किसान आंदोलन: ग़म में डूबे पंजाब के परिवार जिनके ज़ख्मों का कोई मरहम नहीं
- राघवेंद्र राव
- बीबीसी संवाददाता, पंजाब से लौटकर

इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
बलजिंदर कौर (मनप्रीत सिंह की मां) गांव मंडी कलां, बठिंडा में अपने घर पर
पंजाब में ये बुवाई का मौसम है. लेकिन इस राज्य के लोग अभी तक उस दर्द की फ़सल को नहीं भुला पाए हैं जो उन्होंने पिछले एक साल में काटी है.
भारत के खाद्यान्न भंडार में बड़ा योगदान देने वाले पंजाब के किसान पिछले एक साल से राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर उन तीन नए कृषि क़ानूनों का विरोध करते दिखे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने संसद में पारित करवाया था.
गुरुवार को संयुक्त किसान मोर्चा ने बीते वर्ष 26 नवंबर से चल रहे किसान आंदोलन को स्थगित करने का एलान कर दिया और साथ ही कहा कि 11 दिसंबर से किसान धरना स्थल से हटना शुरू कर देंगे.
केंद्र सरकार ने भले ही तीनों विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया हो और दोनों पक्षों के बीच की खींचतान कम होती दिख रही है, लेकिन पंजाब के दर्जनों परिवारों के लिए इस बात के अब कोई मायने नहीं रह गए हैं.
इमेज स्रोत, Huw Evans picture agency
उजड़े परिवार
ये वो परिवार हैं जिन्होंने अपनों को किसान आंदोलन के दौरान खोया है. ये वो परिवार हैं जिनके सदस्य किसानों के विरोध प्रदर्शन में भाग लेने गए, लेकिन अपने घर वापस ज़िंदा नहीं लौटे.
इनमें से कई लोगों की अत्यधिक ठंड से, कइयों की सड़क हादसों में और कुछ की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई.
जहां पंजाब का गांव-गांव किसान आंदोलन के दौरान हुई इन मौतों के शोक में डूबा हुआ है. वहीं, ,हाल ही में केंद्र सरकार ने देश की संसद को ये बताया कि उसके पास दिल्ली और उसके आसपास हुए आंदोलनों के दौरान मारे गए किसानों की संख्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है और इसलिए मारे गए लोगों के परिजनों को आर्थिक सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता.
बलबीर सिंह राजेवाल भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के प्रमुख और किसान आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा हैं.
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा, "सरकार ने कहा कि उनके पास कोई रिकॉर्ड नहीं है. हमने उन्हें उन सभी लोगों की सूची भेजी है जिन्होंने किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान अपनी जान गँवाई. इस सूची में 700 से ज़्यादा नाम हैं जिनमें से 600 से ज़्यादा नाम सिर्फ पंजाब से हैं."
ये भी पढ़ें -
इमेज स्रोत, Reuters
कैसे बनी सूची?
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
एक बड़ा सवाल ये है कि ये सूची तैयार कैसे की गई?
किसान आंदोलन के एक प्रमुख नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, "आंदोलन की शुरुआत में, कुछ वॉलंटियर्स ने विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने का काम अपने ऊपर ले लिया था. हमने सबूतों को देखा जो स्थापित करते हैं कि इन लोगों की मौत आंदोलन से संबंधित थी. यह सबूत या तो अख़बारों में छपी खबरें थीं या वो पुष्टि जो किसान संगठनों ने दी."
योगेंद्र यादव कहते हैं कि इस सूची को संकलित करते समय सभी विवरणों को सावधानीपूर्वक सत्यापित किया गया था.
इस सूची के मुताबिक 8 दिसंबर तक किसान आंदोलन में 714 लोगों की मौत हुई. इस सूची को एक ब्लॉग पर देखा जा सकता है.
योगेंद्र यादव का कहना है कि कई लोग विरोध स्थलों पर मारे गए, कुछ अन्य की मौत विरोध स्थलों से आने-जाने के दौरान हुई और कुछ मामलों में जो लोग विरोध स्थलों पर प्रदर्शन के दौरान बीमार पड़ गए, उन्हें इलाज के लिए घर वापस ले जाने के बाद उनकी मौत हो गई.
बलबीर सिंह राजेवाल कहते हैं, "एक सरकार को अपने ही लोगों के साथ इस तरह से व्यवहार करते हुए देखना दुखद है. क्या इस देश में किसान मायने रखते हैं? सरकार हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे हम इस देश के नागरिक ही नहीं हैं."
किसानों के विरोध का नेतृत्व करने वाला संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) केंद्र सरकार से विरोध प्रदर्शनों में मारे गए लोगों के परिवारों को मुआवज़ा देने और उनके कम से कम एक सदस्य को नौकरी देने की मांग कर रहा है.
दिल्ली की ओर जाने वाली कई सड़कों पर किसानों ने डेरा डाला, लेकिन दिल्ली का सिंघु बॉर्डर इस विरोध का केंद्र बनकर उभरा. ये वो जगह है जहाँ हज़ारों की संख्या में किसान आये और महीनों तक विरोध प्रदर्शन पर डटे रहे.
ये भी पढ़ें -
इमेज स्रोत, Reuters
'ये दर्द सहा नहीं जाता. मेरा हर वक़्त रोने का मन करता है'
सिंघु बॉर्डर से क़रीब 300 किलोमीटर दूर पंजाब के बठिंडा ज़िले के मंडी कलां गाँव में एक किसान दंपति आज भी अपने इकलौते बेटे की मौत से जूझ रहे हैं.
बलजिंदर कौर अपने 24 साल के इकलौते बेटे मनप्रीत सिंह के बारे में बात करती हैं तो अपने आंसू रोक नहीं पाती. मनप्रीत भी अपने गाँव के कई लोगों की तरह विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने सिंघु बॉर्डर गए थे. इसी साल 6 जनवरी को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई थी.
बलजिंदर कौर कहती हैं, "वह कहता था कि सभी किसान अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं तो मैं इस लड़ाई का हिस्सा कैसे नहीं बन सकता. हम कड़ी मेहनत करते थे और एक सुखी जीवन बिता रहे थे. मैंने कभी नहीं सोचा था कि हमारे साथ ऐसा कुछ हो सकता है."
इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
बलजिंदर कौर
मनप्रीत के पिता गुरदीप सिंह बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपने बेटे को प्रदर्शन में जाने से मना किया था क्योंकि वह उनका इकलौता बेटा था.
गुरदीप सिंह कहते हैं, "उसने कहा कि अगर हम जैसे किसान इस विरोध में हिस्सा नहीं लेते हैं, तो हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ खो जाएगा. हम तो उसकी शादी करने की सोच रहे थे. उसने लड़की की फ़ोटो तक देख ली थी और शादी के लिए हाँ कह दिया था. लेकिन वो कहता था कि उसका अभी धरना स्थल पर होना ज़्यादा ज़रूरी है."
अपने आंसुओं से लड़ते हुए बलजिंदर कौर कहती हैं, "मुझसे ये दर्द सहा नहीं जाता. मेरा हर वक़्त रोने का मन करता है. मुझे डर है कि आने वाले वक़्त में हमारा क्या होगा. हम क्या करेंगे? अगर उन्होंने (सरकार ने) पहले ही क़ानून वापस ले लिया होता तो इतने परिवारों ने अपने बेटों को नहीं खोया होता."
इस परिवार को पंजाब सरकार ने भले ही 5 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया है, लेकिन इससे इस शोक-संतप्त परिवार को कोई बड़ी रहत नहीं मिली है. बलजिंदर कौर पूछती हैं, "हमारे पास जो कुछ है उसे देने के लिए हम तैयार हैं. क्या सरकार हमें हमारा बेटा वापस दे सकती है?"
इसी गाँव में कुछ गलियों की दूरी पर एक बेटा अभी भी इस बात को नहीं मान पा रहा कि उसकी माँ अब नहीं रहीं. 65 साल की बलबीर कौर दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के विरोध प्रदर्शन में नियमित तौर पर जाती थीं. इस साल मार्च में भी वो गईं, लेकिन ये सफ़र उनका आखिरी साबित हुआ. उनकी भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई.
बलबीर कौर के बेटे चमकौर सिंह कहते हैं, "हमारे गाँव की कई बूढ़ी औरतें ट्रैक्टर ट्रॉलियों में बैठ कर धरना स्थल पर जाती थीं. मेरी मां उनमें से एक थीं. वहाँ वो जो कुछ भी मदद कर सकती थी, करती थी, चाहे वो खाना बनाना हो या भोजन परोसना हो. मुझे अब भी यक़ीन नहीं हो रहा है कि वो नहीं रहीं. इस नुक़सान की भरपाई कोई नहीं कर सकता."
इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
चमकौर सिंह अपनी दिवंगत मां बलबीर कौर की एक तस्वीर के साथ
गाँव दर गाँव वही कहानी
चेहरे बदलते रहे और नाम भी. लेकिन गांव दर गांव ग़म की कहानी तक़रीबन एक जैसी ही थी.
मंडी कलां गाँव से क़रीब 130 किलोमीटर दूर पटियाला के गांव सफेड़ा में एक और मां अपने बेटे का एक साल से मातम मना रही हैं.
परमजीत कौर का 23 साल का बेटा गुरप्रीत सिंह पिछले साल दिसंबर में विरोध प्रदर्शन में शामिल होने गया था. सिंघु बॉर्डर पर कुछ दिन रहने के बाद वो वापस घर जा रहा था जब एक अन्य वाहन ने उस ट्रैक्टर ट्रॉली को टक्कर मार दी जिसमें वो सवार था. इस हादसे में गुरप्रीत की मौत हो गई.
इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
परमजीत कौर (गुरप्रीत सिंह की मां) गांव सफेड़ा, पटियाला में अपने घर पर
गुरप्रीत की माँ परमजीत कौर कहती हैं, "इस बात के क्या मायने रह गए कि क़ानूनों को वापस ले लिया गया है. क्या इससे हमारा बेटा वापस आ जाएगा? कितनी मौतें न होतीं अगर ये क़ानून नहीं बनाए जाते."
अपने बेटे की याद में ग़मज़दा परमजीत कौर कहती हैं, "हमने उसे बहुत प्यार से पाला था. अब वो समय आया था जब वो हमारी देखभाल करता. और अब वो ही चला गया है. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सरकार अब क्या करती है. हमारी ज़िंदगी तबाह हो गई है. हमारी ज़िंदगी की रोशनी चली गई है."
परमजीत कौर आज भी याद करती हैं कि कैसे उनका बेटा कहता था कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की ज़रूरत है और यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे एक साथ लड़ने की ज़रूरत है.
वो कहती हैं, "मैं अब भी उसे इधर-उधर ढूंढती रहती हूँ. मुझे लगता है कि वो कभी भी अचानक वापस आ जाएगा. मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा है कि वो अब कभी नहीं आएगा."
इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
बलविंदर सिंह (गुरप्रीत सिंह के पिता) गांव सफेड़ा, पटियाला में अपने घर पर
गुरप्रीत के पिता बलविंदर सिंह को आज भी उस दिन का अफ़सोस है जब उन्होंने अपने बेटे को दिल्ली में विरोध स्थल पर जाने की मंज़ूरी दी थी.
अपने आंसुओं से लड़ते हुए बलविंदर सिंह कहते हैं, "अगर मुझे पता होता कि ऐसा होगा तो मैं उसे कभी जाने नहीं देता."
जिस सड़क हादसे में गुरप्रीत की मौत हुई, उसी ट्रैक्टर ट्रॉली में सवार उसके ताया लाभ सिंह की भी मौत हो गई थी.
लाभ सिंह की पत्नी अमरजीत कौर दुःख से घिरी हैं, लेकिन साथ ही ही उन्हें अपने पति पर गर्व भी है.
इमेज स्रोत, BBC@Shubham Koul
अमरजीत कौर (लाभ सिंह की पत्नी) गांव सफेड़ा, पटियाला में अपने घर पर
अमरजीत कौर कहती हैं, "जिस दिन वो जा रहे थे, उन्होंने कहा था कि वो या तो लड़ाई जीतकर वापस आएंगे या शहादत देकर."
ये लाभ सिंह की धरनास्थल की चौथी यात्रा थी और ये उनकी आखिरी साबित हुई.
पंजाब के इन परिवारों के ज़ख्म हरे हैं और न जाने उन्हें भरने में कितना वक़्त लगे. अगर ये ज़ख्म भर भी गए तो भी इनके निशान इन परिवारों के ज़हन में ज़िंदगी भर रहेंगे. जो इन परिवारों ने खोया है उसकी भरपाई शायद कभी नहीं हो पाएगी.
ये भी पढ़ें:-
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)