राहिल शरीफ़ के बाद अवाम के सामने एक और चुनौती?

  • एम इलियास ख़ान
  • बीबीसी संवाददाता, इस्लामाबाद
राहिल शरीफ़

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सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ़ फ़ौज से अपनी रवानगी के आखिरी दिनों में पाकिस्तान में इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय हैं.

पाकिस्तान में हर कहीं उनके पोस्टर और तस्वीरें लगी दिख जाती हैं.

मीडिया रिपोर्टों में उन्हें 'पाकिस्तान का चहेता सेना प्रमुख' के तौर पर पेश किया जा रहा है तो वहीं ट्विटर पर लोगों की प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आई हुई है.

कई लोग इस बात से भी ख़ुश है कि उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए कोई और रास्ता नहीं अपनाया और वे अपनी रिटायरमेंट की योजना पर टिके रहें.

पाकिस्तान की फ़ौज का वहां की हुकूमत में ख़ासा दखल रहता है. आज़ादी के बाद से अब तक तीन बार पाकिस्तान में फ़ौज की ओर से तख्ता पलट किया जा चुका है.

सेना प्रमुख को आम तौर पर पाकिस्तान में सबसे ताकतवर शख़्स के तौर पर देखा जाता है. यहां तक कि प्रधानमंत्री से भी ऊपर.

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राहिल शरीफ़ साल 2013 की सर्दियों में सेना प्रमुख बने थे. जनरल राहिल शरीफ़ की पारिवारिक पृष्ठभूमि फ़ौज की रही है.

उनके अब्बा फ़ौज में मेजर थे और उनके मरहूम बड़े भाई मेजर शब्बीर शरीफ़ को भी पाकिस्तान के सबसे बड़े वीरता सम्मान से नवाज़ा गया था.

राहिल शरीफ़ ने सेना प्रमुख की जिम्मेवारी संभालने के कुछ ही महीने के बाद वज़रिस्तान में चरमपंथियों के ख़िलाफ़ आक्रमक रूख अपनाया था.

पश्चिमी देशों की ओर से हमेशा दबाव बनाते रहने के बावजूद पाकिस्तान इस कार्रवाई से अब तक हिचकिचाता रहा था.

उनकी निगरानी में पारामिलिट्री सिंध रेंजर्स ने पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर कराची को चरमपंथियों, आपराधिक तत्वों और राजनीतिक भ्रष्टाचार से मुक्त करने का जिम्मा उठाया.

इसके नतीजे सार्थक निकलें. कराची में अपराध दर बहुत कम हो गया.

इसके अलावा जनरल शरीफ़ चीन के मदद से बनने वाले ग्वादर बंदरगाह को सुचारुपूर्ण तरीके से खोलने के लिए प्रतिबद्ध रहे.

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चीन इस बंदरगाह की मदद से इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहता है.

प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने फ़ौज के दो वरिष्ठ अधिकारियों के ऊपर जनरल शरीफ़ को तरजीह देते हुए उन्हें सेना प्रमुख के लिए चुना था.

लेकिन नवाज़ शरीफ़ ने अगर यह सोचा था कि जनरल शरीफ़ सिर्फ़ एक फ़ौजी के तौर पर अपने आप को सीमित रखेंगे और जम्हूरियत का सम्मान करेंगे तो ऐसा नहीं हो सका.

पाकिस्तानी फ़ौज पर नज़र रखने वाली और विशेषज्ञ आयशा सिद्दीक़ा का कहना है, "जनरल शरीफ़ के आने के बाद पाकिस्तानी फ़ौज की आलोचना को लेकर गुंजाइश और बदतर हो गई है."

वे कहती हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने 'संवेदनशील' और लंबे वक़्त से चले आ रहे मसलों मसलन कथित तौर पर फ़ौज का कुछ चरमपंथी समूहों को शह देने जैसे मुद्दों पर बिल्कुल खामोशी ओढ़ ली है.

इसके बदले मीडिया ने फ़ौज के पुराने रवैये का ही साथ दिया है जो हर हमले में भारत और अफ़ग़ानिस्तान की गुप्तचर संस्थाओं का हाथ होने की बात करता रहता है.

फ़ौज यह इल्ज़ाम लगाता रहा है कि ये संस्थाएं चीन और पाकिस्तान के इकॉनॉमिक कॉरिडॉर को नुकसान पहुंचाने में लगे हुए हैं.

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सिद्दीक़ा कहती हैं कि फ़ौज का आर्थिक रूप से सक्षम होने का मतलब है कि वो "किसी के प्रति जिम्मेवार नहीं हैं."

2007 में अनुमान लगाया गया था कि फ़ौज की निजी संपत्ति करीब 20 अरब डॉलर की है.

इसके अलावा राजनीतिक रूप से सशक्त होने की वजह से पाकिस्तान को मिलने वाली विदेशी सहायता का बड़ा हिस्सा फ़ौज को जाता है.

9/11 के बाद से चरमपंथ से निपटने के लिए मिलने वाली सहायता राशि भले ही अब खत्म होने के कगार पर पहुंचने वाली है लेकिन इसी बीच अब पाकिस्तान को चीन से अरबों डॉलर की मदद दी जा रही है.

कई दशकों से पाकिस्तान की दूसरी संस्थाएं भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के कारण बर्बाद हो रही हैं तो वहीं फ़ौज संपन्न और समृद्ध होता जा रहा है.

जनरल शरीफ़ के कार्यकाल में भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है.

सिद्दीका कहती हैं, "उनके कार्यकाल में फ़ौज ने अपने दायरे से बाहर निकलते हुए दूसरी संस्थाओं पर भी अपना प्रभाव बढ़ाया है. इससे हमारी नीतियों में सेना का दखल बढ़ा है."

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दिसंबर 2014 में पेशावर के एक स्कूल पर हुए हमले ने फ़ौज को अपनी राजनीतिक प्रभाव को मजबूत करने का मौका दिया.

अब जब राहिल शरीफ़ अपने दायित्व से मुक्त हो रहे हैं, अहम सवाल यह है कि नए सेना प्रमुख फ़ौज के राजनीतिक और वित्तीय प्रभाव को कायम रखते हुए इसे किस तरह और बढ़ाएंगे.

इसके लिए जो कुछ अनिवार्य शर्त जैसा है, उसमें मजहबी होना इसके साथ ही साथ भारत और अमरीका विरोधी होना जरूरी है.

इसलिए पाकिस्तान की अवाम को एक नए दौर के लिए तैयार रहना चाहिए जिसमें वो एक नियंत्रित लोकतंत्र के अंदर ख़ुद के अधिकारों और भविष्य के लिए जूझ रहे हैं.

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