भारत-चीन सीमा विवाद: पीएम मोदी सीधे-सीधे चीन का नाम क्यों नहीं लेते?
- ज़ुबैर अहमद
- बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

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भारतीय विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर ने छह अक्टूबर को टोक्यो में क्वाड देशों की मीटिंग में कई अच्छी बातें कहीं.
जयशंकर ने कहा कि भारत 'नियम आधारित विश्व व्यवस्था, क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के लिए विवादों के शांतिपूर्ण समाधान' के पक्ष में है. हाँलाकि उन्होंने भारत-चीन सीमा विवाद के मामले में चीन के आक्रामक रुख की निंदा चीन का सीधे नाम लेकर नहीं की.
दूसरी तरफ़, अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो सीधे तौर पर चीन का नाम लेकर उस पर हमला बोलते रहे.
क्वाड में शामिल देश भारत, अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया, टोक्यो में चीन के असर को कम करने और उस पर निर्भरता कम करने के उपाय ढूँढने बैठे थे. अनौपचारिक रूप से क्वाड को 'एशिया का नेटो' समझा जाने लगा है, जो चीन के बढ़ते प्रभुत्व के ख़िलाफ़ एक कोशिश है.
गलवान में भारत के ख़िलाफ़ चीनी आक्रामकता को पूरा देश गंभीरता से ले रहा है. इसके बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि जयशंकर ने चीन की खुलकर निंदा नहीं की.
रक्षा विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी ने अपने आश्चर्य का इज़हार एक ट्वीट करके किया. उन्होंने कहा कि भारतीय विदेश मंत्री ने चीन का नाम लेना तो दूर, उन्होंने ये भी नहीं कहा कि भारत चीन की अक्रामकता का शिकार है. बेशक़ इशारों में उनके भाषण का निशाना चीन ही था लेकिन सीधे तौर पर उन्होंने चीन का नाम नहीं लिया.
मंगलवार को भारत को चीन की सामूहिक तरीके से निंदा करने का एक और मौका उस समय मिला जब संयुक्त राष्ट्र में 39 देशों ने चीन के ख़िलाफ़ एक बयान पर हस्ताक्षर किये.
इसमें इन देशों ने कहा, "हम झिंजियांग में मानवाधिकारों की स्थिति और हॉन्गकॉन्ग के हालिया घटनाक्रम के बारे में गंभीर रूप से चिंतित हैं."
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चुप्पी घरेलू मुद्दों पर भी
चीन की खुलकर निंदा न करना या इसके ख़िलाफ़ चुप्पी साधना मोदी सरकार के हालिया रुझान का एक संकेत है.
घरेलू मामलों में प्रधानमंत्री की चुप्पी के बारे में विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है.
कुछ कहते हैं कि उन्हें हाथरस जैसे गंभीर मामले पर बोलना चाहिए था तो कुछ कहते हैं कि प्रधानमंत्री का देश के हर मुद्दे पर बयान देना ज़रूरी नहीं.
शायद दोनों पक्ष की बातें अपनी जगह सही हों लेकिन चीनी आक्रामकता पर ख़ामोश रहना कहाँ तक सही है?
जून की 15-16 तारीख़ को गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच झड़प के दौरान ख़बरें ये भी आईं कि चीन ने भारत के कुछ हिस्सों पर अवैध क़ब्ज़ा कर रखा है.
इसके बाद 19 जून की सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा, "न वहाँ कोई हमारी सीमा में घुसा है न ही हमारी पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है"
अधिकांश आलोचकों ने इसे किसी भी घुसपैठ से इनकार के बराबर बयान बताया और इस पर अपनी मायूसी मायूसी जताई. कांग्रेस पार्टी ने इस बयान पर प्रधानमंत्री को जमकर आड़े हाथों लिया.
लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि तब से अब तक मोदी सरकार ने सीधे तौर पर चीन का नाम अब तक नहीं लिया है.
अब भारतीय अख़बारों में ये ख़बर छपी है कि रक्षा मंत्रालय की वेबसाइट से 2017 से मंत्रालय की मासिक रिपोर्ट हटा दी गयी है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, "चीन द्वारा लद्दाख में 'एकतरफ़ा आक्रामकता' की बात करने वाली एक मासिक रिपोर्ट को हटाने के बाद, रक्षा मंत्रालय ने 2017 के बाद से अपनी वेबसाइट से सभी मासिक रिपोर्टों को हटा दिया है. इनमें 2017 में डोकलाम संकट की अवधि से संबंधित वो रिपोर्ट्स भी शामिल हैं, जिनमें भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध का उल्लेख नहीं किया गया था".
रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय ने इस पर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया.
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भारत की मजबूरी या कूटिनीति?
चीन के ख़िलाफ़ भारत की ख़ामोशी का राज़ क्या है?
मुंबई-स्थित विदेश नीति के थिंक टैंक गेटवे हाउस मेंअंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के जानकार समीर पाटील इस बात से हैरान नहीं हैं कि चीन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद ख़ामोश हैं और इसकी आलोचना का ज़िम्मा जूनियर मंत्रियों पर छोड़ दिया है.
इसे वो कूटनीति की बारीक़ी से जोड़ते हैं. वो कहते हैं, "पीएम मोदी ने चीन के साथ संबंधों को लेकर अपनी इतनी राजनीतिक पूँजी लगाई है कि कल अगर भारत को चीन के साथ बातचीत के लिए मजबूर होना पड़े तो उनके पास अपनी कूटनीतिक कुशलता साबित करने लिए जगह हो."
पूर्व भारतीय राजनायिक और लेखक राजीव डोगरा कहते हैं कि कूटनीति ढिंढोरा पीट के नहीं की जाती.
वो कहते हैं, "कूटनीति ख़ामोशी से करना ही बेहतर है. भारत-चीन रिश्ते इस समय नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं. यह सही है कि आप जिस मुद्दे की बात कर रहे हैं उसकी आलोचना हुई है लेकिन अगर ख़ामोशी से काम करते हुए तनाव कम हो और डिसइन्गेजमेंट में सफलता मिले तो मेरे विचार में सब्र की कूटिनीति कामयाब हुई."
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चीन के एशिया मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर हुआंग यूनसोंग के अनुसार चीन की सरकार भी यही चाहती है कि तनाव को कम करने की दोनों देशों के बीच चल रही बातचीत कामयाब हो.
वो कहते हैं, "भारत अगर अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों के कहने में न आए तो दोनों देश मिल कर काम कर सकते हैं और एशिया ही नहीं दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभर सकते हैं. चीन इसके निकट है. भारत भी इस लक्ष्य के नज़दीक आ सकता है."
वही, वरिष्ठ पत्रकार और विदेश नीतियों पर हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार के संपादक रिज़ाउल हसन लस्कर कहते हैं, "भारत सरकार का वर्तमान में ध्यान वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन के साथ मौजूदा तनाव में किसी भी तरह से बढ़ोतरी ना हो इसे सुनिश्चित करना है, खास तौर से जब डिसइन्गेजमेंट और डी-एस्केलेशन प्रक्रिया में कोई प्रगति नहीं हुई है. भारतीय नेताओं द्वारा चीन का सीधे नाम नहीं लेने का ये एक कारण हो सकता है."
भारत-चीन सीमा पर आख़िर क्या चल रहा है?
शी जिनपिंग भी भारत का नाम नहीं ले रहे हैं
समीर पाटील हमारा ध्यान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तरफ़ दिलाना चाहते हैं जिन्होंने सीधे तौर पर भारत के ख़िलाफ़ अब तक कोई बयान नहीं दिया है.
वो कहते हैं, "हमने चीनी विदेश मंत्रालय से भारत के ख़िलाफ़ कई बयान देखे हैं जिनमें उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ लाइन ऑफ़ एक्चुअल कंट्रोल का उल्लंघन करने का इल्ज़ाम लगाया है लेकिन उस तरह के बयान चीन के बड़े नेताओं की तरफ़ से नहीं आये हैं."
पाटील कहते हैं, ''दोनों देशों के बीच रिश्तों में तनाव ज़रूर है लेकिन रिश्ते टूटे तो नहीं हैं या औपचारिक रूप से दोनों ने युद्ध का एलान तो नहीं किया है न.''
तो क्या इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच औपचारिक या अनौपचारिक शिखर सम्मलेन की संभावना बनती है?
रिजाउल हसन लस्कर कहते हैं कि इस साल शायद ऐसा नहीं होगा.
वो कहते हैं, "इस साल अनौपचारिक शिखर सम्मेलन की संभावना बेहद कम दिखाई देती है. दोनों नेताओं के बीच 18 औपचारिक और अनौपचारिक मुलाक़ातें हो चुकी हैं.
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2019 में ओसाका में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
तनाव के बाद दोनों नेता पहली बार के ब्रिक्स सम्मलेन के दौरान 17 नवंबर को मुलाक़ात करेंगे, लेकिन ये वर्चुअल मुलाक़ात होगी.
रूस में होने वाले 12वें ब्रिक्स सम्मलेन में भारत के अलावा ब्राज़ील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्ऱीका शामिल होंगे.
समीर पाटील के मुताबिक़ दोनों नेताओं के बीच शिखर सम्मलेन की सभांवना अभी कम है क्योंकि चीन ने अब तक कोई सकारात्मक सिग्नल नहीं दिए हैं.
वो कहते हैं, "डोकलाम संकट के बाद भी दोनों के बीच मुलाक़ात उसी समय हुई जब दोनों ने अपनी पोज़िशन में लचक दिखाई थी."
अब सभी की निगाहें 17 नवंबर को ब्रिक्स सम्मलेन पर टिकी होंगी जब भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर आमने-सामने होंगे.
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