तीरथ सिंह रावत: संघ कार्यकर्ता से सीएम की कुर्सी तक पहुँचे नेता के सामने चुनौतियाँ
- ध्रुव मिश्रा
- उत्तराखंड से बीबीसी हिंदी के लिए

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महज़ 48 घंटे के दौरान उत्तराखंड में राजनीतिक घटनाक्रम काफ़ी तेज़ी से बदला.
त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया और नए मुख्यमंत्री के नाम का एलान भी हो गया. इन सब के बीच मुख्यमंत्री पद की रेस में जो नाम शायद सबसे आगे चल रहे थे, वो अचानक पीछे रह गए और एक नया नाम आया तीरथ सिंह रावत का.
दिल्ली से लेकर देहरादून तक मुख्यमंत्री की रेस में तीरथ सिंह रावत का नाम कहीं भी दूर-दूर तक नहीं था.
तीरथ सिंह रावत ही मुख्यमंत्री पद की पसंद क्यों?
तीरथ सिंह रावत संघ पृष्ठभूमि से आते हैं. साथ ही उत्तराखंड में जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों को साधना बहुत महत्वपूर्ण है. यहाँ राजपूत वोटरों की बड़ी आबादी है. माना जाता है कि यहाँ राजपूत वोटरों की संख्या ब्राह्मण वोटरों से अधिक है.
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बीबीसी से कहते हैं, "तीरथ सिंह रावत, राजपूत बिरादरी से आते हैं और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी राजपूत थे. एक राजपूत को हटाकर दूसरा राजपूत मुख्यमंत्री बनाना भाजपा की मजबूरी थी. क्योंकि भाजपा में इस वक़्त प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत ब्राह्मण बिरादरी से आते हैं और वह कुमाऊं क्षेत्र के रहने वाले हैं."
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"मुख्यमंत्री की रेस में जो नाम सबसे आगे चल रहे थे उनमें अजय भट्ट, रमेश पोखरियाल निशंक और धन सिंह रावत यह तीन नाम थे. अजय भट्ट ब्राह्मण हैं और वो कुमाऊं क्षेत्र से आते हैं इसलिए उनके नाम पर अगर मुहर लगती तो पार्टी के लिए जातिगत समीकरण साधना मुश्किल होता."
"उसी तरीक़े से रमेश पोखरियाल निशंक भी ब्राह्मण हैं और वो गढ़वाल क्षेत्र से आते हैं, उनके नाम पर भी सहमति इसी वजह से नहीं बन पाई. धन सिंह रावत मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की रेस में आगे चल रहे थे. वे राजपूत भी थे और गढ़वाल से आते हैं. लेकिन उनके पास अनुभव की कमी होने के कारण पार्टी ने शायद उन पर भरोसा नहीं जताया. धन सिंह रावत पहली बार विधायक बने हैं."
वे कहते हैं कि तीरथ सिंह रावत राजपूत हैं, गढ़वाल क्षेत्र से आते हैं. साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की तुलना में तीरथ सिंह रावत ज़्यादा मिलनसार और सरल स्वभाव के हैं.
पहले शिक्षा राज्य मंत्री रह चुके हैं तीरथ सिंह रावत
नौ नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड नया राज्य बना. तब उत्तर प्रदेश विधान परिषद में उत्तराखंड के रहने वाले जो सदस्य थे उन्हें यहाँ की अंतरिम सरकार में विधायक मान लिया गया था. उस समय भगत सिंह कोश्यारी, तीरथ सिंह रावत, नित्यानंद स्वामी और इंदिरा हृदयेश सरीखे बड़े नेता यूपी विधान परिषद में उत्तारखंड से आने वाले सदस्य थे. इन्हें उत्तराखंड में विधायक मान लिया गया था.
नित्यानंद स्वामी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने फिर उसके कुछ दिनों बाद भगत सिंह कोश्यारी मुख्यमंत्री बने जिनकी अंतरिम सरकार में तीरथ सिंह रावत शिक्षा राज्य मंत्री रहे.
इसके बाद 2007 में भारतीय जनता पार्टी उत्तराखंड के प्रदेश महामंत्री चुने गए. 2012 में बीजेपी की टिकट पर चौबट्टाखाल से विधायक बने.
भुवन चंद्र खंडूरी के क़रीबी
तीरथ सिंह रावत को उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी का क़रीबी माना जाता है.
खंडूरी से नज़दीकी होने की वजह से विधायक बनने के एक साल बाद 2013 में इन्हें बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. ख़ुद खंडूरी ने ही इनके नाम की सिफ़ारिश की थी.
रावत दो साल तक उत्तराखंड के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष भी रहे. इन्हें 2013 में आई प्राकृतिक आपदा में आपदा प्रबंधन सलाहकार समिति का अध्यक्ष भी बनाया गया था.
जब बीजेपी ने काटा चुनावी टिकट
2017 के विधानसभा चुनावों में तीरथ सिंह रावत दोबारा से चौबट्टाखाल विधानसभा सीट से तैयारी कर रहे थे.
लेकिन एक साल पहले यानी 2016 में हरीश रावत की सरकार को अस्थिर कर कुछ काँग्रेस के विधायक भाजपा ख़ेमे में आ गए थे उन्हीं विधायकों में से एक सतपाल महाराज को भारतीय जनता पार्टी ने साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में चौबट्टाखाल विधानसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था. जिसकी वजह से तीरथ नाराज़ चल रहे थे.
इनकी नाराज़गी दूर करने के लिए इन्हें 2017 में भाजपा का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया. इसके बाद इन्हें हिमाचल प्रदेश के प्रभारी की भी ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी.
जब ये हिमाचल के प्रभारी बनाए गए थे, तब उत्तराखंड में ये क़यास लगाए जा रहे थे कि पार्टी ने इन्हें राज्य से अलग भेजकर साइड लाइन कर दिया है.
लेकिन तीरथ सिंह ने पार्टी से मिली ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया और हिमाचल की चारों लोकसभा सीटों पर जब बीजेपी को जीत मिली तब पार्टी में इनका क़द और मज़बूत हुआ.
खंडूरी के बेटे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े
2019 के लोकसभा चुनावों में तीरथ सिंह रावत गढ़वाल सीट से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे. उस समय गढ़वाल सीट से कई उम्मीदवार अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे.
गढ़वाल लोकसभा सीट से भाजपा के क़द्दावर नेता भुवन चंद्र खंडूरी चुनाव लड़ते आए हैं. लेकिन उनकी उम्र 75 साल से ज़्यादा होने की वजह से उन्हें टिकट नहीं दिया गया.
खंडूरी अपने बेटे मनीष खंडूरी के लिए टिकट की माँग कर रहे थे लेकिन उनको भी टिकट नहीं दिया गया. बाद में मनीष खंडूरी काँग्रेस में चले गए और गढ़वाल सीट से लोकसभा चुनाव में उतरे.
बीजेपी के कई क़द्दावर नेताओं को दरकिनार कर पार्टी ने अंत में गढ़वाल लोकसभा सीट से तीरथ सिंह रावत पर भरोसा जताया.
कभी खंडूरी के क़रीबी रहे तीरथ सिंह रावत ने उन्हीं के बेटे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा और क़रीब तीन लाख वोटों से मनीष खंडूरी को हराया.
तीरथ सिंह रावत के सामने चुनौतियाँ
तीरथ सिंह रावत के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उनके पास काम करने के लिए सिर्फ़ आठ से नौ महीने ही बाक़ी हैं. साथ ही अगले साल विधानसभा चुनाव में उनका मुक़ाबला काँग्रेस के क़द्दावर नेता हरीश रावत से होना है.
हरीश रावत एक ऐसे नेता हैं जो राज्य में चुनाव हारने के दिन से ही दौरा करने में लगे हैं. उत्तराखंड की जनता से जुड़े तमाम मुद्दों को प्रमुखता से उठाते हैं.
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट ने बीबीसी से बताया कि तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद की ज़िम्मेदारी इसलिए सौंपी गई है क्योंकि पिछले मुख्यमंत्री के ज़रिए किए गए कुछ विवादित फ़ैसलों से जनता में जो नकारात्मक छवि भाजपा सरकार की बनी है उसको सुधारा जा सके.
गैरसैंण का मुद्दा
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इसमें सबसे पहला फ़ैसला तो हाल ही में लिया गया गैरसैंण को नई कमिश्नरी बनाने का है. दरअसल यह उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी है. इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी भी पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ही घोषित किया था. उसकी वजह यह थी कि पहाड़ के लोगों की भावनाएं गैरसैंण से जुड़ी हुई हैं.
योगेश भट्ट कहते हैं कि जब यह एक अलग राज्य बन रहा था तो एक माँग उठी थी कि पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर हो जैसे कि हिमाचल की राजधानी शिमला है. उसी तर्ज़ पर उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण में हो.
गैरसैंण उत्तराखंड की राजनीति में चर्चा का विषय बना रहता है. हर एक विधानसभा चुनाव में गैरसैंण को राजधानी बनाने का मुद्दा उठाया जाता है.
इसी को ध्यान में रखते हुए पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया था. गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करना उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के एजेंडे में था.
लेकिन गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के एक साल बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अचानक से गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने का निर्णय ले लिया.
योगेश भट्ट कहते हैं कि, "बताया जाता है कि गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने से पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपनी पार्टी के विधायकों तक से बात नहीं की, न ही स्थानीय लोगों की भावनाओं को समझा."
"गढ़वाल मंडल के दो ज़िले चमोली और रुद्रप्रयाग और कुमाऊं मंडल के दो महत्वपूर्ण ज़िले अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नई कमिश्नरी गैरसैंण का गठन कर दिया गया."
"इसकी वजह से ख़ुद पार्टी के नेताओं में भी नाराज़गी थी और कुमायूं मंडल के लोगों में भी काफ़ी नाराज़गी है. इस फ़ैसले को तीरथ सिंह रावत अगर वापस नहीं लेते तो उनके लिए क्षेत्रीय समीकरण साधना बहुत मुश्किल होगा."
वे कहते हैं कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती क्षेत्रीय संतुलन को साधने की होगी. गढ़वाल और कुमाऊं के बीच बढ़ती खाई को पाटना उनके सामने एक बड़ी चुनौती होगी.
देवस्थानम बोर्ड
योगेश भट्ट कहते हैं कि एक फ़ैसला देवस्थानम बोर्ड के गठन का है, जिसे लेकर तीर्थ पुरोहित समाज में ग़ुस्सा है. इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जब मँगलवार को त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस्तीफ़ा दिया तो गंगोत्री के तीर्थ पुरोहितों ने आतिशबाज़ी कर अपनी ख़ुशी का इज़हार किया था.
इस फ़ैसले पर पुनर्विचार करना भी तीरथ सिंह रावत के लिए एक चुनौती है, इसके लिए विधायी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा.
अफ़सरशाही
योगेश भट्ट के मुताबिक़, नए मुख्यमंत्री के सामने तीसरी सबसे बड़ी चुनौती बेलगाम अफ़सरशाही को संभालने की होगी. वे कहते हैं कि कई विधायकों ने शिकायत की है कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते. उनके क्षेत्र में कोई काम नहीं हो पा रहे हैं. लिहाज़ा उत्तराखंड में अफ़सरशाही की चुनौतियों से निपटना भी तीरथ सिंह रावत के लिए एक चुनौती साबित होगा.
वहीं चौथी चुनौती के बारे में भट्ट कहते हैं, "काँग्रेस से बीजेपी में आए विधायकों को संतुष्ट रखने की है. क्योंकि राज्य में अगले साल चुनाव होने हैं. पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के संबंध काँग्रेस से बीजेपी में आए विधायकों के साथ ठीक नहीं रहे हैं."
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"पहले भी क़यास लगाए जाते रहे हैं कि काँग्रेस से विधायक कहीं आम आदमी पार्टी में न चले जाएं क्योंकि आप ने भी उत्तराखंड में चुनाव लड़ने का एलान किया है. अगर ऐसा होता है तो आने वाले चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है, इस संतुलन को साधना भी उनके लिए बड़ी चुनौती होगी."
चौथा मुख्यमंत्री भी पौड़ी से
उत्तराखंड का पौड़ी गढ़वाल ज़िला काफ़ी मशहूर है. यहाँ से तमाम जानी मानी हस्तियां विभिन्न बड़े-बड़े पदों पर आसीन हैं.
एनएसए अजीत डोभाल से लेकर सीडीएस विपिन रावत और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, भुवन चंद्र खंडूरी और पूर्व मुख्यमंत्री एवं मौजूदा केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक भी उत्तराखंड के इसी ज़िले से आते हैं. तीरथ सिंह रावत भी सीरों, पट्टी असवालस्यूं पौड़ी ज़िले की रहने वाले हैं.
इनका जन्म नौ अप्रैल 1964 को हुआ था.
तीरथ सिंह रावत के क़रीबी रहे अजेंद्र अजय कहते हैं, "तीरथ सिंह रावत उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में अपने शुरुआती दिनों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे हैं. फिर इन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में अलग-अलग ज़िम्मेदारियों को निभाया."
वे कहते हैं, "इन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के टिकट पर छात्र संघ का चुनाव लड़ा और अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी और छात्र संघ मोर्चा (उत्तर प्रदेश) में प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे."
"इसके बाद 1997 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए तथा विधान परिषद में विनिश्चय संकलन समिति के अध्यक्ष बनाये गए."
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