कोरोना वायरस: ऐसे कैसे पढ़ेगा इंडिया
- गुरप्रीत सैनी
- बीबीसी हिंदी

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स्कूली बच्चे
लॉकडाउन की वजह से भावना की दोनों बेटियां स्कूल नहीं जा पा रही हैं. उनका स्कूल ऑनलाइन क्लासेस के ज़रिए घर में ही पढ़ाई करवा रहा है. लेकिन भावना के घर में एक ही लैपटॉप है. उन्हें वर्क फ्रॉम होम भी करना है और दोनों बेटियों की अलग-अलग ऑनलाइन क्लास भी है. बेटियां स्मार्ट फोन से क्लास नहीं लेना चाहतीं, क्योंकि क्लास के दौरान शेयर स्क्रीन भी करनी होती है. जिसमें उनका कहना है कि दिक्क़त आती है.
पूरे देश में लॉकडाउन होने की वजह से बहुत-से माता-पिता बच्चों की पढ़ाई में इस तरह की परेशानी से जूझ रहे हैं.
नोएडा स्थित विश्व भारती पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल विरा पांडेय कहती हैं कि कुछ मां-बाप ऐसी परेशानी बता रहे हैं, लेकिन हम क्लासेस की रिकॉर्डिंग भी करते हैं, जो वो बाद में भी देख सकते हैं. इसके अलावा व्हाट्सऐप के ज़रिए और फेसबुक पर क्लोस्ड ग्रुप बनाकर भी क्लासेस ले रहे हैं.
कई प्राइवेट स्कूल ज़ूम और माइक्रोसोफ्ट टीम जैसे प्लेटफॉर्म के ज़रिए क्लासेस ले रहे हैं. दीक्षा और स्वयं जैसे पोर्टलों पर कई भाषाओं में लेसन पढ़े जा सकते हैं.
लेकिन एक सर्वे के मुताबिक हर पांच में से दो माता-पिता के पास बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस के सेटअप के लिए ज़रूरी सामान ही नहीं है.
लोकल सर्कल नाम की एक संस्था के हालिया सर्वे में 203 ज़िलों के 23 हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया. जिनमें से 43% लोगों ने कहा कि बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस के लिए उनके पास कम्प्यूटर, टेबलेट, प्रिंटर, राउटर जैसी चीज़ें नहीं है.
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स्कूली बच्चे
'ज़रूरी सामानों की श्रेणी में डाला जाए'
लोकल सर्कल के जनरल मैनेजर अक्षय गुप्ता ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा, "दिक्कत सिर्फ इंटरनेट की सुविधा या लैपटॉप, टेबलेट की नहीं है. दिक्कत ये है कि इस वक्त ज़्यादातर लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं. लोगों का कहना है कि हमारे पास एक ही लैपटॉप है. जिससे या बच्चे की पढ़ाई का नुकसान होगा या उनके काम का."
अक्षय बताते हैं कि उनकी संस्था ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रमुख सचिवों को चिट्ठी लिखकर अपील की है कि ज़रूरी चीज़ों की श्रेणी में बच्चों की पढ़ाई के लिए कम्प्यूटर, लैपटॉप, राउटर, प्रिटंर, पेपर जैसी चीज़ों को भी डाला जाए और मां-बाप को ई-कॉमर्स वेबसाइट के ज़रिए इन्हें खरीदने की अनुमति दी जाए.
आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की परेशानी
वहीं आर्थिक रूप से कमज़ोर स्कूली बच्चों की परेशानी इससे बिल्कुल अलग है. लैपटॉप, टेबलेट जैसे उपकरणों के आभाव में वो ऑनलाइन पढ़ाई में कहीं पीछे छूटते दिख रहे हैं.
दिल्ली के सुभाष नगर स्थित सर्वेदय बाल विद्यालय के प्रिंसिपल जोगिंदर अरोड़ा कहते हैं कि उनके स्कूल में 1500 से ज़्यादा बच्चे पढ़ते हैं, जो अधिकतर गरीब परिवारों के हैं और नज़दीक के तिहाड़ गांव से आते हैं. 90 प्रतिशत बच्चों के घर की आय दो-ढाई लाख से कम है.
जोगिंदर अरोड़ा ने बीबीसी हिंदी से कहा, "ऑनलाइन पढ़ाई में गरीब बच्चों के लिए कई सारी चुनौतियां हैं. हो सकता है, उनके पास स्मार्ट फोन या लैपटॉप ना हो. इंटरनेट की सुविधा ना हो और वो इन उपकरणों को ठीक से इस्तेमाल करना ना जानते हों."
उनके मताबिक़, जो ग़रीब परिवार दिल्ली जैसे बड़े शहरों से पलायन करके गए हैं, उनमें भी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे होंगे.
ई-लर्निंग की तरफ़ भारत सरकार का क़दम
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधिकारी अमित खरे ने 20 मार्च को प्रमुख सचिव को चिट्ठी लिखकर कहा था कि कोविड-19 के प्रकोप की वजह से सभी शिक्षा संस्थान बंद हैं. इसलिए डिजिटल लर्निंग को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है, ताकि छात्र मौजूदा डिजिटल/ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर अपनी पढ़ाई जारी रख सकें.
उन्होंने एचआरडी मंत्रालय की ओर से ऑनलाइन एजुकेशन के लिए मुहैया कराए जाने वाले प्रमुख डिजिटल/ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म की जानकारी भी दी.
दीक्षा: इसमें पहली से 12वीं कक्षा तक के लिए सीबीएसई, एनसीईआरटी, और स्टेट/यूटी की ओर से बनाई गईं अलग-अलग भाषाएं में 80 हज़ार से ज़्यादा ई-बुक्स हैं. इसका ऐप डाउनलोड किया जा सकता है.
ई-पाठशाला: इस वेब पोर्टल में कक्षा पहली से 12वीं तक के लिए एनसीईआरटी ने अलग-अलग भाषाओं में 1886 ऑडियो, 2000 वीडियो, 696 ई-बुक्स डाली है.
नेशनल रिपोसिटरी ऑफ ओपन एजुकेशनल रिसोर्सेस (NROER) : इस पोर्टल में कुल 14527 फाइल्स हैं, जिसमें अलग-अलग भाषाओं में ऑडियो, वीडियो, डॉक्यूमेंट, तस्वीरें, इंटरेक्टिव शामिल हैं.
स्वयं: ये नेशनल ऑनलाइन एजुकेशन प्लेटफॉर्म है. जिसमें 11वीं-12वीं कक्षा और अंडर ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट दोनों ही तरह के छात्रों के लिए सभी विषयों में 1900 कोर्स हैं.
ग्रामीण इलाक़ों की परेशानी
सरकार ने छात्रों के लिए ये तमाम मुफ्त ऑनलाइन सुविधाएं दी हैं लेकिन सच्चाई ये है कि ग्रामीण इलाक़ों में प्रति सौ लोगों पर केवल 21.76 व्यक्ति के पास इंटरनेट है तो ये छात्र पढ़ेंगे कहां?
यूनिसेफ के साथ जुड़े शिक्षा विशेषज्ञ शेषागिरी के एम कहते हैं कि ऑनलाइन ज़रूर एक पावरफुल माध्यम है, लेकिन इस तरह आप सिर्फ़ 20 से 30 प्रतिशत आबादी तक ही पहुंच सकेंगे.
शेषागिरी बीबीसी हिंदी से कहते हैं, "हर राज्य में डिजिटल पाथवे को लेकर शोर शराबा चल रहा है. ज़रूर ये एक माध्यम है, जिसके ज़रिए बच्चों तक पहुंचने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन इसमें कुछ चुनौतियां भी हैं. हर किसी के पास स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्टिवी नहीं है. छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पूरी किताब को ही डिजिटलाइज़ करके वेबसाइट में डालने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ वीडियो और ऑडियो अपलोड करने की बात भी चल रही है. अगर आप लोगों को बोल रहे हैं कि वो वेबसाइट पर जाकर ये डाउनलोड करें, तो उसकी भी एक विधि होती है. वो हर किसी को नहीं आती है."
विकल्प क्या है
शिक्षा विशेषज्ञ शेषागिरी कहते हैं कि अब तक की रणनीति 'वन साइज़ फिट ऑल टाइप' की है.
वो सुझाव देते हैं, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है और जो इंटरनेट एक्सेस नहीं कर सकते हैं, स्थानीय प्रशासन की तरफ से ऐसे परिवारों के बच्चों को छोटा-मोटा एजुकेशनल किट बनाकर देना चाहिए, जो उनके घर में जाकर दिए जाएं. इसकी भाषा आसान हो, जिसमें गणित या विज्ञान जैसे विषयों की आसान वर्कशीट्स हो.
या परिवार वाले जब मिडडे मील लेने के लिए आएंगे या आंगनवाड़ी में पहुचेंगे तो उन्हें ऐसा सामग्री दी जाए. उन्हें कहा जाए कि घर में बच्चों के दिमाग के लिए भी ये गतिविधियां करवाएं. जब वो अगले हफ्ते या दस दिन के बाद फिर आएं तो उन्हें आगे के लिए एजुकेशनल साम्रगी दी जाए. शेशा गिरी कहते हैं कि ये सब प्रिंटिंग फॉर्म में होना चाहिए.
'रेडियो और टीवी की पोटेंशियल समझे सरकार'
शिक्षा विशेषज्ञ शेषागिरी ग्रामीण भारत में रेडियो और टीवी की प्रोग्रामिंग की अहमियत समझने की ज़रूरत भी बताते हैं. उनके मुताबिक रेडियो में विविध भारती जैसे अन्य ज़रिए से दूर-दराज़ के इलाक़ों में पहुंचा जा सकता है. उसमें रोज़ 10-15 मिनट का एक मज़ेदार और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम दिया जा सकता है.
वो कहते हैं कि हर राज्य को रेडियो की पोटेंशियल को एक्सप्लोर करना चाहिए. साथ ही दूरदर्शन में रेगुलर एक-आधे घंटे का प्रोग्राम हो. लेकिन ये बच्चों को डल ना लगे, बल्कि एक्टिविटी से भरा और इंगेजिंग हो.
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इंटरनेट
सरकार की चुनौती
भारत में स्कूल जाने वाले करीब 26 करोड़ छात्र हैं. ज़ाहिर है, ऑनलाइन क्लासेस के ज़रिए शहरों में स्कूलों के नए एकेडमिक सेशन शुरू हो गए हैं, जबकि आर्थिक रूप से कमज़ोर और ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले छात्र इस मामले में कहीं पीछे छूट रहे हैं.
कोई नहीं जानता कि देश कोरोना से ख़तरे से निकलकर कब सामान्य ज़िंदगी में आएगा, ऐसे में अब सरकार के सामने ये चुनौती है कि वो स्कूल के इन छात्रों को कैसे साथ लेकर चलेगी.
इस पूरे मामले में बीबीसी ने एचआरडी मंत्रालय की ओर से स्कूल में ऑनलाइन एजुकेशन के नोडल अफसर बनाए गए आर सी मीना से भी संपर्क किया, लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.
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