भारत-पाकिस्तान युद्ध से हो सकेगा कश्मीर की समस्या का समाधान?
- उदय भास्कर
- रक्षा विशेषज्ञ

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पुलवामा में 40 सीआरपीएफ जवानों की जान लेने वाला 14 फरवरी को हुआ चरमपंथी हमला दिल दहला देने वाला था. विस्फोट के बाद बचे बस के टुकड़े और दूर-दूर तक पड़े हुए शरीर के हिस्से बहुत भयानक थे.
कुछ ही घंटों में पाकिस्तान आधारित जैश-ए-मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली और जिस तरह यह हमला भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया पर दिखाया गया उससे देशभर में गुस्से और शोक का माहौल बन गया.
दिल्ली में प्रधानमंत्री ने कॉफिन में आए जवानों के मृत शरीर को श्रद्धांजलि दी जिसे टीवी पर देखते हुए लोगों में आक्रोश और बढ़ गया. इस आक्रोश से सरकार पर कुछ न कुछ करने का दबाव बढ़ता गया.
इनमें जो सबसे ज़्यादा जोशीली और आक्रोशित बातें कही जा रही हैं और वो हैं 'मुंह तोड़ जवाब' और 'ख़ून का बदला ख़ून'.
एक टीवी चैनल ने 40 जवानों की जान के बदले 4000 पाकिस्तानियों यानि एक के अनुपात में 100 की जान लेने तक की मांग कर डाली थी.
क्या भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध ज़रूरी है? पुलवामा हमले के बाद लोगों के मूड को देखते हुए यह क्या अनिवार्य है और क्या ये पाकिस्तान द्वारा समर्थित चरमपंथ जैसे बड़े और जटिल मसले का समाधान कर देगा?
मुझे लगता है कि भारत द्वारा किसी तरह का सैन्य जवाब देने की संभावना बहुत ज़्यादा है. हालांकि, यह कब और कैसे होगा यह काफी अटकलों का विषय है और हर रात कुछ टीवी चैनलों पर इस पर विचार किया जाता है.
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पाकिस्तान भी देगा जवाब और बढ़ेगा तनाव
लेकिन, क्या इससे पुलवामा हमले के बाद बने उत्तेजक माहौल में कुछ बदलाव होगा? मुझे डर है, पर नहीं, क्योंकि ये स्वाभाविक है कि भारत द्वारा की गई कोई भी सैन्य कार्रवाई के जवाब में पाकिस्तान भी प्रतिक्रिया करेगा और तनाव भी बढ़ेगा.
वहीं, दोनों देश परमाणु शक्ति संपन्न हैं और इस कारण वैश्विक समुदाय को इस युद्ध में दखल देना होगा और तब किसी भी तरह की मध्यस्थता करनी पड़ेगी.
लेकिन, सैन्य कार्रवाई मुख्य समस्या का समाधान नहीं करेगी. जैश-ए-मोहम्मद जैसे समूह को पाकिस्तान में संरक्षण हासिल है और कश्मीर के एक भारतीय युवा को ही ऐसा जानलेवा और ख़तरनाक कदम उठाने के लिए तैयार किया जा सकता है.
हकीकत यह है कि भारत 1990 से पाकिस्तान की ओर से छद्म युद्ध का सामना कर रहा है और ये युद्ध चरमपंथियों के ज़रिए चलाया जा रहा है. जिसके कारण भारत को चरमपंथी हमले झेलने पड़ते हैं.
आप भारत में पिछले 25 सालों में हुए चरमपंथी हमलों को देख सकते हैं. इनमें दिसंबर 2011 में भारतीय संसद पर हुआ हमला शामिल है जो वाजपेयी सरकार में हुआ था. इसके बाद नवंबर 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार में मुंबई पर चरमपंथी हमला हुआ और अब फरवरी 2019 में पुलवामा में जवानों पर हमला किया गया.
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कश्मीरियों की असहमति का फायदा
लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे चरमपंथी संगठनों को पाकिस्तानी खुफिया तंत्र यानि आईएसआई ने पोषित किया है और जैश ने जम्मू और कश्मीर में सबसे पहला हमला अप्रैल 2000 में किया था. उस समय श्रीनगर में भारतीय सेना के 15 कॉर्प्स मुख्यालय को निशाना बनाया गया था.
मैं यह बताना चाहता हूं कि पुलवामा एक भयावह और कई जानें लेने वाला हमला जरूर है लेकिन पहला चरमपंथी हमला नहीं है. वहीं, मौजूदा स्थितियों को देखते हुए यह आखिरी भी नहीं है.
मेरे ऐसा कहने का कारण है जम्मू और कश्मीर की आंतरिक सामाजिक-राजनीतिक स्थिति. आप कश्मीरी युवाओं की असहमति और नाराज़गी के बारे में पढ़ते होंगे. कुछ अलगाववादी नेताओं ने सीमा पार के सहयोग से इस असहमति का फायदा उठाया है.
बुरहान वानी (हथियार उठाने वाला कश्मीरी युवा जो मारा गया) की घटना के बाद घाटी के हालात ख़राब हो गए. हालात बिगड़ने का इससे पता चलता है कि सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी की घटनाएं होती हैं और सुरक्षा बलों में शामिल स्थानीय कश्मीरियों को छुट्टियों पर मार दिया जाता है.
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क्या होंगे युद्ध के नतीजे
मोदी सरकार के लिए दुख की बात है कि जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी के बीच हुए गठबंधन से भी वांछित परिणाम नहीं आए.
अभी जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल का शासन है और राज्य के दो स्थानीय दल पीडीपी और फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस राजनीतिक समाधान खोजने में सक्षम नहीं हैं और राज्य में फैले असंतोष को स्वीकार करते हैं.
युद्ध की स्थिति में जम्मू-कश्मीर के ये हालात और भी बुरे हो जाएंगे. किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई से सिर्फ जान-माल का नुकसान ही होगा. सेना के जवानों और आम लोगों की जान जाएगी.
बहुत जल्द पाकिस्तान दुश्मनी को बढ़ा देगा और इसके बाद आर्थिक हमले होने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता. वहीं, पाकिस्तान के साथ गुजरात सीमा के पास प्रमुख भारतीय हाइड्रोकार्बन फैसिलिटी की निकटता को देखते हुए इन परिसंपत्तियों को स्थायी नुकसान की आशंका को भी खारिज नहीं कर सकते.
कम शब्द में कहूं तो वास्तविक युद्ध खूनी, महंगा और मानव/आर्थिक क्षति के कारण कभी न भरपाई किया जा सकने वाला होगा.
अफसोस की पाकिस्तान के साथ युद्ध में अगर भारत जीत भी जाता है तो इससे कश्मीर समस्या का समाधान नहीं होने वाला है. बल्कि युद्ध पाकिस्तान के अंदर सेना की स्थिति और भारत-विरोधी गुटों को मजबूत करेगा.
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भारत के पास विकल्प
लेकिन, इसका ये मतलब नहीं है कि भारत के पास कोई रास्ता नहीं है और वो इसी तरह चरमपंथी हमले झेलने के लिए बेबस है. राजनयिक तौर पर कुछ विकल्प हैं और कुछ अनुकूल आर्थिक-वित्तीय परिस्थितियां हैं जिनके इस्तेमाल को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय स्वीकार सकता है.
हाल ही में धन शोधन तथा आतंकवादी वित्तीयन की समीक्षा करने वाली एफएटीएफ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) की पेरिस में हुई बैठक में पाकिस्तान को ग्रे सूची में रखा गया है. इसका मतलब यह है कि पाकिस्तान को आईएमएफ या विश्व बैंक से मिलने वाले ऋण प्रभावित होंगे. ये ऐसे रास्ते हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है.
जहां तक सैन्य क्षमता की बात है तो भारत को अपने समग्र खुफ़िया तंत्र को और मजबूत करने की ज़रूरत है. इस अंतर के बारे में विश्लेषकों द्वारा 1999 के कारगिल युद्ध के बाद से बताया गया है लेकिन अब भी इस पर ध्यान दिया जाना बाकी है.
जैसा कि फैशन में है कुछ गुप्त कार्रवाइयां की जा सकती हैं लेकिन उन्हें सार्वजनिक करने की ज़रूरत नहीं है.
अब देखना है कि आने वाले दिनों में क्या होता है. लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और इसके चलते कुछ करके दिखाने की कोशिश की जाएगी लेकिन उम्मीद है कि चुनावी फायदा के लिए देश युद्ध की तरफ़ न जाए. हालांकि, लोकतंत्र ऐसा करने के लिए बदनाम हैं.
अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और 2003 के इराक युद्ध को याद करें... हालांकि, ये सब बाद की बातें हैं.
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