ट्रेनों का क़ब्रिस्तान और सद्दाम का वो ड्राइवर
- अहमद तवाइज़
- बग़दाद से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

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कभी यहां से येरुशलम और लंदन तक ट्रेन चलाने की बात होती है हालांकि अब यहां से चलनेवाली सबसे लंबी रात ट्रेन रात भर का सफ़र तयकर बसरा तक जाती है.
दशकों तक यहां काम कर चुके ड्राइवर अली अल-कारखी कहते हैं कि इस रेल नेटवर्क का बड़ा हिस्सा कब्रिस्तान जैसा बनकर रह गया है.
बग़दाद के सेंट्रल रेलवे स्टेशन की डिज़ाइन ब्रितानी ऑर्किटेक्चरों ने तैयार की थी.
ये वैसे तो 1950 के दशक में बनकर तैयार हुआ था लेकिन 2003 में इराक़ पर हुए अमरीकी हमले के बाद इसे फिर से बनाया गया.
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40 साल के ट्रेन चालक अली अल-कारखी कहते हैं, "मैं चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद मुझे लोग उस व्यक्ति के तौर पर याद करें जिसने कभी किसी काम को करने में आनाकानी नहीं की."
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कभी यहां से इसराइल के येरुशलम और हज़ारों मील दूर लंदन तक ट्रेन चलाने की बात होती थी. लेकिन उसकी हद महज़ रात भर का सफ़र बसरा है.
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जो गाड़ियां चल रही हैं उनकी तादाद सिर्फ़ छह हैं. दो सौ से ज्यादा ड्राइवर बेरोज़गार हो चुके हैं.
सुरक्षा का मसला अलग है - पैसेंजरों को सामान लाइन में रखकर जांच करवानी होती है. उसे कुत्तों को सूंघने देना पड़ता है.
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अल-कारखी 'जब वो चार साल के थे तब से उन्हें ट्रेनों से लगाव हो गया, घर के पास से गुज़रती ट्रेनों को देखकर. गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ सुनते ही वो दौड़कर अपनी बालकोनी में चले जाते.'
उनके पिता बग़दाद के थे और मां कुर्दिश-ईरानी मूल की.
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1989 में उन्हें सद्दाम हुसैन की विशेष ट्रेन के चालक के तौर पर चुना गया था लेकिन जैसे ही पता चला कि उनकी मां कुर्दिश-ईरानी मूल की हैं, उन्हें इस ज़िम्मेवारी से हटा दिया गया.
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इराक़ पर अमरीकी हमले के वक़्त हर तरफ़ लूटपाट मची थी. कारखी ने जब "ट्रेनें लुटती देखीं तो उन्हें लगा जैसे कोई मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके ले जा रहा है."
लुटी हुई टूटी फूटी ट्रेनें ट्रैक के एक तरफ़ पड़ी हैं. दूसरी तरफ़ एक पुराना क़ब्रिस्तान है.
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कारखी कहते हैं, "ऐसा लगता है कि एक तरफ इंसानों की क़ब्रगाह है तो दूसरी ओर ट्रेनों का."
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