकिन इस मुद्दे पर गांधी और सरदार पटेल के बीच नज़रिए को लेकर थोड़ी भिन्नता थी.

पटेल और गांधी का विवाद

सरदार पटेल धार्मिक तौर हिंदू थे, यही वजह है कि मोदी उनको पसंद करते रहे हैं. सरदार पटेल मुस्लिमों को थोड़े शक से ज़रूर देखते थे, लेकिन उन्होंने कभी हिंदू राष्ट्र या हिंदुत्व की वकालत नहीं की थी.

सरदार पटेल देश के मुसलमानों को एकसमान नागरिक मानते थे, वे धार्मिक आधार पर देश का विभाजन भी नहीं चाहते थे.

दूसरी ओर गांधी हमेशा हिंदू संस्कृति, वेद, उपनिषद इत्यादि की बात करते रहे थे, सरदार पटेल ने सार्वजनिक तौर पर इन पर शायद ही कभी कुछ कहा. वे शायद ही कभी हिंदू संस्कृति की पौराणिक कथाओं से खुद को जोड़ पाते थे.

नेहरू और पटेल

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नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की विशालकाय मूर्ति बनवाने के लिए 3000 करोड़ रुपये ख़र्च किए हैं, लेकिन इससे स्थानीय किसानों और आदिवासी समुदाय को कोई फ़ायदा नहीं हुआ है.

ये मूर्ति जिस इलाक़े में स्थापित की गई है, उसमें सिंचाई की कोई सुविधा नहीं है. आदिवासियों के बीच ज़मीन बंटवारे का विवाद भी बना हुआ है, मोदी ने इन समस्याओं को सुलझाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है.

वैसे ये जानना दिलचस्प है कि सरदार पटेल हमेशा किसानों के हितों के लिए खड़े होते थे. उनका मानना था कि किसानों के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए. दिहाड़ी मज़दूर और श्रमिकों की मुश्किलों का हल भी वे देखते थे.

उनका इस बात में भी भरोसा था कि समाज के उच्च और निम्न तबके के बीच तनाव की कोई वजह नहीं होनी चाहिए. वे समाज के सभी तबकों के बीच आपसी सहयोग के हिमायती थे. वे ग़रीबों, आदिवासियों और दलितों के ख़िलाफ़ कभी नहीं थे.

लेकिन इन सबके साथ एक सच ये भी है कि वे इन वर्गों की समस्याओं को कभी प्राथमिकता के साथ नहीं देखते थे. मोदी भी वही कर रहे हैं.

मोदी क्या चाहते हैं?

गुजरात में पानी का संकट एक बड़ी समस्या है. जहां ये विशालकाय मूर्ति बनी है, वहां के किसानों की ज़मीन ली गई है. लेकिन नरेंद्र मोदी को इन सब बातों की शायद कोई परवाह नहीं है.

उनके लिए अपना ईगो सबसे महत्वपूर्ण है, इस ईगो के चलते ही उन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित करके दिखाई है.

मोदी ये भी चाहते हैं कि लोग उनका नाम सरदार पटेल की महान विरासत के साथ जोड़ें. साथ ही वे शायद ये भी चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी उन्हें पटेल के समकक्ष देखे.

नेहरू और पटेल

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कुछ विश्लेषकों का ये भी मानना है कि सरदार पटेल की विशालकाय मूर्ति बनाकर उन्होंने पाटीदारों के आक्रोश को कम करने की कोशिश की है. हालांकि ये इतना आसान नहीं होगा.

मोदी को ये भरोसा ज़रूर है कि पाटीदार अगले चुनाव में उन्हें ही वोट देंगे. लेकिन अगर हम सौराष्ट्र के किसानों की मुश्किलों को देखें तो वे बेहद खस्ताहाल दौर से गुजर रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में किसानों की नाराजगी बीजेपी के प्रति दिखी भी है.

ऐसे में केवल मूर्ति बनाकर मोदी पाटीदारों को खुश करने की उम्मीद में हैं तो यह इतना आसान नहीं होने वाला है.

संपन्न पाटीदारों का समर्थन मोदी को तो मिल रहा है, लेकिन खेती किसानी करने वाले पाटीदार उनका समर्थन नहीं करने वाले हैं. युवा पाटीदारों के बीच रोजगार का मुद्दा अलग से मोदी के प्रति नाराजगी बढ़ा रहा है.

वैसे भी गुजरात को छोड़कर, देश के दूसरे हिस्सों में शायद ही इस विशालकाय मूर्ति का कोई असर पड़ेगा. इसकी गुजरात के बाहर कितनी अहमियत होगी, कहना आसान नहीं.

इसलिए ये कहना है कि इस मूर्ति से नरेंद्र मोदी को अगले आम चुनाव में फ़ायदा होगा, सही नहीं होगा.

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