कश्मीर: मुठभेड़ में हो रही मौतें और उनकी जांच की क्या है ज़मीनी हक़ीक़त?

  • आमिर पीरज़ादा
  • श्रीनगर से, बीबीसी संवाददाता
अबरार अहमद की पत्नी शरीन अख़्तर अपने मृतक पति की तस्वीर दिखा रही हैं

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अबरार अहमद की पत्नी शरीन अख़्तर अपने मृतक पति की तस्वीर दिखा रही हैं

सर्द रात थी और हवा में तनाव पसरा था. अल्ताफ़ बट के परिजन और उनके नाते-रिश्तेदार उनके शव के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे.

श्रीनगर में सुरक्षाबलों और संदिग्ध चरमपंथियों के बीच एक मुठभेड़ में सैन्य अभियान में अल्ताफ़ बट की मौत हो गई थी.

हाल के वक्त में कश्मीर में ऐसी कई मौतें हुई हैं जिनके बारे में अस्पष्टता है और परिजनों ने पुलिस के दावों को ख़ारिज किया है. अल्ताफ़ की मौत भी उन्हीं में से एक है

सुरक्षाबलों का कहना है कि बीते कुछ सालों में उन्होंने चरमपंथ विरोधी अभियानों के तहत चरमपंथियों को निशाना बनाया है. लेकिन ऐसे कई मामले हैं जिनमें मारे गए व्यक्ति के परिजनों ने सुरक्षाबलों पर मुठभेड़ के नाम पर कथित तौर पर आम लोगों को मारने और उन्हें चरमपंथी घोषित करने का आरोप लगाया है.

पुलिस के अनुसार नवंबर 15 को श्रीनगर के हैदरपोरा इलाक़े में कथित चरमपंथियों और सशस्त्र सुरक्षाबलों के बीच मुठभेड़ हुई थी.

पुलिस का कहना है कि कुछ देर चली 'गोलीबारी' में चार लोगों की मौत हुई थी. इनमें इमारत के मालिक अल्ताफ़ बट, डॉक्टर से व्यवसायी बने मुदासिर गुल, मुदासिर के साथ काम करने वाले आमिर मगरे और एक 'विदेशी चरमपंथी' बिलाल भाई शामिल थे.

पुलिस का कहना है कि आमिर और मुदासिर चरमपंथियों के सहयोगी थे जबकि अल्ताफ़ की मौत 'क्रॉस फ़ायरिंग' में हुई.

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17 नवंबर को श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन करता कारोबारी मुदासिर गुल का परिवार

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तीनों के परिवारों ने पुलिस के दावों का खंडन किया है और कहा है कि घटना में मारे गए लोग 'मासूम' थे और पुलिस ने उन्हें 'मानव ढाल' की तरह इस्तेमाल किया.

बाद में पुलिस इन तीनों के शवों को घटनास्थल से क़रीब 85 किलोमीटर दूर कश्मीर के उत्तर की तरफ ले गई और कश्मीरी विद्रोहियों के लिए बने क़ब्रिस्तान में कथित तौर पर आनन-फ़ानन में दफ़ना दिया.

लेकिन स्थानीय राजनेताओं के समर्थन से कई दिनों तक परिजनों के विरोध के कारण मुदासिर गुल और अल्ताफ़ बट के शवों को क़ब्र से बाहर निकाल कर उनके परिजनों को लौटाया गया.

हालांकि आमिर मगरे के परिजन अभी भी उनके शव की मांग कर रहे हैं. ये पहला ऐसा मामला नहीं है.

बीते कुछ सालों में कश्मीर में कई परिवारों ने भारतीय सुरक्षाबलों पर इस तरह के फ़र्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने का आरोप लगाया है.

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने हाल में जारी किए अपने बयान में कहा, "2019 से सुरक्षाबलों पर पाबंदियां लगाने के दौरान लोगों को नियमित तौर पर परेशान करने, चेक नाके पर उनके साथ दुर्व्यवहार करने, उन्हें जबरन रोकने और एक्स्ट्राज्यूडिशियल हत्या करने के आरोप लगाए गए हैं."

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अल्ताफ़ बट के परिजन ने श्रीनगर की प्रेस कॉलोनी में विरोध प्रदर्शन किया और अपने बेटे के शव की मांग की

मौतों को लेकर किए जा रहे दावों की पड़ताल

पुलिस के अनुसार उन्हें ख़बर मिली थी कि 15 नवंबर को हैदरपोरा में एक इमारत में 'चरपमंथी' मौजूद हैं, जिसके बाद वहां इलाके़ को घेर लिया गया और सर्च ऑपरेशन शुरू किया गया.

जम्मू कश्मीर पुलिस के एक आला अधिकारी ने बीबीसी को बताया, "परिसर की तलाशी की गई और इमारत में कोई चरमपंथी नहीं मिला."

पुलिस अधिकारी अपना नाम नहीं ज़ाहिर करना चाहते क्योंकि वो आधिकारिक तौर पर इस विषय पर नहीं बोल सकते.

उन्होंने कहा, "बाद में अल्ताफ़, आमिर और मुदासिर को उन कमरों को खोलने के लिए भेजा गया जिन कमरों पर ताला लगा था और पंद्रह मिनट के बाद हमें दो गोलियां चलने की आवाज़ आई. कार्रवाई के दौरान एक व्यक्ति को गोली लगी और वहीं उनकी मौत हो गई. इस व्यक्ति का नाम बिलाल भाई था जो कथित तौर पर विदेशी चरमपंथी था."

उन्होंने कहा, "जहां सीढ़ियां शुरू होती हैं वहां पर दो शव पड़े थे, एक अल्ताफ़ का था और दूसरा आमिर का. आमिर के हाथों में एक रिवॉल्वर था. दोनों की मौत हो चुकी थी."

"अब तक मुदासिर का कोई अता-पता नहीं था. दो घंटे इंतज़ार करने के बाद हम लोग ऊपर गए और हमने देखा कि सबसे ऊपर के फ्लोर पर उसका शव पड़ा था."

लेकिन इनके परिजन और प्रत्यक्षदर्शी दूसरी ही कहानी कहते हैं.

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अल्ताफ़ बट (बाईं तरफ) और मुदासिर गुल (दाईं तरफ)

40 साल के अल्ताफ़ बट एक व्यवसायी थे और उस इमारत के मालिक थे जहां कथित तौर पर गोलाबीरी की घटना हुई थी.

प्रत्यक्षदर्शियों ने बीबीसी को बताया कि शाम को क़रीब पांच बजे सादे लिबास में कुछ लोग आए और उन्होंने पूरे इलाक़े को खाली करा दिया. एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया, "सभी को अपनी-अपनी दुकानों से बाहर आने के लिए कहा गया."

"वो हर एक व्यक्ति को वहां से बाहर निकालने लगे, उन्होंने हमारे फ़ोन ले लिए और सभी आम लोगों को पास के एक शोरूम में ले जाया गया. मुदासिर और अल्ताफ़ भी वहां थे. "

प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा कि अल्ताफ़ को तीन बार सर्च के लिए बुलाया गया, लेकिन तीसरी बार जब अल्ताफ़ गए तो फिर वो वापस नहीं लौटे.

एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया, "तीसरी बार फिर से कुछ हथियारबंद लोग आए और उन्होंने पूछा कि इस इमारत का मालिक कौन है? उन्हें बाहर आने के लिए कहा गया, अल्ताफ़ ने मुदासिर गुल से साथ चलने की गुज़ारिश की, उसके बाद दोनों वापस नहीं आए. हमें उसके बाद केवल गोलियां चलने की आवाज़ सुनाई दी."

उसी रात तीनों (अल्ताफ़ बट, मुदासिर गुल और आमिर मगरे) के शवों को दफ़नाने के लिए उत्तर कश्मीर की तरफ ले जाया गया. आख़िरी रस्म निभाने के लिए वहां पर परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं था.

अल्ताफ़ के बड़े भाई अब्दुल मजीद बट ने कहा, "सुरक्षाबल हमारी सुरक्षा के लिए हैं. क्या हमें ये सुरक्षा मिल रही है? हम टैक्स देते हैं और बदले में हमें गोलियां मिलती हैं, क्या ये न्याय है?"

अल्ताफ़ के तीन बच्चे हैं और उनका सबसे छोटा बेटा केवल तीन साल का है, मजीद कहते हैं, "वो मुझसे बार-बार पूछता रहता है कि मेरे पिता को ले आइए. मैं कहां से उसे लेकर आऊं?"

इस मामले में जांच के आदेश दे दिए गए हैं, लेकिन इन लोगों के परिजनों को जांच पर भरोसा नहीं है.

अब्दुल मजीद कहते हैं, "बीते तीस सालों में किसी को न्याय नहीं मिला, हम उनसे न्याय की उम्मीद कैसे करें?"

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आमिर के पिता अब्दुल लतीफ़ मगरे

जांच

बीते सालों में इस तरह की मौतों के कुछ मामलों में जांच शुरू की गई है, लेकिन ऐसी जांच का सफलतापूर्वक पूरा होना या फिर किसी को सज़ा होना कम ही देखा गया है.

साल 2017 में मानवाधिकार कार्यकर्ता मोहम्मद एहसान उंटू ने राज्य मानवाधिकार आयोग में एक याचिका दायर कर कश्मीर में हथियारबंद विद्रोह के शुरू होने से लेकर याचिका दायर करने तक जितनी एक्स्ट्राज्यूडिशियल हत्याओं की जांच के आदेश दिए गए हैं, उनकी जानकारी मांगी.

एहसान कहते हैं, "सरकार ने अपने जवाब में लिखा कि 1989 से लेकर 2018 तक इस तरह के 506 मामलों में जांच के आदेश दिए गए हैं और इनमें से केवल एक मामले में ही जांच पूरी हो पाई है."

वो कहते हैं, "ये बस एक ढकोसला है, अगर पब्लिक की तरफ़ से दवाब होता है तो वो मामले में जांच बिठा देते हैं, लेकिन जांच कभी पूरी नहीं हो पाती."

18 जुलाई 2020 को भारतीय सेना ने दक्षिण कश्मीर के शोपियां ज़िले में एक मुठभेड़ में तीन "अज्ञात कट्टर चरमपंथियों" को मारने का दावा किया.

इसी दिन जम्मू के राजौरी के तीन मज़दूर शोपियां में लापता हो गए. वो मज़दूरी के लिए शोपियां गए हुए थे. इन "कट्टर चरमपंथियों" की पहचान नहीं की गई और उनके शवों को शोपियां से क़रीब 140 किलोमीटर दूर उत्तर कश्मीर के बारामूला में दफ़नाया गया. यहां तक कि लोगों के पहचानने के लिए उनकी तस्वीरें तक जारी नहीं की गईं.

लेकिन सोशल मीडिया पर मृत 'चरमपंथियों' की तस्वीरें वायरल हो गईं जिसके बाद राजौरी में उनके परिजनों ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई और दावा किया कि मारे गए चरमपंथी उनके परिवार से हैं.

इसके बाद सोशल मीडिया पर इसे "फ़र्जी" मुठभेड़ बताते हुए कई लोगों ने इसे लेकर चर्चा शुरू कर दी जिसके बाद भारतीय सेना और पुलिस के लिए इस मामले की जांच शुरू करना ज़रूरी हो गया.

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न्याय की मांग करते राजौरी के तीनों परिवार

सितंबर में सेना की जांच पूरी हुई जिसमें "प्रथम दृष्ट्या" ये पाया गया कि सेना ने आफ़्स्पा (आर्म्ड फ़ोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) के तहत उसे मिली ताक़त का "ग़लत इस्तेमाल" किया. जांच में ये भी कहा गया कि जिस अफ़सर पर आरोप था उसके ख़िलाफ़ आर्मी ऐक्ट के तरह अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की गई है.

आफ़्स्पा क़ानून सुरक्षाबलों को तलाशी करने और ज़ब्त करने से जुड़ी ख़ास शक्तियां देता है. ये किसी अभियान के दौरान ग़लती से या अपरिहार्य कारणों से आम नागरिक मारे जाने के मामले में सैनिकों को सुरक्षा भी प्रदान करता है.

लेकिन कश्मीर और पूर्वोत्तर के मणिपुर में इस क़ानून को "फ़र्जी हत्याओं" के लिए ज़िम्मेदार क़रार दिया जाता रहा है और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस क़ानून का ग़लत इस्तेमाल किया जाता है.

पुलिस जांच ने कहा कि जो तीन लोग मारे गए वो आम नागरिक थे और उनका चरमपंथ से कोई नाता नहीं था और ये वही तीन लोग थे जो जुलाई में शोपियां से लापता हुए थे.

जांच में भारतीय सेना के एक अधिकारी और दो आम नागरिकों का भी नाम लिया गया है और उन पर हत्या, अगवा करने और सबूतों से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया गया है.

वकील हबील इक़बाल कहते हैं, "ये मामला फ़िलहाल शोपियां कोर्ट में लंबित है, लेकिन केवल दो आम नागरिकों को ही सज़ा दी गई है जो कि मामले में मुख्य अभियुक्त नहीं हैं. इस मामले में मुख्य अभियुक्त सैन्य अफ़सर हैं."

फ़र्जी मुठभेड़ के इस मामले में जिन अफ़सर पर आरोप है उन पर सैन्य अदालत में मामला चल रहा है. जहाँ की कार्यवाही तक आम नागरिकों की पहुंच नहीं है.

इक़बाल कहते हैं, "आफ़्स्पा जैसे क़ानून की वजह से हमें ये नहीं पता कि मामले के मुख्य अभियुक्त अफ़सर के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हो रही है, क्योंकि सेना के ट्राइब्यूनल में जो चलता है उसके बारे में बाहर जानकारी नहीं मिल पाती. आपको वाक़ई नहीं पता होता कि वहां क्या चल रहा है."

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कश्मीर में "आम लोगों" की हत्या के बारे में अपने हाल के बयान में कहा कि सुरक्षाबलों के द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार को लेकर "कोई जवाबदेही नहीं है."

बयान में कहा गया है कि आफ़्स्पा जैसे क़ानून सुरक्षाबलों को एक तरह से क़ानूनी प्रक्रिया से "प्रभावी सुरक्षा" देते हैं. इस वजह से भारत सरकार ने "आम आदालतों में सुरक्षाबलों के ख़िलाफ मामला चलाए जाने की इजाज़त नहीं दी है."

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आमिर मगरे की बहन महबूबा बेगम

इस बात को डेढ़ साल का वक्त हो चुका है, लेकिन अब तक अभियुक्तों के ख़िलाफ़ आरोप तय नहीं हो पाए हैं और सैन्य अदालत में क्या चल रहा है इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.

अबरार अहमद की पत्नी, शरीन अख़्तर के लिए उम्मीद की किरण दिन-ब-दिन धीमी होती जा रही है.

21 साल की शरीन कहती है, "मैं अधिकारियों से कुछ नहीं चाहती, मैं केवल ईश्वर से न्याय चाहती हूं. अब दो साल पूरे होने को आए हैं. वो न्याय कहां है जिसका हमसे वादा किया गया ?"

बीबीसी ने अभियुक्त अफ़सर के ख़िलाफ़ चल रहे कोर्ट मार्शल के बारे में जानकारी के लिए भारतीय सेना से संपर्क की कोशिश की, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

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1990 से अब तक न जाने कितने मकान तबाह हो चुके हैं.

न्याय की उम्मीद

30 दिसंबर 2020 को कश्मीर में सुरक्षाबलों ने दावा किया कि उन्होंने श्रीनगर शहर के बाहरी इलाक़े लायलपुरा में "एक मुठभेड़" में तीन "चरमपंथियों" को मार दिया है.

पुलिस के एक बयान के अनुसार ये मुठभेड़ 29 दिसंबर की शाम को शुरू हुई थी जब भारतीय सेना के चरमपंथ रोधी यूनिट राष्ट्रीय राइफ़ल्स ने "पुख़्ता जानकारी" के आधार पर एक इलाक़े को घेरकर वहां तलाशी अभियान शुरू किया.

"जल्द ही मौक़े पर" कश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के लोग भी पहुंचे. पुलिस के अनुसार गोलीबारी 30 दिसंबर को सवेरे 11.30 पर ख़त्म हुई और "छिपे हुए तीनों चरमपंथियों को" मार दिया गया.

इस तीन संदिग्ध मृत "चरमपंथियों" की पहचान एजाज़ मकबूल ग़नी, अथर मुश्ताक़ वानी और ज़ुबैर अहमद लोन के रूप में की गई.

लेकिन "मुठभेड़" के तुरंत बाद मारे गए तीनों लोगों के परिवारों ने आर्मी और पुलिस के बयानों को ख़ारिज किया और दावा किया कि ये तीनों चरमपंथी नहीं थे बल्कि इन्हें कथित तौर पर "फ़र्जी मुठभेड़" में मारा गया है.

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मुश्ताक अहमद वानी अपने युवा बेटे की तस्वीर दिखाते हुए

कथित मुठभेड़ में मारे गए 17 साल के अथर मुश्ताक़ वानी के पिता 42 साल के मुश्ताक अहमद वानी ने बीबीसी को बताया कि उनका बेटा 11वीं कक्षा का छात्र था और अपनी मौत से पहले वार्षिक परीक्षा के चार पेपर दे चुका था.

20 अप्रैल 2021 को कक्षा 11वीं की परीक्षा के नतीजे आए थे. मुश्ताक ने बीबीसी से कहा, "ज़रा देखिए वो सभी परीक्षाओं में पास हो गया है, बस उर्दू में पास नहीं हो सका क्योंकि उर्दू की परीक्षा से एक दिन पहले उसे मार दिया गया."

मुश्ताक बताते हैं कि 29 दिसंबर को उनका बेटा घर पर था, फिर वो श्रीनगर के लिए निकला. वो कहते हैं, "उसने परिवार से कहा था कि वो सवेरे लौट आएगा."

वो कहते है कि अगर उनका बेटा चरमपंथी था तो सेना को ये साबित करना चाहिए क्योंकि उनके परिवार को भरोसा है कि चरमपंथियों से उसका कोई नाता नहीं था.

मुश्ताक सवाल करते हैं, "पुलिस में उसके ख़िलाफ़ कोई रिपोर्ट नहीं है. वो चरमपंथी कैसे हो सकता है?"

तब से मुश्ताक ने अपने घर के पास क़ब्र खोदी है और अपने बेटे के शव की मांग कर रहे हैं. उनके बेटे के शव को पुलिस ने उनके घर से 125 किलोमीटर दूर दफ़नाया है.

मुश्ताक कहते हैं, "जब मैंने विरोध किया और न्याय की मांग की. मैंने अपने बेटे के शव की मांग की तो मुझ पर यूएपीए लगा दिया गया. मुझे चुप कराने के लिए ऐसा किया गया."

ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) यूएपीए के प्रावधानों के तहत किसी भी अभियुक्त की ज़मानत तक़रीबन असंभव है. कार्यकर्ता इसे क्रूर क़ानून कहते हैं.

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मुश्ताक को न्याय की उम्मीद है और वो अपने बेटे के शव की मांग जारी रखे हुए हैं. 2020 के बाद से भारतीय अधिकारियों ने चरमपंथियों के शव उनके परिजनों को सौंपना बंद कर दिया, और उनके शवों को गुपचुप तरीके से किसी दूर जगह पर दफ़नाना शुरू किया.

मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले जानकार कहते हैं कि इससे सुरक्षाबलों को मानवाधिकारों का हनन करने की हिम्मत मिलती है.

वकील हबील इक़बाल कहते हैं, "जब आप मृतक का शव उसके परिजन को नहीं सौंपते हैं तो यह एक तरह के सामूहिक दंड के बराबर होता है और साथ ही इससे पारदर्शिता की कमी होती है. इससे उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी तय नहीं हो पाती जिसने एक्स्ट्राज्यूडिशियल या मनमाने तरीके से हत्या की हो."

लेकिन सुरक्षा एजेंसियां इस नज़रिए को चुनौती देती हैं.

सुरक्षा एक्सपर्ट्स कहते हैं कि कश्मीर में "चरमपंथ को ग्लैमराइज़" करने के लिए चरमरपंथियों की शवयात्राएँ निकाली जाती हैं. उनका कहना है कि इसी कारण अधिकारियों ने मारे गए चरमपंथियों के शव परिजनों को न देने का क़दम उठाया.

जम्मू कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक कुलदीप खोड़ा कहते हैं कि मुठभेड़ के मामलों में परिवारों के दावों का कोई ठोस आधार नहीं होता और ये सेना के काम को अमान्य ठहराने की कोशिश होते हैं.

कुलदीप खोड़ा कहते है, "सुरक्षाबलों का उत्साह कम करने के इरादे से इस तरह के दावे किए जाते है. बीते तीन दशकों से जम्मू कश्मीर और पंजाब में सुरक्षाबलों के सामने इस तरह की मुश्किलें आ रही हैं. एक वक्त के बाद सुरक्षाबल भी ये जानने लगे हैं कि अगर वो सही इरादे से काम करेंगे तो उन्हें अलग-अलग तत्वों द्वारा किए जा रहे दावों के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए."

कश्मीर में हिंसा की कहानी, यहां इसके नैरेटिव को नियंत्रित करने की भी कहानी है. हालांकि यहां मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा.

(ये रिपोर्ट अक़ीब जावेद की मदद से तैयार की गई है)

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