अनिल अंबानी: 45 अरब डॉलर से 2.5 अरब डॉलर तक का सफ़र

  • आलम श्रीनिवास
  • वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
अनिल अंबानी

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बात 2007 की है, अंबानी बंधुओं यानी मुकेश और अनिल में बँटवारे को दो साल हो गए थे.

उस साल की फ़ोर्ब्स की अमीरों की सूची में दोनों भाई, मुकेश और अनिल मालदारों की लिस्ट में काफ़ी ऊपर थे. बड़े भाई मुकेश, अनिल से थोड़े ज़्यादा अमीर थे. उस साल की सूची के मुताबिक़ अनिल अंबानी 45 अरब डॉलर के मालिक थे, और मुकेश 49 अरब डॉलर के.

दरअसल, 2008 में कई लोगों का मानना था कि छोटा भाई अपने बड़े भाई से आगे निकल जाएगा, ख़ास तौर पर रिलायंस पावर के पब्लिक इश्यु के आने से पहले.

माना जा रहा था कि उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना के एक शेयर की कीमत एक हज़ार रुपए तक पहुंच सकती है, अगर ऐसा हुआ होता तो अनिल वाक़ई मुकेश से आगे निकल जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

बहरहाल, लौटते हैं 2019 में. फ़ोर्ब्स की 2018 की रिच लिस्ट के मुताबिक, मुकेश अंबानी की दौलत में मामूली कमी हुई है, वे अब 47 अरब डॉलर के मालिक हैं, लेकिन 12 साल पहले 45 अरब डॉलर के मालिक अनिल अंबानी अब 2.5 अरब डॉलर के मालिक रह गए हैं. ब्लूमबर्ग इंडेक्स तो उनकी दौलत को सिर्फ़ 1.5 अरब डॉलर आंक रहा है.

एक दौर था जब दोनों भाइयों में ये साबित करने की होड़ थी कि धीरूभाई के सच्चे वारिस वही हैं, अब यह होड़ ख़त्म हो गई है और अनिल अपने बड़े भाई से बहुत पीछे रह गए हैं.

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उम्मीद जो पूरी न हो सकी

एक दशक पहले अनिल अंबानी सबसे अमीर भारतीय बनने के कगार पर थे. उनके तब के कारोबार और नए वेंचरों (उद्यमों) के बारे में कहा जा रहा था कि वे सारे धंधे आगे बढ़ रहे हैं और अनिल उनका पूरा फ़ायदा उठाने के लिए तैयार हैं.

आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ मानते रहे कि अनिल के पास विज़न और जोश है, वे 21वीं सदी के उद्यमी हैं और उनके नेतृत्व में भारत से एक बहुराष्ट्रीय कंपनी उभरेगी.

पूरी दुनिया मानो उनके कदमों में थी, दुनिया जीतने के लिए उन्हें चंद छोटे कदम बढ़ाने थे. ज़्यादातर लोगों को ऐसा लगता था कि अनिल अपने आलोचकों और बड़े भाई को ग़लत साबित करने जा रहे हैं. मगर ऐसा नहीं हो सका.

अनिल अंबानी अगर चमत्कारिक ढंग से नहीं उबरे तो दुर्भाग्यवश उन्हें भारत के कारोबारी इतिहास के सबसे नाकाम लोगों में गिना जाएगा. सिर्फ़ एक दशक में 45 अरब डॉलर की दौलत का डूब जाना कोई मामूली दुर्घटना नहीं है. उनकी कंपनी के शेयरधारकों को भारी झटका लगा है.

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अनिल अंबानी का कोई भी धंधा पनप नहीं पाया. उनके ऊपर भारी कर्ज़ है. अब वे कुछ नया शुरू करने की हालत में नहीं हैं. वे अपने ज़्यादातर कारोबार या तो बेच रहे हैं या फिर समेट रहे हैं. ऊपर से उन्हें रफ़ाल के रूप में जो नया ठेका मिला, वह भी विवादों में घिर गया है.

अनिल और मुकेश के पिता, धीरूभाई अंबानी का निधन 2002 में हुआ. उनके वक्त में कंपनी की तेज़ गति से विस्तार के चार अहम कारण थे- बड़ी परियोजनाओं का सफल प्रबंधन, सरकारों के साथ अच्छा तालमेल, मीडिया का प्रबंधन और निवेशकों की उम्मीदों को पूरा करना.

इन चार चीज़ों पर पूरा नियंत्रण करके कंपनी धीरूभाई के ज़माने में और उसके कुछ समय बाद भी तेज़ी से आगे बढ़ती रही. मुकेश अंबानी ने इन चारों बातों को ध्यान में रखा लेकिन किसी न किसी वजह से अनिल फिसलते चले गए.

क्या से क्या हो गया

धीरूभाई हमेशा जानते थे कि वे एक आर्थिक लहर पर सवार थे, उन्होंने उस लहर को साध लिया था, वे उससे नीचे नहीं उतर सकते थे. इसका मतलब ये था कि उन्हें बाकी उद्यमियों से आगे रहने के लिए, और लगातार आगे बढ़ते रहने के लिए अपार नकदी की निरंतर सप्लाई चाहिए थी ताकि रिलायंस के शेयर के भाव ऊँचे बने रहें और वे शेयरधारकों की उम्मीदों को पूरा करते रहें.

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2007-2008 के बीच मुकेश अंबानी को वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से भारी झटका लगा, उनकी दौलत में तकरीबन 60 प्रतिशत की गिरावट आई लेकिन वे इस गाढ़े वक्त से निकल आए और अपनी पुरानी पोज़ीशन के नज़दीक पहुंच गए और अब आगे बढ़ने की तैयारी में हैं.

अनिल एक बार जो फिसले, तो बस फिसलते ही चले गए. इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि उनके पास कोई दुधारू गाय नहीं थी यानी ऐसा कोई धंधा नहीं था जिससे लगातार कैश आता रहे.

2005 में जब भाइयों के बीच बँटवारा हुआ तो मुकेश के हिस्से में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ आई जो समूह की सबसे बड़ी कंपनी थी और भारी मुनाफ़ा देती थी.

अनिल के हाथ टेलीकॉम आया जिसके भरपूर विस्तार की संभावना थी लेकिन उसमें भारी शुरूआती निवेश की भी ज़रूरत थी. रिलायंस पावर कोई बहुत बड़ी कंपनी नहीं थी और उसे चलाने के लिए भी काफ़ी पूंजी चाहिए थी. रिलायंस फ़ाइनेंशियल सर्विस फ़ायदे का धंधा ज़रूर थी लेकिन बड़े भाई के हिस्से आई रिलायंस इंडस्ट्रीज़ से उसकी तुलना नहीं की जा सकती.

मुकेश का बिज़नेस पैसे बना रहा था जबकि अनिल के बिज़नेस को बढ़ने के लिए पैसों की ज़रूरत थी.

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अनिल अंबानी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं, उन्होंने बँटवारे के वक़्त एक शर्त मनवाई थी कि रिलायंस इंडस्ट्रीज़ से अनिल की कंपनी को गैस मिलती रहेगी. गैस की जो कीमत तय की गई वो बेहद सस्ती थी, इस तरह अनिल अंबानी ने अपने पावर प्लांटों के लिए सस्ते में कच्चे माल का इंतज़ाम कर लिया था. गैस की सस्ती कीमत वह जादू की छड़ी थी जिसकी वजह से उन्हें मुनाफ़ा होने की उम्मीद थी.

लेकिन यह अनिल का दुर्भाग्य था कि उनकी यह योजना राजनीति और अदालतों की चपेट में आ गई. केंद्र सरकार और उनके बड़े भाई उन्हें अदालत में ले गए.

2010 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि तेल और गैस राष्ट्रीय संपदा हैं, उन्हें किसे और किस कीमत पर बेचा जाए इसका निर्णय करने का अधिकार सिर्फ़ सरकार को है. रिलायंस इंडस्ट्रीज़ को अदालत ने आदेश दिया कि वह बाकी बिजली बनाने वाली कंपनियों को भी गैस बेचे.

इस फ़ैसले से अनिल अंबानी को गहरा धक्का लगा. वे बाज़ार से ऊँची कीमत पर तेल ख़रीदने पर मजबूर हो गए. इसकी वजह से भारी मुनाफ़ा और उसे निवेश करके आगे बढ़ने के उनके मंसूबे नाकाम हो गए.

इसके बाद अनिल अंबानी ने रिलायंस पावर का पब्लिक इश्यू लाकर बाज़ार से पैसा उगाहने की कोशिश की, निवेशकों में इस इश्यू को लेकर उत्साह भी था. शेयर 72 गुना ओवर सब्सक्राइब हुआ, ऐसा लगा कि अब सब ठीक हो रहा है.

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11 फ़रवरी 2018 को शेयर की लिस्टिंग हुई, शेयर 538 पर खुला, अपने अलॉटमेंट प्राइज़ 450 से 19 प्रतिशत ऊपर. उसके बाद पहले ही दिन इसमें गिरावट आनी शुरू हुई और शाम को बाज़ार बंद होते वक़्त 538 पर खुला शेयर 372.50 पर आ गया. कई लोगों के करोड़ों रुपए डूब गए. इन दिनों रिलायंस पावर का शेयर 12 रूपए भी पार नहीं कर पा रहा.

क़र्ज़ का बढ़ता बोझ

1980 और 1990 के बीच धीरूभाई रिलायंस ग्रुप के लिए बाज़ार से लगातार पैसा उठाते रहे, उनके शेयर की कीमतें हमेशा अच्छी रही और निवेशकों का भरोसा लगातार बना रहा.

मुकेश अंबानी ने मुनाफ़े से पिछले दशक में धुंधाधार तरीके से विस्तार किया. दूसरी ओर, गैस वाले मामले पर अदालत के फ़ैसले और रिलायंस पावर के शेयरों के भाव गिरने से अनिल की राह मुश्किल होती गई.

ऐसी हालत में अनिल अंबानी के पास देसी और विदेशी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से कर्ज़ लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया. 2000 से 2010 के दस सालों में जहां बड़ा भाई कारोबार में आगे बढ़ता गया, छोटे भाई की कंपनियों पर कर्ज़ चढ़ता गया. उनकी ज़्यादातर कंपनियां या तो समस्याओं से जूझ रही थीं, या फिर मामूली फ़ायदा कमा रही थीं.

आज हालत ये है कि उनकी कुछ कंपनियों ने दिवालिया घोषित किए जाने की अर्ज़ी लगा रखी है.

कुछ समय पहले तक शक्तिशाली और राजनीतिक दलों से संबंध रखने वाले कॉर्पोरेट घराने भारी कर्ज़ होने पर भी किसी तरह काम चला लेते थे, उनके लोन रिस्ट्रक्चर कर दिए जाते थे या उन्हें भुगतान के लिए मोहलत मिल जाती थी, लेकिन एनपीए अब एक राजनीतिक मामला बन चुका है. बैंकों की हालत बुरी है और माहौल ख़राब है.

अब कानूनों में बदलाव आया है, देनदार नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के ज़रिए कंपनियों को इन्सॉल्वेंट घोषित कराके लेनदार को रकम चुकता करने के लिए अदालत में घसीट सकते हैं. यही वजह है कि अनिल अंबानी के पास अपनी कंपनियों को बेचना या दिवालिया घोषित करने के सिवा कोई और विकल्प नहीं रह गया है.

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दोनों भाइयों की ख़ासियतें

जब धीरूभाई जीवित थे तो अनिल अंबानी को वित्त बाज़ार का स्मार्ट खिलाड़ी माना जाता था, उन्हें मार्केट वैल्यूएशन की आर्ट और साइंस दोनों का माहिर माना जाता था. उस दौर में बड़े भाई के मुकाबले उनकी शोहरत ज़्यादा थी. धीरूभाई के ज़माने में वित्तीय मामले अनिल और औद्योगिक मामले मुकेश संभालते थे.

अनिल अंबानी की आलोचना करने वालों का कहना है कि उनका ध्यान वित्तीय प्रबंधन पर अधिक रहा लेकिन उन्होंने अपने बड़े प्रोजेक्टों पर उतना फ़ोकस नहीं किया जितना मुकेश ने. अनिल अपने निवेशकों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाए क्योंकि औद्योगिक प्रबंधन जैसा होना चाहिए था वैसा नहीं हुआ, कई प्रोजेक्ट डिलीवर ही नहीं हो पाए.

रिलायंस पावर और टेलीकॉम में अनिल को घाटा हुआ है लेकिन उनकी दो और कंपनियां रिलायंस कैपिटल और रिलायंस इन्फ़्रास्ट्रक्चर अच्छी हालत में हैं इसलिए यह मानना ग़लत होगा कि वे खेल से बाहर हो गए हैं. इन दोनों कंपनियों के शेयर के भाव काफ़ी अच्छे हैं लेकिन अनिल की चुनौती ऐसी हालत में इनका आकार बड़ा करने की होगी.

बँटवारे की लड़ाई में दोनों भाइयों ने एक-दूसरे पर हर तरह के हमले किए, सरकार और मीडिया में कुछ समय तक दो खेमे हो गए, लेकिन धीरे-धीरे मुकेश अंबानी ने मीडिया शासन तंत्र से जुड़े लोगों को अपने पक्ष में कर लिया. इस लड़ाई में अनिल अंबानी ने कुछ नए दोस्त बनाए और कुछ दुश्मन भी. कुल मिलाकर, ज़्यादातर प्रभावशाली नेताओं, अफ़सरों और संपादकों ने अनिल के मुकाबले ज़्यादा सौम्य और शांत मुकेश का साथ देने का फ़ैसला किया.

एक्सटर्नल एलीमेंट यानी अपने नियंत्रण से बाहर की चीज़ों को प्रभावित करने का काम बँटवारे से पहले अनिल अंबानी किया करते थे. वे इसमें ख़ासे कामयाब भी थे लेकिन बँटवारे के बाद, ख़ास तौर पर 2010 के बाद से अनिल का पहले वाला जलवा नहीं रह गया.

आज जो हालात हैं, उनके लिए एक हद तक अनिल ख़ुद ज़िम्मेदार हैं, तो कुछ हद तक परिस्थितियां ज़िम्मेदार हैं जो उनके नियंत्रण में नहीं हैं. इसमें बड़ी भूमिका इसकी भी है कि वे अपने वादे नहीं निभा पाए.

वे लड़े-भिड़े, अलग हुए, वादे किए - बस अपने वादे और सपने पूरे नहीं कर पाए.

(वरिष्ठ पत्रकार आलम श्रीनिवास ने रिलायंस घराने पर मशहूर किताब 'अंबानी vs.अंबानी, स्ट्रॉम्स इन द सी विंड' लिखी है)

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