1971 के भारत-पाक युद्ध ने इन कश्मीरियों की दुनिया ही पलट दी
- आमिर पीरज़ादा और फ़रहत जावेद
- बीबीसी संवाददाता

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1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध को क़रीब 50 साल होने वालेहैं, लेकिन इस युद्ध के ज़ख़्म आज तक भरे नहीं हैं.
दो परमाणु सशस्त्र पड़ोसी मुल्क़ों के बीच 13 दिन तक यह युद्ध चला था. इस उपमहाद्वीप को उस युद्ध की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी और सबसे ज़्यादा उन लोगों को, जो युद्ध के कारण बिछड़ गए.
ये ऐसे ही लोगों की कहानी है, जो 1971 के युद्ध के दौरान अलग हुए और फिर कभी भी उन्हें मिलने की अनुमति नहीं मिल पाई.
भारत प्रशासित कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के सुदूर उत्तर में ऐसे ही चार गाँव स्थित हैं, जो युद्ध के दौरान भारत के क़ब्ज़े में आए थे. इनका नाम है- तुरतुक, त्याक्शी, चलूंका और थांग.
छोटे-छोटे इन चार गाँवों तक पहुँचना आसान नहीं है. ये गाँव लद्दाख क्षेत्र की नुब्रा घाटी में सबसे दूर स्थित हैं. इनके एक तरफ श्योक नदी बहती है और दूसरी तरफ कराकोरम पर्वत शृंखला की ऊँची चोटियाँ हैं.

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कराकोरम पर्वत श्रृंखला
लद्दाख यूँ तो बौद्ध बहुल क्षेत्र है, लेकिन इन गाँवों में नूरबख़्शिया मुसलमान रहते हैं जो बाल्टी भाषा बोलते हैं.
बाल्टी तक नस्लीय समूह हैं, जिनके पूर्वज तिब्बती थे और बाल्टी भाषा मूल रूप से एक तिब्बती भाषा है.
1971 तक ये चारों गाँव पाकिस्तान का हिस्सा थे, लेकिन भारत-पाक युद्ध ने इन गाँवों की पहचान बदल दी.
2010 तक इन गाँवों को बाहरी लोगों के लिए बंद रखा गया था. हालांकि इनमें से एक तुरतुक गाँव ऐसा था, जहाँ कुछ बाहरी लोगों को आने-जाने की अनुमति दे दी जाती थी.

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चलूंका गांव में काम करती किसान महिलाएं
भारत-पाक युद्ध के कारण कितने परिवार बिछड़े, इसकी कोई आधिकारिक संख्या तो उपलब्ध नहीं है. लेकिन इन गाँव वालों का दावा है कि 250 से ज़्यादा परिवारों को युद्ध के कारण अलग होना पड़ा था.
इनमें से कई परिवार ये दावा करते हैं कि इन्होंने दोनों तरफ़ यानी भारत और पाकिस्तान में अपनों से मिलने के लिए वीज़ा का आवेदन किया, लेकिन हर बार उसे ठुकरा दिया गया.
हालांकि यहाँ 23 लोग ऐसे हैं, जिन्हें अपनों से मिलने के लिए सरहद पार जाने का वीज़ा मिल चुका है.

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वे लोग बताते हैं कि जब भारत सरकार पाकिस्तान जाने का वीज़ा देती है तो सीमा पार करने के लिए उन्हें पंजाब जाना पड़ता है. इसके बाद जब वो पाकिस्तान में दाख़िल होते हैं तो वहाँ उन्हें एक दूसरा परमिट लेना पड़ता है ताकि वो पाकिस्तान के बाल्टिस्तान क्षेत्र में जा सकें. यह सब करने में जितना ख़र्च आता है वो अधिकांश गाँव वालों की हैसियत से बहुत ज़्यादा है क्योंकि इस क्षेत्र में रहने वाले बेहद मामूली किसान परिवार हैं.
गाँव के कुछ लोग पाँच मील की दूरी पर स्थित एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि हमारे रिश्तेदार वहाँ रहते हैं. लेकिन बीच से गुज़रने वाला भारत-पाक बॉर्डर अपनों को दो हिस्सों में बांट देता है.

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खेतों में काम करती महिला
ये लोग अब फ़ोन से भी पाकिस्तान में रह रहे अपने परिवार वालों से बात नहीं कर सकते, क्योंकि भारत प्रशासित कश्मीर से पाकिस्तान को जाने वाली सभी फ़ोन कॉल ब्लॉक कर दी गई हैं.
इन गाँवों में इंटरनेट की सुविधा अभी तक किसी ख़्वाब की तरह ही है. यहाँ कुछ लोग हैं जो पास के किसी क़स्बे तक जाते हैं और वहाँ से वॉट्सऐप कॉल करने का प्रयास करते हैं. लेकिन यह भी सब कर पाएं, ऐसा नहीं है.

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चलूंका गांव
जब गाँव में घुसी भारतीय फ़ौज
क़रीब 65 वर्षीय हबीबा कहती हैं, "48 साल हो गए जब आख़िरी बार मैंने अपने भाई ग़ुलाम को देखा था. मैं उसे देखे बिना मरना नहीं चाहती."
हबीबा के भाई ग़ुलाम क़ादिर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के सकुर्दू गाँव में रहते हैं और वो भारत प्रशासित कश्मीर के त्याक्शी गाँव में.
16 दिसंबर 1971 को जब भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तानी गाँव त्याक्शी को कब्ज़े में लिया तब ग़ुलाम क़ादिर अपने परिवार से बिछड़ गए.
हबीबा कहती हैं, "जब युद्ध शुरू हुआ तो मेरा भाई जो पाकिस्तानी फ़ौज में एक सैनिक है, अपनी ड्यूटी के लिए गया था."

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हबीबा
वो बताती हैं कि त्याक्शी गाँव को युद्ध शुरू होने के कुछ दिन बाद ही भारतीय फ़ौज ने कब्ज़े में ले लिया था.
वो याद करती हैं, "जिस रात भारतीय फ़ौज गाँव में आई, हम बहुत डरे हुए थे. हमें नहीं पता था कि वो क्या करेंगे. इस डर से हम कई दिनों तक अपने घरों से बाहर नहीं निकले."
श्योक नदी की ओर देखते हुए हबीबा हमें यह सब बताती रहीं और इस दौरान थोड़े समय के लिए भी उनके आँसू नहीं रुके.

हबीबा के भाई ग़ुलाम क़ादिर
उन्होंने कहा, "जब हम भारत के कब्ज़े में आए तो मन में यह उम्मीद थी कि एक दिन भाई भी घर लौट आएगा. लेकिन 48 साल हो गए. हमारी निगाहें उसके इंतज़ार में थक गईं. वो नहीं लौट पाया."
क़ादिर के पीछे उनकी बहन, पत्नी, माँ और परिवार के कई अन्य सदस्य त्याक्शी गाँव में ही छूट गए थे. हबीबा कहती हैं, "मेरी माँ बेटे को देखने के इंतज़ार में चल बसीं. पर हम उन्हें मिलवा नहीं पाए."

ग़ुलाम क़ादिर
हबीबा पास की ही एक चोटी की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, "एक दिन क़ादिर सफ़ेद झंडा लेकर वहाँ आया था. तब उसकी मुलाक़ात अपनी पत्नी बानो से हुई थी. उसने बानो को अपने साथ पाकिस्तान चलने के लिए काफ़ी मनाया. लेकिन बानो डर गई और उसने कह दिया कि अगर वो पाकिस्तान गई तो भारतीय फ़ौज परिवार के अन्य सदस्यों को उठा ले जाएगी, पूछताछ करेगी और तंग करेगी."

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दोनों की तक़दीर में कुछ और था
ग़ुलाम क़ादिर के छोटे भाई शमशेर अली ने अपनी भाभी बानो को बड़े भाई के पास भेजने की बहुत कोशिशें की थीं. लेकिन उनकी तक़दीर में कुछ और ही था.
हबीबा बताती हैं, "हम बानो को श्रीनगर लेकर गए थे ताकि उसका पासपोर्ट बन सके. फिर दिल्ली भी गए. लेकिन पासपोर्ट देने से सरकार ने इनकार कर दिया."
ग़ुलाम क़ादिर और बानो, क़रीब 12 सालों तक एक-दूसरे से अलग रहे और 1983 में हुई एक घटना ने सब कुछ बदल दिया.

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ग़ुलाम क़ादिर के छोटे भाई शमशेर अली
हबीबा बताती हैं, "24 अगस्त 1983 के दिन बानो श्योक नदी में बह गईं. हम कई दिनों तक उनकी लाश को ढूंढते रहे. लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ. फिर पाकिस्तानी आर्मी पोस्ट के ज़रिए भारतीय फ़ौज ने एक संदेश भेजा कि एक महिला नदी में बह गई हैं, अगर उनका शव मिले तो उसे दफ़ना दिया जाए."
क़रीब दस दिन बाद पाकिस्तान में ग़ुलाम क़ादिर को अपनी पत्नी का शव श्योक नदी के घाट पर मिला और उन्हें पाकिस्तानी ज़मीन में दफ़नाया गया.
शमशेर अली कहते हैं, "ये बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि दोनों मियाँ-बीवी जीते जी कभी मिल नहीं पाए. और जब मुलाक़ात हुई भी तो एक के गुज़र जाने के बाद."

शमशेर कहते हैं कि वो भी पाकिस्तानी वीज़ा के लिए आवेदन कर चुके हैं जो उन्हें नहीं दिया गया. लेकिन 18 वर्षों के बाद उन्हें अपने भाई से मिलने का एक रास्ता मिला.
अली कहते हैं, "एक दिन मुझे अपने भाई क़ादिर की चिट्ठी मिली कि वो हज के लिए जा रहे हैं. तो मैंने भी पैसे इकट्ठा किए और 1989 में मक्का शहर में हमारी मुलाक़ात हो पाई."
शमशेर कहते हैं, "मैं बूढ़ा हो चुका हूँ. मेरी उम्र के कुछ अपने लोग जो सरहद के पार हैं, वो गुज़र चुके हैं. मैं बस अपने भाई क़ादिर और उसके बच्चों को देखना चाहता हूँ. उनके साथ बैठकर बात करना चाहता हूँ."

पाकिस्तान
क़ादिर किस हाल में हैं?
ग़ुलाम क़ादिर अब रिटायर हो चुके हैं. वो पाकिस्तानी फ़ौज में सूबेदार के पद पर थे.
वो कहते हैं, "मैं और बानो क़रीब 12 साल तक ये ख़्वाब देखते रहे कि हम एक दिन ज़रूर मिलेंगे. और एक दिन ये श्योक उसके शव को मुझ तक लेकर आई."
1971 के युद्ध के दौरान ग़ुलाम क़ादिर सियाचिन ग्लेशियर के दूरदराज़ इलाक़े में तैनात थे. वो बताते हैं, "मैं फ़्रंट लाइन पर मोर्चा संभाले हुए था. तभी मेरे एक साथी ने मुझे बताया कि मेरे इलाक़े के कुछ गाँवों पर भारतीय फ़ौज ने कब्ज़ा कर लिया है."

हबीबा के भाई ग़ुलाम क़ादिर
शुरुआत में क़ादिर को लगा था कि युद्ध थमने के बाद स्थिति वापस ठीक हो जाएगी, वो अपने घर लौट पाएंगे और परिवार से मिल सकेंगे या कम से कम कुछ किलोमीटर की दूरी पर रह रहे उनके परिवार के लोगों को उनसे पाकिस्तान में मिलने की इजाज़त दे दी जाएगी.
दोनों देशों के बीच युद्ध तो कुछ दिन बाद थम गया, लेकिन क़ादिर की तरह अन्य परिवारों के लिए यह युद्ध जीवन भर के ज़ख़्म दे गया.
चिट्ठियों के ज़रिए परिवारों में बात होती रही, लेकिन क़ादिर अपनी माँ को दोबारा देख नहीं पाए.
बानो की मौत के बाद क़ादिर ने सकुर्दू गाँव में दूसरी शादी कर ली.
उनके छोटे से क़मरे में कुछ काली-सफ़ेद तस्वीरें टंगी हैं जो उनकी माँ ने चिट्ठियों के साथ उन्हें भेजी थीं. क़ादिर के पास अपने परिवार की अमानत के तौर पर अब बस ये तस्वीरें ही बची हैं.

'फ़ोन पर सुनी माँ की आवाज़ और बस रोता रहा'
वो दो दशक पहले अपनी माँ से फ़ोन पर हुई बातचीत को याद करते हुए कहते हैं, "मुझे एक फ़ोन कॉल आई तो दूसरी ओर से जो आवाज़ सुनाई दी, वो मेरी माँ की आवाज़ थी. दोनों एक दूसरे की आवाज़ सुनकर बस रोते रहे और फ़ोन कट गया. मैं उन्हें वापस कॉल नहीं कर पाया क्योंकि यहाँ से भारत फ़ोन मिलाने पर बैन है."
अपने कांपते हुए हाथों से ग़ुलाम क़ादिर एक तस्वीर उठाते हैं. वो उसे चूमते हैं और उनकी आँखों से मोटी-मोटी बूंदें गिरने लगती हैं.
वो कहते हैं, "मेरे मन का ये मलाल अब मेरे साथ ही जाएगा कि अपनी माँ के जीते जी मैं उसके साथ नहीं रह पाया. पर उसकी ये तस्वीर मैं अपने साथ रखता हूँ. मैंने आज तक ऐसी कोई दुआ नहीं की जिसमें उसे याद ना किया हो. पर उसकी तस्वीर को देखते-देखते जीवन ख़त्म हो जाएगा, इस तक़लीफ़ को मैं किसी से बयां नहीं कर सकता."

फ़ौज से रिटायर होने के बाद क़ादिर ने भी कई अन्य परिवारों की तरह शहरों में होने वाले प्रदर्शनों में शामिल होना शुरू किया है. इन लोगों की माँग है कि सरकार इन चार गाँवों को पाकिस्तान से जोड़ने वाली सड़क को खोल दे.
क़ादिर दावा करते हैं कि वो इस माँग को लेकर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो से भी मिल चुके हैं.
उन्होंने बताया, "भुट्टो ने हमसे कहा था कि इन गाँवों को वापस लाने के लिए पाकिस्तान को या तो दूसरा युद्ध लड़ना पड़ेगा या फिर दोनों देशों के बीच सौदेबाज़ी होगी जो काफ़ी लंबी चल सकती है. पर उन्होंने कुछ नहीं किया. मैं सरकार और नेताओं को चिट्ठियाँ लिखते-लिखते थक चुका हूँ."
वो अंत में कहते हैं, "मैं अपने परिवार से सपनों में मिलता हूँ. मैं सपनों में उनसे बात करता हूँ. क्योंकि ना तो भारत और ना ही पाकिस्तान की सरकार मुझे ऐसा करने से रोक सकती है. है मजाल तो रोक लें?"

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चलूंका गाँव जहाँ 1971 में बरसे थे बम
दिसंबर 1971 तक पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के बाल्टिस्तान प्रांत का चलूंका गाँव पाकिस्तान के पास था.
लेकिन 15 दिसंबर 1971 की रात पाकिस्तान के चार गाँवों (तुरतुक, त्याक्शी, चलूंका और थांग) पर भारतीय फ़ौज ने कब्ज़ा कर लिया.
इस गाँव में रहने वाले 60 वर्षीय अब्बास अली कहते हैं, "1971 के युद्ध के दौरान चलूंका गाँव में भारत और पाकिस्तान, दोनों ही तरफ से कई बम गिरे थे. एक घर पर तो एक साथ तीन बम गिरे थे. पूरे गाँव को लग रहा था कि सब कुछ तबाह हो जाएगा."
1971 में अब्बास 12 वर्ष के थे. लेकिन युद्ध की यादें उनके ज़ेहन में आज तक ताज़ा हैं.

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अब्बास अली
अपने गाँव में वो गोबा के नाम से जाने जाते हैं. बाल्टी भाषा में गोबा का मतलब नेता होता है और वो गाँव के प्रधान हैं भी.
गाँव में होने वाले सभी विकास कार्यों के लिए अब्बास ही ज़िम्मेदार हैं.
वो कहते हैं, "जब युद्ध शुरू हुआ तो गाँव के लोग घर छोड़कर जाने लगे. पाकिस्तानी फ़ौज भी चाहती थी कि जब तक युद्ध ख़त्म नहीं होता, लोग सुरक्षित जगहों पर चले जाएं. इसलिए ज़्यादातर लोग पास के ही फ़रानो गाँव में चले गए. लेकिन मेरे परिवार के साथ-साथ कुछ परिवारों ने पास के ही अन्य गाँव त्याक्शी में शरण ली."
कैसे वो गाँव में अकेले रह गए थे और गाँव के हालात कैसे थे, यह बताते हुए अब्बास की आँखें भर आती हैं.

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अब्बास अली की पत्नी
वो कहते हैं, "जब स्थिति सामान्य हुई तो हमें पता चला कि गाँव में रहने वाले बस दो ही परिवार थे जो भारत में रह गए थे. बाक़ी 74 परिवार पाकिस्तान के फ़रानो पहुँच गए."
अब फ़रानो और हमारे गाँव के बीच सरहद है और गाँव के किसी भी सदस्य को वापस आने की अनुमति नहीं मिली.
वो कहते हैं, "मेरे पिता अपने गाँव के लोगों के बारे में बात करते-करते गुज़र गए. वो हमेशा उन लोगों को याद करते थे. दोनों तरफ़ कई सालों तक लोग मिलने का इंतज़ार करते रहे. पर अब लोगों को समझ आ गया है कि दोनों देशों के बीच चीज़ें सामान्य नहीं होंगे और उम्मीदें टूट चुकी हैं."
चलूंका गाँव में कराकोरम के पत्थरों से बने घर (खँडहर) हैं जो वर्षों से खाली हैं. इन घरों के बाशिंदे कभी यहाँ नहीं लौट पाए.
इनमें से कुछ घरों को भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से इस इलाक़े में मज़दूरी या कंस्ट्रक्शन के काम के लिए पहुँचे मजदूरों के लिए खोला गया है. कुछ घरों में अन्य गाँवों के शरणार्थी रहने लगे हैं. लेकिन मकानों के मालिकान सरहद के उस तरफ अपनों से मिलने को आज भी बेताब हैं.

चलूंका के लोग, जो वापस नहीं लौटे
1971 में चो जवान थे. वो बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने उनसे कहा कि वो सीमा से दूर किसी और गाँव में चले जाएं.
चो कहते हैं, "हम तीन दिन तक अपने घर में रहे. फिर हम पर शेलिंग होने लगी. भारतीय सेना ने हमारे घरों पर बम बरसाने शुरू कर दिए और फिर हम घर छोड़कर तुरतुक के लिए निकल पड़े, जो क़रीब छह मील दूर था."
उनके मुताबिक़, "उस वक्त ठंड थी और लगातार बारिश हो रही थी. हम कई दिनों तक चलते रहे. जब बारिश होती तो हम बड़ी चट्टानों के नीचे पनाह ले लेते. हमने तीन और गाँवों को पार किया, इसके बाद फ़रानो गाँव में रुके. हमें वहाँ कहा गया कि अब हम अपने गाँव नहीं जा सकते क्योंकि अब एक नया बॉर्डर बन चुका है."
फ़रानो अब पाकिस्तान का आख़िरी सीमावर्ती गाँव है.

यहाँ सेना की भारी मौजूदगी है और मीडिया को इलाक़े में जाने की इजाज़त नहीं है.
चो और उनके साथी गाँव वाले सात साल तक वहाँ टेंट बनाकर रहे.
वो नई सीमा खुलने का इंतज़ार कर रहे थे, ताकि वो वापस अपने गाँव और अपने घर जा सकें.
लेकिन उनकी ये उम्मीद कभी पूरी नहीं हुई. आख़िरकार उन्होंने एक बेहतर जगह जाने का फ़ैसला किया और वहाँ जाकर एक अस्थायी घर बनाया. लेकिन बॉर्डर खुलने का इंतज़ार उन्हें वहाँ भी रहा.

चो कहते हैं, "बाद में हम में से आधे लोग काम की तलाश में पाकिस्तान के अलग-अलग शहरों में चले गए और बाक़ी बचे लोग घर बनाने में जुट गए."
कुछ और साल यहाँ रहने के बाद, उन्हें अहसास हुआ कि सीमा अब कभी नहीं खुलेगी, इसके बाद वो लोग दूसरे शहरों की ओर रुख़ करने लगे.
चलूंका 16 दिसंबर 1971 तक पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान का आख़िरी गाँव था.

370 हटने के बाद इन परिवारों के लिए क्या बदला
5 अगस्त 2019 को भारत की सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा दिया जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा और स्वायत्त शक्तियां देता था.
अनुच्छेद-370 हटाने के फ़ैसले के बाद भारत सरकार ने राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया और इसे केंद्र शासित प्रदेश - 'जम्मू और कश्मीर' और 'लद्दाख' बना दिया.
बिछड़े हुए परिवारों के चार गाँव अब केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का हिस्सा हैं जो एक बौद्ध बहुल इलाक़ा है.
त्याक्शी गाँव के ग़ुलाम हुसैन एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वो 1997 से लद्दाख में बाल्टी समुदाय के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं.

उन्होंने कुछ और लोगों के साथ मिलकर बिछड़े हुए परिवारों को ऑडियो और वीडियो मैसेज के ज़रिए पाकिस्तान में मौजूद उनके रिश्तेदारों से जोड़ने का काम किया है.
उन्होंने यह सब इंटरनेट सेवा और टेप्स की मदद से किया.
वो कहते हैं, "मैं अपनों से बिछड़ने का दर्द समझता हूँ. मेरे ख़ुद के रिश्तेदार सीमा के उस पर रहते हैं. इसलिए मैं कम से कम वीडियो या ऑडियो मैसेज के ज़रिए उन परिवारों को मिलवाना चाहता था."

पाकिस्तान
अब इन गाँवों के लोगों के दिलों में डर बैठ गया है, पांच अगस्त को अनुच्छेद-370 हटाए जाने के बाद से अपने परिवार वालों से मिलने की उनकी उम्मीद टूट गई है.
हुसैन कहते हैं, "इससे पहले कश्मीर के नेता भारत और पाकिस्तान के बीच के रास्ते खुलने की बात करते थे, दोनों क्षेत्रों के बीच व्यापार शुरू होने की बात करते थे, लेकिन अब ये नहीं हो रहा है."
"हम भारत और पाकिस्तान की राजनीति के बीच पिस गए हैं. जब भी हालात सुधरने की उम्मीद जगती है, तभी अचानक दोनों देशों के बीच कुछ हो जाता है और हमारी अपने परिवारों से मिलने की उम्मीद और धुंधली पड़ जाती है."
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