कोरोना काल में फ़ेक न्यूज़ से ऐसे घुल रहा है ज़हर - फ़ैक्ट चेक
- कीर्ति दुबे
- बीबीसी संवाददाता

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले 19 अप्रैल को ट्वीट किया था और कहा था कि कोविड-19 हमला करने से पहले नस्ल, धर्म, रंग, जाति, भाषा या सीमा को नहीं देखता है. मोदी ने आगे कहा कि इसीलिए ''हमारा जवाब और व्यवहार भी ऐसा होना चाहिए कि एकता और भाईचारे को अहमियत दी जाए.''
किसी भी देश के प्रधानमंत्री की तरफ़ से अपनी जनता के लिए दिया जाने वाला ये बहुत ही अच्छा संदेश था. लेकिन ऐसा लगता है कि ज़मीन पर लोग इस संदेश की गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं.
''मैं नहीं दे पाऊंगा मुसलमानों को सामान, मेरी फ़ोटो ले लो, मेरा वीडियो बना लो लेकिन मैं मुसलमानों को सब्ज़ी या सामान नहीं दूंगा. मेरी दुकान जलाने की धमकी दे रहे हैं. मेरे कहने से कुछ नहीं होगा. मैं नहीं दे पाऊंगा सामान".
इंदौर के सिख बहुल मोहल्ले से सामने आया ये वीडियो बताता है कि कोरोना को भारत में किस क़दर धर्म से जोड़ा जा चुका है. यहां एक दुकानदार पास के इलाक़े में रहने वाले मुसलमान लोगों को इसलिए सब्ज़ी देने से इनकार कर देता है क्योंकि कुछ लोगों ने उसे ऐसा ही करने के लिए कहा है.
इंदौर पुलिस ने इस मामले में किसी प्रकार की टिप्पणी करने से मना कर दिया है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि हम इस हालात तक कैसे पहुंच गए जहां समाज के एक बड़े तबक़े में 'मुसलमानों को कोरोना का पर्याय' बना दिया गया.
जब देश में सोशल डिस्टेंसिंग को कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने का एकमात्र ज़रिया माना जा रहा है ऐसे वक़्त में एक और डिस्टेंसिंग ख़ूब फल-फूल रही है, वह है कम्युनल डिस्टेंसिंग जिसे फैलाया जा रहा है सोशल प्लेटफ़ॉर्मों के ज़रिए.
एक से डेढ़ सप्ताह के बीच दिल्ली, उत्तराखंड, कर्नाटक, हरियाणा, पंजाब सहित देश के कई हिस्सों से ऐसे वीडियो सामने आए जिसमें ग़रीब मुसलमानों से उनका नाम पूछा जा रहा है, कुछ के साथ मारपीट की जा रही है, और उन्हें धमकी भरे लहजों में दोबारा उस इलाक़े में ना आने को कहा जा रहा है. इसकी वजह है ये धारणा कि 'मुसलमानों के कारण कोविड-19 फैल रहा है.'
ऐसा नहीं है कि मुसलमान नाम वाले अकाउंटों से फ़ेक न्यूज़ नहीं फैलाए गए हैं, लेकिन उनका ज़ोर इस्लाम की श्रेष्ठता को स्थापित करने पर रहा है जिसमें मिसाल के तौर पर ऐसे दावे किए गए हैं कि 'पाँच वक़्त के नमाज़ी का कोरोना कुछ नहीं बिगाड़ सकता'.
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बहरहाल, फ़ेक न्यूज़ के ज़रिए इस धारणा को ख़ूब फैलाया गया कि मुसलमान जान-बूझकर कोरोना संक्रमण फैला रहे हैं.
मेरठ के वैलेंटिस कैंसर अस्पताल ने शुक्रवार को हिंदी अख़बार 'दैनिक जागरण' के स्थानीय पन्ने पर इश्तेहार देकर ये बताया है कि अब कोई भी कोरोना पॉज़िटिव मुस्लिम मरीज़ को अस्पाल भर्ती नहीं करेगा. अस्पताल प्रबंधन का कहना है कि तब्लीग़ी जमात के लोग स्वास्थ्यकर्मियों से बदसलूकी कर रहे हैं और इसका ख़मियाज़ा पूरे समुदाय को उठाना होगा.
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वैलेंटिस अस्पताल का विज्ञापन
इतना ही नहीं, 'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक़ झारखंड में एक महिला डिलीवरी के लिए जमशेदपुर के महात्मा गांधी मेमोरियल अस्पताल गई. उसे ब्लीडिंग हुई तो अस्पताल के स्टाफ़ ने कोविड-19 के डर से उसे ख़ुद ही ख़ून साफ़ करने को कहा. इसके बाद महिला दूसरे नर्सिंग होम में गई जहां उसके गर्भस्थ शिशु की मौत हो गई.
जमात के बहाने
इस डर की नींव तब्लीग़ी जमात के धार्मिक आयोजन के कारण कोविड-19 के मामलों में आए उछाल ने रखी. स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ देश में सवा चार हज़ार से ज़्यादा मामले तब्लीग़ी जमात से जुड़े हैं. 12 से 15 मार्च के बीच हुए जमात के आयोजन में लगभग 8000 लोग जुटे थे जिससे संक्रमण फैल गया.
ये भी सच है कि इंदौर, मुरादाबाद, राजस्थान के कुछ इलाक़ों से पुलिस और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ तब मारपीट की गई जब वे लोगों को इस महामारी से बचाने के लिए उनका टेस्ट करने गए.
ये घटनाएँ सच तो हैं लेकिन यह भी सच है कि इन घटनाओं को देश भर के मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने के लिए पूरी तरह इस्तेमाल किया गया.
इन घटनाओं ने भारत में कोविड-19 के संक्रमण को धर्म के चश्मे से देखने का मौक़ा दे दिया. ये पहला मौक़ा नहीं है जब लोगों के बीच किसी धर्म विशेष से नफ़रत या ग़ुस्से की भावना को भड़काया गया हो.
लगातार जारी अभियान
इसे समझना होगा कि बीते कुछ महीनों में भारत में हर बड़ी घटना के दौरान फ़ेक न्यूज़ की बाढ़-सी आई और इनमें अक्सर मुसलमानों को 'समस्या की जड़' की तरह पेश किया गया.
आज आधार कार्ड माँगने और सब्ज़ी के ठेले या फल की रेहड़ी लगाने वाले ये ग़रीब मुसलमान जिस तरह की नफ़रत और अविश्वास का शिकार हो रहे हैं ये बीते 15-20 दिनों में सामने आए फ़ेक वीडियो या महज़ तब्लीग़ी जमात की घटना का असर नहीं है. इस नफ़रत के बीज को बीते कुछ महीनों से लगातार खाद-पानी दिया जा रहा है.
जामिया, एएमयू, शाहीन बाग़, दिल्ली दंगे और अब कोविड-19, इन सभी घटनाओं के दौरान कई फ़ेक न्यूज़ सोशल मीडिया से तो कई बार न्यूज़ चैनलों और वेरिफ़ाइड ट्विटर अकाउंटों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया गया.
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कोविड-19 और फ़ेक न्यूज़
30 जनवरी को भारत में पहला कोविड-19 केस सामने आया तो उसके बाद इसके इलाज को लेकर कई फ़ेक जानकारियां सामने आईं जैसे- लहसुन खाने से, एल्कोहल पीने से या गर्मी से कोरोना वायरस मर जाएगा. लेकिन 30 मार्च को जब तब्लीग़ी जमात के आयोजन में शामिल दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में कोविड-19 से 6 लोगों के मरने की ख़बर आई तो इसके साथ ही फ़ेक न्यूज़ का नेचर बदलकर सांप्रदायिक हो गया. ट्विटर पर #CoronaJihad जैसे हैशटैग ट्रेंड होने लगे.
एक अप्रैल को कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ तुग़लकाबाद स्थित रेलवे क्वारंटीन फ़ैसेलिटी में जमात के लोगों की मेडिकल स्टाफ़ के साथ बदलसूकी करने और उन पर थूकने की ख़बरें सामने आईं. इसके अलावा एक अस्पताल में महिला नर्स से तब्लीग़ी जमात के मरीज़ की बदलसूकी की ख़बर भी सामने आई है. लेकिन अब तक इनमें से किसी भी घटना का कोई वीडियो सामने नहीं आया है.
दो अप्रैल को एक वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर हुआ और ये दावा किया गया कि वीडियो तब्लीग़ी जमात के लोगों का है जिसमें वो पुलिस पर थूक रहे हैं. बीबीसी ने उस वीडियो की पड़ताल की और पाया कि ये वीडियो मुंबई का है, और घटना 29 फ़रवरी की है. जिस शख़्स को जमाती बताया जा रहा था वो दरअसल अंडरट्रायल क़ैदी था. इस घटना का कोरोना वायरस के संक्रमण और जमात से कोई ताल्लुक नहीं था.
लेकिन तीन अप्रैल को एक और वीडियो शेयर किया जाने लगा, जिसमें फलों का ठेला लगाए एक बुज़ुर्ग आदमी फलों को चाटकर साफ़ करता दिख रहा था. ये वीडियो दीपक नामदेव नाम के टिकटॉक यूज़र ने बनाया था. मुसलमान फल-सब्ज़ियों पर थूक कर कोरोना फैला रहे हैं, इस धारणा को इस वीडियो से बहुत बल मिला.
ये वीडियो मध्य प्रदेश के रायसेन का था और वीडियो 16 फ़रवरी का है, इस मामले में एफ़आईआर दर्ज हो चुकी है. इस वीडियो में दिखने वाले व्यक्ति का नाम शेरू था और इनकी बेटी फ़िज़ा के मुताबिक़ वे मानसिक रूप से बीमार हैं. वीडियो में जो दिख रहा है वह तो अपनी जगह सच है लेकिन उसका कोरोना के संक्रमण या जमात से कोई लेना-देना नहीं है.
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मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में तब्लीग़ी जमात वाली ख़बर से सनसनी फैलने के बाद फ़रवरी के वीडियो का इस्तेमाल किया जाना बताता है कि या तो ऐसा जान-बूझकर किया गया, या फिर बहुत सारे लोग इसे सच मानकर शेयर करने लगे इसलिए वह हर तरफ़ दिखने लगा.
इसके बाद एक और वीडियो सामने आया जिसमें पहनावे से मुसलमान दिखने वाला एक व्यक्ति रेस्त्रां में खाना पैक करते वक़्त थैलियों में फूंक मार रहा है. इस वीडियो को शेयर करके कहा गया कि "इसीलिए ज़ोमैटो से खाना लेने वाले मुसलमानों से खाना नहीं लेते."
पड़ताल करने पर पाया गया कि ये वीडियो अप्रैल 2019 से कई एशियाई देशों- इंडोनेशिया, सिंगापुर, यूएई में अलग-अलग मौक़ों पर शेयर किया जा रहा था और अब इसे भारत में शेयर किया गया.
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इसी तरह 'ऑपइंडिया' ने 15 अप्रैल को एक रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर छापी. इस रिपोर्ट में दावा किया गया गया कि जैसलमेर में रेवत सिंह नाम के शख़्स की मुसलमानों ने मॉब लिंचिंग कर दी है, कहा गया कि रेवत सिंह ने प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर घंटी बजाई थी इसलिए उन्हें मार डाला गया.
इस मामले की और ज़्यादा जानकारी जुटाने के लिए बीबीसी ने जैसलमेर की एसपी किरन कंग से बात की. हमें पता चला कि मामला कुछ और ही है.
जैसलमेर पुलिस के मुताबिक़ 4 अप्रैल की शाम रेवत सिंह चंदूमैया मंदिर के पास मोटरबाइक से आ रहा था, वहीं दिलदार सिंह उर्फ़ दिलदार खां ने उसे रोकने की कोशिश की. जब रेवत सिंह नहीं रुका तो दिलदार सिंह ने उसका पीछा किया और इस दौरान उसे परेशान करता रहा जिससे असंतुलित होकर रेवत सिंह की मोटरसाइकिल गिर गई और उन्हें गहरी चोटें आईं.
इलाज के दौरान 9 अप्रैल को रेवत सिंह की मौत हो गई. इस मामले में दो लोगों की गिरफ्तारी हुई है. एसपी किरण कंग का कहना है कि दोनों के बीच आपसी रंजिश का मामला था इसका लॉकडाउन या पीएम के ऐलान से कोई लेना-देना नहीं था.
बीबीसी को इस मामले की एफ़आईआर की कॉपी भी मिली है. इसे भी सांप्रदायिक रंग देकर पेश किया गया, साथ ही पाकिस्तान के एक पुराने वीडियो को इस घटना से जोड़ दिया गया. और इसे मुसलमानों की हिंसा का नाम दिया गया. कई ऐसे पुराने वीडियो 30 मार्च के बाद सामने आए जिन्हें ग़लत जानकारी के साथ परोसा गया.
ताज़ा मामला महाराष्ट्र के पालघर में भीड़ द्वारा हिंदू साधुओं की हत्या का है, इस मामले को भी सांप्रदायिक रंग देने के भरपूर प्रयास किए गए, कई ट्विटर हैंडलों और फ़ेसबुक अकाउंटों के ज़रिए साबित करने की कोशिश की गई कि हमलावर मुसलमान थे.
संगठित नेटवर्क
बीबीसी ने बीते एक सप्ताह में 'द रियल हिंदू', 'रिसर्ज हिंदूइज़्म', 'वेकअप हिंदू', 'एक्सपोज़ द देशद्रोही' जैसे 15 फ़ेसबुक पेजों और ग्रुप के पोस्ट की छानबीन की और पाया कि इन पेजों पर तकरीबन हर तीसरी पोस्ट सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली है. इन सभी पेजों पर एक ही जैसा कंटेंट शेयर किया जा रहा है.
ये पेज आपस में जुड़े एक नेटवर्क की तरह काम करते हैं. एक यूज़र अगर ऐसे एक पेज को लाइक करेगा या ग्रुप को ज्वाइन करेगा तो इसके ज़रिए वो इस तरह के सैकड़ों पेजों के कंटेट पा सकता है. कई बार इन पेजों पर सही घटना का सच्चा वीडियो भी शेयर किया जाता है लेकिन इसके साथ लिखी पोस्ट की भाषा अक्सर काफ़ी भड़काऊ होती है.
एक नज़र कोरोना के पहले हुई घटनाओं पर डालें तो पता चलता है कि कैसे मौक़े के मुताबिक़ जानकारियों से छेड़छाड़ करके लोगों में ग़लत ख़बरें फैलाई जा रही हैं.
फ़रवरी महीने में हुए दिल्ली दंगों के तनावपूर्ण माहौल में फ़ेक न्यूज़ के ज़रिए नफ़रत और बढ़ाई गई. आम आदमी पार्टी के नेता रहे ताहिर हुसैन आईबी के कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या के केस में अभियुक्त हैं. दिल्ली पुलिस ने जब ताहिर हुसैन को गिरफ़्तार किया तभी सोशल मीडिया पर एक ख़बर वायरल की गई कि ताहिर हुसैन के घर पर एक हिंदू नाबालिग़ लड़की का रेप किया गया.
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'हिंदूपोस्ट' (आर्काइव लिंक), 'सिर्फ़ न्यूज़' (आर्काइव लिंक), 'नेशनल दुनिया' जैसी वेबसाइट ने इस ख़बर को छाप भी दिया. इस रिपोर्ट में कहा गया कि दिल्ली पुलिस को अंकित शर्मा के साथ ही नाले में एक महिला का शव भी मिला है, यह सच नहीं था.
जिस नाबालिग लड़की की तस्वीर के साथ ये दावा किया गया था, वो मध्य प्रदेश के परसुलियाकलां गांव की ज्योति पाटीदार थी. 12वीं में पढ़ने वाली इस लड़की का जला हुआ शव उसके घर में मिला था. ये घटना 20 फ़रवरी की थी यानी दिल्ली में दंगे शुरू होने से तीन दिन पहले की.
ताहिर हुसैन पर अंकित शर्मा की हत्या की साज़िश का आरोप तो है लेकिन इस दौरान उन पर 'हिंदू नाबालिग़ का रेप' का आरोप भी जोड़ दिया गया. एफ़आईआर के मुताबिक ताहिर हुसैन पर आईपीसी की धारा 365 (किडनैपिंग) और 302 (हत्या) लगाई गई है, बलात्कार का कोई ज़िक्र नहीं है.
ऐसी ही एक दूसरी रिपोर्ट भी दिल्ली दंगों के दौरान कुछ वेबसाइट पर प्रकाशित की गई जिसमें शिव विहार के दो स्कूलों पर हुए हमलों को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया.
'हिंदूपोस्ट' और 'ऑपइंडिया' ने एक रिपोर्ट में बताया कि उत्तर पूर्वी दिल्ली के शिव विहार में डीआरपी स्कूल पर हमला पड़ोस के राजधानी पब्लिक स्कूल से किया गया. दावा किया गया कि डीआरपी स्कूल के मालिक हिंदू हैं और राजधानी स्कूल के मुसलमान इसलिए राजधानी स्कूल से डीआरपी स्कूल पर पेट्रोल बम फेंके गए और राजधानी स्कूल को हमले के लिए बेस की तरह इस्तेमाल किया गया.
दिल्ली दंगों पर क्या है दिल्ली पुलिस का पक्ष
शिव विहार दिल्ली दंगों में सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाक़ा रहा. यहां के कई परिवार अब भी अपने घरों को नहीं लौट सके हैं. कइयों के घरों को पूरी तरह जलाया जा चुका है.
इन्हीं स्कूलों पर इंडिया टुडे की एक ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि राजधानी स्कूल की देखभाल करने वाले मनोज और संगीता ने किस तरह दंगाइयों से अपनी और बच्चों की जान बचाई और 60 घंटे तक बच्चों के साथ बिल्डिंग में बिना पानी के फंसे रहे.
इस रिपोर्ट में ही आगे डीआरपी स्कूल के एडमिन प्रमुख बताते हैं कि राजधानी की छत से उतरकर हिंसक भीड़ उनके स्कूल में दाख़िल हुई और स्कूल में आग लगा कर सब कुछ राख़ कर दिया.
दोनों ही स्कूल दिल्ली दंगों की आग में जल गए. दंगाइयों ने इन स्कूलों में तोड़-फोड़ मचाकर इसकी छत का इस्तेमाल इलाक़े में हमले के लिए किया. एनडीटीवी की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है. एक पैटर्न के मुताबिक़ यहां भी नफ़रत के माहौल को ग़लत जानकारियों के साथ और सुलगाने की कोशिश की गई.
दंगों के ही दौरान एक और वीडियो वायरल हुआ और उसके साथ दो झूठे दावे किए गए कि शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी महिलाओं को पैसे बांटे जा रहे हैं, इसी वीडियो के साथ ये भी दावा किया गया कि दिल्ली में दंगा करने के लिए मुसलमानों को पैसे बांटे गए.
जबकि हक़ीकत ये थी कि ये वीडियो शिव विहार के पास स्थित बाबूनगर की गली नंबर नौ-चार का था, वहां दंगे में बेघर हुए लोगों को एक समाजसेवी संगठन मदद के तौर पर कैश बांट रहा था जबकि लगातार ऐसे सोशल पोस्ट दिख रहे थे जिनमें कहा जा रहा था कि इन लोगों को पत्थर फेंकने के लिए पैसे दिए जा रहे हैं.
ऐसे फ़ेक दावों और ख़बरों की फेहरिस्त काफ़ी लंबी है जिससे लोगों को समय-समय पर गुमराह किया गया. साथ ही घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई.
यह सिलसिला कुछ महीनों से चल रहा है, बीते साल 15 दिसंबर को दिल्ली के जामिया इलाक़े में नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों और दिल्ली पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई.
इस घटना के बाद कई मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया पर दावा किया गया कि जामिया कैंपस में 750 फ़ेक आईडी कार्ड मिले हैं और उनके मुताबिक़ ये बात ख़ुद यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर नजमा अख़्तर ने कही है.
इस दावे की पड़ताल बीबीसी फ़ैक्ट चेक टीम ने की थी और सामने आया कि जुलाई 2019 से अक्तूबर 2019 तक 750 गड़बड़ आईडी कार्ड मिले थे. इन्हें फ़ेक आईडी नहीं कहा जा सकता, ये दरअसल एक्सपायर हो चुके कार्ड थे जिन्हें कुछ छात्र लाइब्रेरी की सुविधा के लिए इस्तेमाल कर रहे थे. इन कार्डों का जामिया प्रकरण से कोई वास्ता नहीं था.
एक सवाल के जवाब में नजमा अख़्तर ने इन आंकड़ों का ज़िक्र किया था लेकिन 40 सेकेंड की एडिट की हुई क्लिप का इस्तेमाल करके ये झूठ फैलाने की कोशिश की गई कि कैंपस में हिंसा के दौरान ऐसे लोग मौजूद थे जो दंगाई थे जिनके पास फ़र्ज़ी आईडी कार्ड थे.
टिकटॉक और कोरोना के ख़िलाफ़ मैसेज
कई ऐसे भी वीडियो सामने आए जिनमें धर्म के नाम पर कोरोना वायरस से बचने के लिए ज़रूरी सावधानियां ना बरतने का संदेश दिया जा रहा था और टिकटॉक ऐसे वीडियो मैसेज का एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म बनकर सामने आया है.
कई टिकटॉक वीडियो वायरल हुए जैसे- नौजवान मुस्लिम लड़कों से ये कहने वाला वीडियो- 'कोरोना के कारण सुन्नत छोड़ दें क्या?'...'कुरान मानने वालों का कोरोना कुछ नहीं बिगाड़ सकता'. या 'ये अल्लाह का एनआरसी है.'
एक ऐसी ही ऑडियो क्लिप काफ़ी वायरल हुआ है जिसमें लोगों को झूठी ख़बर दी गई कि 'सरकार मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश' कर रही है.
दिल्ली की वॉयजर इंफ़ोलैब ने मार्च के आख़िरी हफ़्तों में शेयर की जा रही 30 हज़ार टिकटॉक क्लिपों का अध्ययन किया. इसमें सामने आया कि कुछ मुसलमान नौजवान लड़के कोरोना को लेकर मुस्लिम समुदाय के बीच भ्रम पैदा कर रहे हैं. इस प्लेटफ़ॉर्म पर वीडियो के ज़रिए ये मैसेज दिया जा रहा था कि मुसलमानों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करना चाहिए.
वॉयजर इंफोलैब डायरेक्टर जितेन जैन ने बीबीसी को बताया कि, "इनमें से कई वीडियों को लाखों लोगों देखा है. ऐसे वीडियो शेयर करने वाले कुछ अकाउंट अब डिलीट कर दिए गए हैं. कुछ ऐसे भी वीडियो टिकटॉक पर सामने आए जो विदेशी थे लेकिन उन्हें हिंदी में डब करके फैलाया गया".
ये रिपोर्ट गृह मंत्रलय को सौंपी जा चुकी है.
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