जाति की तलवार बनेगी हिंदुत्व की काट?

गुरुवार को दिल्ली में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के घर पर लगभग 'वीपी सिंह युग' की वापसी जैसा माहौल था.
मुख्य तौर पर लोहिया-जेपी धारा के कई नेता लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और कमल मोरारका इस बैठक में शामिल थे. नई पीढ़ी के नेताओं में राष्ट्रीय लोकदल के दुष्यंत चौटाला शामिल थे.
इस बैठक के बाद बिखरे हुए 'जनता परिवार' के फिर एकजुट होने की संभावना जताई जाने लगी और कोई बीस बरस तक लालू और मुलायम की ओर पीठ किए रहे नीतीश कुमार और शरद यादव मृतप्राय जनता परिवार में फिर से प्राण फूँकने की कोशिश करते नज़र आए.
अभी यह कहना मुश्किल है कि ये कोशिश कितनी आगे बढ़ेगी और इसे कितनी कामयाबी मिलेगी. पर 'जनता परिवार' के सामने चुनौतियां बड़ी हैं.
हिंदुत्व की काट जाति में?
यह तय है कि नरेंद्र मोदी के उत्थान में ‘जनता परिवार’ के नेता अपना पतन देख रहे हैं.
पतन ही नहीं बल्कि यह लगने लगा है कि राजनीति का नरेंद्र मोदी ब्रांड अगर भारतीय वोटर के मानस में अपनी गहरी पैठ बनाने में कामयाब हो गया तो ये उनके लुप्तप्राय होने की गारंटी होगी. वो निश्चय ही मोदी की राजनीति से डरे हुए हैं.
इसकी एक झलक तब मिली जब लोकसभा चुनाव के लिए मतदान संपन्न होने के तुरंत बाद हमने जनता दल (युनाइटेड) के एक बड़े नेता को बीबीसी हिंदी के दफ़्तर आमंत्रित किया.
अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने कहा, "अब जाति को उभारना पड़ेगा". इस वाक्य में आज की जा रही कोशिशों के बीज निहित थे.
"जनता परिवार" या समाजवादी/पिछड़ी-जातियों की राजनीति करने वाले नेताओं को इस बात का गहरा अहसास है कि हिंदू वोटरों का जातीय खांचों से ऊपर उठकर एक ब्लॉक के तौर पर मतदान करना लालू-शरद-मुलायम-नीतीश इत्यादि के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी अगर जात-पांत के विरोध में बात करते रहे हैं तो उसका मक़सद हिंदुओं को एक अविभाज्य समूह के तौर पर इकट्ठा करना है जिसमें अगड़े, पिछड़े, दलित और आदिवासी वोटर ख़ुद को सिर्फ़ हिंदू वोटर मानें.
मुलायम सिंह यादव हों या लालू, नीतीश और शरद– पिछड़ी जातियों को आत्मसम्मान दिलाने में इन सब ने -- अपनी अपनी कमज़ोरियों के दायरे में ही सही -- काफ़ी जद्दोजहद की है.
ये नेता अगले बरसों में बिहार और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में मध्यवर्ती जातियों को फिर से गोलबंद करके नरेंद्र मोदी के तिलिस्म को तोड़ने का सपना देख रहे हैं.
पर कौन भरोसा करेगा इन पर?
विश्वास का संकट शायद 'जनता परिवार' के नेताओं का सबसे बड़ा संकट है.
पहले 1977 में जनता पार्टी, फिर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और उसके बाद एचडी देवेगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल की सरकारें जिस तरह बनीं और भीतर से ही ढहा दी गईं, उससे 'जनता परिवार' की विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा.
लोहिया-जेपी धारा के नेताओं को भारत की जनता ने आपातकाल के दौरान और उसके बाद से राजनीति के केंद्रीय अखाड़े में देखा है.
आपातकाल के बाद ग़ैर-काँग्रेस वाद की लहर पर सवार होकर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र की सत्ता तक पहुँची जनता पार्टी एक ऐसी पंचमेल खिचड़ी थी.
इसमें जनसंघ-आरएसएस के अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी से लेकर खाँटी समाजवादी चंद्रशेखर, राज नारायण और जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ साथ चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल जैसे नेता भी शामिल थे.
उस समय देश भर के वोटरों ने इस अनुभव से बहुत उम्मीदें लगा ली थीं पर एक बरस से भी कम समय में चौधरी चरण सिंह ने सरकार को पलीता लगा दिया और इंदिरा गांधी को फिर से एकमात्र और ज़्यादा भरोसेमंद विकल्प के तौर पर पुनर्स्थापित करने में मदद की. चरण सिंह ने ये पलीता जनता पार्टी सरकार को नहीं बल्कि ग़ैर-कांग्रेसवाद के विचार को लगा दिया.
नवंबर 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद काँग्रेस को मिले जन समर्थन को राजीव गांधी सहेजकर नहीं रख पाए. काँग्रेस से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 'जनता परिवार' की मदद से केंद्र में सरकार बनाई.
इतिहास ने एक बार फिर से ख़ुद को दोहराया और पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के राजनीतिक नतीजों से घबरा कर लालकृष्ण आडवाणी ने वीपी सिंह सरकार से बैसाखी छीन ली और राम रथयात्रा पर निकल पड़े.
वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद काँग्रेस ने चार महीने तक समर्थन देकर चंद्रशेखर को सरकार चलाने दी और फिर उसे भी गिरा दिया.
अब एक बार फिर पिछड़ी जातियों के क्षेत्रीय क्षत्रपों के पुराने चेहरे एक साथ अख़बारों और टीवी के पर्दे पर नज़र आ रहे हैं.
इस 'जनता परिवार' के नेताओं की तुलना एक बार बीजू पटनायक ने खांची में रखे केकड़ों से की थी जो ऊपर उठने वाले की टांग खींचकर फिर नीचे गिरा लेते हैं.
इसीलिए इनकी तस्वीरें देखने के बाद सबसे पहला सवाल यही पूछा जा रहा है - क्या ये अवसरवादी गठबंधन है जिसका बनने से पहले ही बिखरना लाज़िमी है?
कौन नेता, कौन अनुयायी?
लालू प्रसाद यादव बड़े कि नीतीश कुमार? शरद यादव बड़े कि लालू? कौन नेता और कौन अनुयायी? ये सवाल तीसरी धारा के इन नेताओं के सामने हमेशा रहा है.
नेताओं में वर्चस्व बनाने का ये भाव भी कुनबे के बिखराव में कई बार एक कारण रहा है.
ग़ैर काँग्रेस-ग़ैर बीजेपी राजनीति में भरोसा करने वाले मतदाताओं ने काफ़ी बार तीसरी धारा की ओर उम्मीद से देखा है और उन्हें मायूस होना पड़ा है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)