चीन के साथ संघर्ष में अमरीका भारत के लिए क्या कर सकता है?
- ज़ुबैर अहमद
- बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

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सोमवार 12 अक्तूबर को भारत और चीन के बीच कोर कमांडर स्तर की बातचीत हुई.
पूर्वी लद्दाख के चूशुल में हुई सातवें दौर की बातचीत में भारत ने एक बार फिर पूर्वी लद्दाख क्षेत्र से चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को पूरी तरह हटाने की अपनी मांग दोहराई. लेकिन बातचीत का नतीजा भी कुछ नहीं निकला.
अप्रैल-मई के बाद से ही भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव बना हुआ है.
अमरीका का दावा है कि अब चीन ने सीमा के निकट स्थायी स्ट्रक्चर बनाना शुरू कर दिया है. जबकि चीन ये आरोप लगाता है कि सीमावर्ती इलाक़ों में भारत निर्माण कार्य कर रहा है.
इसका मतलब ये हुआ कि अब एलएसी भी भारत-पाकिस्तान के बीच एलओसी की तरह हो सकता है, जहाँ दोनों तरफ़ स्थायी सैन्य पोस्ट हैं और जहाँ आए दिन झड़पें होती रहती हैं.
सुरक्षा विशेषज्ञों का डर
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इस क्षेत्र में अप्रैल-मई से दोनों देशों के क़रीब 50,000 सैनिक मौजूद हैं. कुछ जगहों पर तो दोनों सेनाओं के बीच फासला 200 गज से भी कम है. सुरक्षा विशेषज्ञों को डर इस बात का है कि एक छोटी सी अनचाही चूक एक बड़े सैन्य संघर्ष में बदल सकती है.
ऐसे में अमरीका बार-बार भारत के सामने मदद का प्रस्ताव रख रहा है.
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कुछ दिनों पहले भारत और चीन के बीच तनाव पर कहा था, "उन्हें (भारत को) अमरीका को इस लड़ाई में अपना सहयोगी और भागीदार बनाने की आवश्यकता है."
इतना ही नहीं, भारतीय विदेश मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक़ इस महीने की 26-27 तारीख़ को माइक पॉम्पियो अपने भारतीय समकक्षों के साथ सालाना बातचीत के लिए रक्षा मंत्री मार्क एस्पर के साथ दिल्ली की यात्रा करेंगे.
माना जा रहा है कि वे दोनों देशों के बीच 2+2 के नाम से जाने वाली इस वार्षिक बैठक में भी भारत को मदद करने की पेशकश करेंगे.
भारत-अमरीका संबंध
भारत और अमरीका के बीच रिश्ते गहरे हैं और सुरक्षा के क्षेत्र में आदान-प्रदान हाल के वर्षों में और बढ़े हैं.
दूसरी तरफ़, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच निजी दोस्ती ने दोनों देशों के रिश्तों में वो गर्मजोशी पैदा कर दी है, जो कुछ सालों से महसूस नहीं हो रही थी.
लेकिन जैसा कि पुरानी कहावत है कि विदेश नीतियाँ केवल राष्ट्रीय हित में तय की जाती हैं, तो इसे सामने रखते हुए भारत ने अब तक अमरीका की पेशकश को स्वीकार करने में संकोच किया है.
लेकिन मोदी सरकार ने अमरीकी प्रस्ताव को ठुकराया भी नहीं है.
भारत को क्वाड (जिसमें अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं) जैसे क्षेत्रीय प्लेटफ़ॉर्म में शामिल रह कर चीन पर दबाव डालना अधिक बेहतर विकल्प लगता है.
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अब सवाल ये है कि अगर भारत तैयार हो जाता है, तो अमरीका उसकी किस तरह की सहायता कर सकता है?
डॉ. निताशा कौल लंदन में वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.
वो कहती हैं, "जब अमरीका की विदेश नीति विरोधाभासी दिशा में आगे बढ़ रही है और ट्रंप वैश्विक स्तर पर अमरीका की प्रतिबद्धताओं को कम कर रहे हैं, तो ऐसे में ट्रंप प्रशासन के मौखिक बयानों का अधिक महत्व नहीं है."
वो आगे कहती हैं, "अमरीका ज़्यादा से ज़्यादा सैन्य इंटेलिजेंस (जो सीमित होगा), हार्ड वेयर और प्रशिक्षण जैसे क्षेत्रों में भागीदारी कर सकता है. साथ ही अमरीका चीन को अपनी बयानबाज़ी से सांकेतिक संदेश भेज रहा है कि वो बढ़ते तनाव से बचे."
अमरीका के जोसेफ फ़ेल्टर, हूवर इंस्टीट्यूट, स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ हैं.
उन्होंने हाल में एक वेबिनार में कहा, "मैं भारत-अमरीका संबंधों को मज़बूत करने में दृढ़ विश्वास रखता हूँ, लेकिन हमें (अमरीका को) भारत के लिए और अधिक करना चाहिए. भारत हमारा एक प्रमुख रक्षा पार्टनर है. सैन्य सहायता और रक्षा और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में भारत को मदद देने के लिए इससे बेहतर स्थिति पहले कभी नहीं थी."
लेकिन क्या भारत अमरीका पर भरोसा कर सकता है?
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भारतीय मूल के अशोक स्वेन स्वीडन में उप्साला विश्वविद्यालय के शांति और संघर्ष (पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट) विभाग के प्रोफ़ेसर हैं. उनके अनुसार भारत को अमरीका पर भरोसा नहीं करना चाहिए.
वे कहते हैं, "भारत को अमरीका के साथ अच्छे संबंध रखने की आवश्यकता ज़रूर है, लेकिन इसे चीन के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए. भारत को अगर दूसरों से नहीं, तो पाकिस्तान के पिछले अनुभवों से सबक सीखना चाहिए, अमरीका कभी भी किसी का विश्वास-योग्य सहयोगी नहीं रहा है और यह राष्ट्रपति ट्रंप के शासन में अधिक स्पष्ट हो गया है."
डॉक्टर निताशा कौल की राय भी कुछ ऐसी ही है. वे कहती हैं, "अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अधीन अमरीका दुनिया के विभिन्न हिस्सों में एक विश्वसनीय सामरिक भागीदार साबित नहीं हुआ है. राष्ट्रपति की ये पेशकश भरोसे लायक़ नहीं है."
प्रोफ़ेसर अशोक स्वेन के अनुसार चीन से सीमा संघर्ष छिड़ने की सूरत में अमरीका भारत की कोई सैन्य मदद नहीं करेगा.
उनके मुताबिक़, "चीन अच्छी तरह जानता है कि ट्रंप प्रशासन कैसे काम करता है और यह कितना अविश्वसनीय है. अगर सैन्य झड़प होती है, तो अमरीका खुले तौर पर भारत के साथ जुड़ जाएगा, इसकी संभावना बहुत कम है."
वे कहते हैं कि अमरीका में चुनाव होने जा रहा है और सत्ता बदल सकती है. "भारत के लिए चीन जैसे शक्तिशाली देश के साथ अमरीकी कार्ड काम करने वाला नहीं."
लेकिन क्या युद्ध की आशंका है?
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गलवान घाटी में हुई झड़प बहुत सीमित थी, लेकिन सीमा पर सीमित युद्ध की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता.
भारत के चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ जनरल विपिन रावत ने पिछले महीने ही कहा था कि अगर बातचीत नाकाम रहती है, तो पीएलए को भारत की तरफ से हटाने के लिए सैन्य कार्रवाई एक विकल्प है,
दूसरी तरफ़ चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीब समझे जाने वाले अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने हाल में ये हेडलाइन लगाई- "चीन भारत से शांति के लिए भी तैयार है और युद्ध के लिए भी."
चीन में दक्षिण एशिया के मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर हुआंग युनंसोंग कहते हैं कि चीन धैर्य से काम ले रहा है. लेकिन उनके अनुसार इसकी एक सीमा होती है.
वे कहते हैं, "चीन नहीं चाहता है कि दोनों देशों के मामले में कोई तीसरा पक्ष हस्तक्षेप करे. अमरीका भारत को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना चाहता है. अमरीका भारत के कंधे पर बंदूक़ रख कर चीन को निशाना बनाना चाहता है. हमें उम्मीद है कि भारत युद्ध की ग़लती नहीं करेगा और अमरीका के बहकावे में नहीं आएगा."
सच तो ये है कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और देश के दूसरे सियासी नेताओं ने शांति स्थापित करने पर ज़ोर दिया है, युद्ध पर नहीं.
भारत में इस बात पर सर्वसम्मति है कि चीन को भारत की ज़मीन से अपनी सेना को हटाना ही पड़ेगा.
विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत के सियासी, सरकारी और कूटनीतिक क्षेत्रों में भी अमरीका से सैन्य मदद हासिल करने की चाह नहीं है. इसे मोदी की कमज़ोरी की तरह से देखा जाएगा. लेकिन इससे भी बढ़ कर भारत कभी भी नहीं चाहेगा कि चीन की सीमा पर अमरीकी जमावड़ा हो.
पिछले 70 सालों में अमरीकी सैन्य कार्रवाइयों के इतिहास से ये स्पष्ट है कि मसले हल कम होते हैं और समस्याएँ दशकों तक बनी रहती हैं. साल 1950 में कोरिया युद्ध, वियतनाम युद्ध, अरब देशों और अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका के नेतृत्व वाले युद्ध इसके कुछ उदाहरण हैं.
तो चीन को एलएसी से पीछे धकेलने के विकल्प क्या हैं?
तिब्बत पर चीन के कब्ज़े के 70 साल
बिपिन रावत के सैन्य विकल्प वाले बयान के बाद भारत की तरफ़ से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले महीने ही भारत और चीन के पास एक ही विकल्प होने की बात की और वो था कूटनीतिक रास्ता.
उन्होंने कहा था, "मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूँ कि स्थिति का समाधान कूटनीति के माध्यम से ही ढूँढना होगा और ये मैं पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ."
चीन क्या पीछे हटेगा?
प्रोफ़ेसर अशोक स्वेन कहते हैं कि फ़िलहाल ये मुश्किल है. उन्होंने कहा, "एलएसी पर भारत को तुरंत समाधान मिलने वाला नहीं है. चीन सर्दियों में भारत के धैर्य की परीक्षा लेने जा रहा है, लेकिन भारत अमरीका के साथ गठबंधन कर चीन को डराने की उम्मीद कर रहा है."
डॉ. निताशा कौल के विचार में एलएसी के तनावों को जारी रखना भारत के हित में नहीं है. वो कहती हैं, "चीन की ताक़त को देखते हुए, भारत धारणाओं के साथ खेलने के अलावा कुछ ज़्यादा कर भी नहीं सकता."
वो आगे कहती हैं, "लद्दाख जैसे दूर-दराज़ क्षेत्रों के मामले में लोगों की याददाश्त अक्सर कमज़ोर होती है. मोदी की ताक़त मीडिया के नैरेटिव के कंट्रोल पर आधारित है और ये संभव है कि सरकार एलएसी पर बने तनाव को सुर्ख़ियों से हटाने पर काम करे."
चीन और भारत के मामलों पर नज़र रखने वाले कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों दबंग नेता हैं और दोनों की साख इस मुद्दे से जुड़ी है. दोनों में कोई भी पीछे हटने के लिए तैयार हुआ तो ये उनकी कमज़ोरी या हार मानी जा सकती है.
चीन और पाकिस्तान
चीन ने क्यों कहा कि भारत आग से खेल रहा है?
शायद इसीलिए बातचीत ही अकेला विकल्प है, जिसके लिए रास्ते अब भी खुले हैं. कोर कमांडर के स्तर पर चल रही बातचीत में थोड़ी कामयाबी मिली, तो नेताओं के बीच औपचारिक वार्ता के रास्ते भी खुल सकते हैं.
प्रोफ़ेसर अशोक स्वेन की भारत सरकार को सलाह ये है कि सरकार क्वाड से अधिक दक्षिण एशिया और पड़ोस के मुल्कों से रिश्ते बेहतर बनाने पर ज़ोर दे, तो बेहतर होगा. वे कहते हैं, "भारत को इस तरह चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ को तोड़ने में मदद मिल सकती है."
फ़िलहाल सीमा पर गतिरोध बना हुआ है और दोनों पक्ष आमने-सामने हैं. सीमा से परे दोनों देश में आम लोगों को उम्मीद है कि मोदी-शी जिनपिंग शिखर सम्मलेन जल्द हो, ताकि मसले का कोई हल निकले.
दोनों नेता 17 नवंबर को रूस में होने वाली ब्रिक्स की बैठक में भाग लेने वाले हैं. ये बैठक वर्चुअल होगी. शायद इस सम्मेलन के दौरान दोनों नेताओं के बीच भी बातचीत हो. लेकिन जानकार कहते हैं कि फ़िलहाल इस पर कुछ कहना मुश्किल है.
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