चीन के कर्ज़-जाल में फंस रहे हैं उसके पड़ोसी देश
- प्रतीक जाखड़
- बीबीसी मॉनिटरिंग

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चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा है कि बीआरआई परियोजना चीन का क्लब बनाने की योजना नहीं है
चीन अपनी महत्वकांक्षी वन बेल्ट वन रो़ड़ परियोजना के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है.
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) नामक इस परियोजना को शुरू हुए पांच साल हो चुके हैं, हालांकि चीन के लिए इसे मूर्त रूप देना इतना आसान भी नहीं रहा है.
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 7 सितंबर 2013 को कज़ाखिस्तान की नज़रबयेव यूनिवर्सिटी में एक भाषण देते हुए इस परियोजना की घोषणा की थी.
तब से लेकर अब तक इसमें दुनिया के 70 से अधिक देश जुड़ चुके हैं.
चीन के राष्ट्रपति इस परियोजना को 'प्रोजेक्ट ऑफ़ द सेंचुरी' बता चुके हैं.
हालांकि भारत ने खुद को चीन की इस परियोजना से अलग किया हुआ है, लेकिन भारत के अलावा उसके कई पड़ोसी देश इस परियोजना में चीन के साथ हैं.
दरअसल एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बीआरआई का स्वागत उन देशों ने ज़्यादा किया जहां का आधारभूत ढांचा बहुत अच्छा नहीं था.
इन देशों में चीन ने रेलवे, सड़क और बंदरगाहों के निर्माण की कई योजनाएं शुरू की.
लेकिन अब कई देश ऐसे हैं जो इस परियोजना में शामिल होने के बाद कुछ प्रोजेक्ट के बारे में दोबारा विचार कर रहे हैं, इन देशों में मलेशिया से लेकर म्यांमार तक शामिल हैं.
चीन ने अपनी तरफ से काफी कोशिश की है कि वह परियोजना में शामिल देशों को यह समझा सके कि यह कितने फ़ायदे का सौदा है, लेकिन फिर भी कई एशियाई देश इसकी आलोचना कर रहे हैं.
इसके पीछे प्रमुख वजह चीन का इन देशों में फ़ैलता कर्ज़ का जाल है.
बीआरआई परियोजना से पीछे हटने वाला सबसे नया देश मलेशिया है. जुलाई महीने में मलेशिया ने अपने देश में इस परियोजना के तहत चल रहे कुछ कामों को रोक दिया.
रोक लगाने वाली योजनाओं में 20 अरब डॉलर की ईस्ट-कोस्ट रेल लिंक और गैस पाइपलाइन की दो योजनाएं शामिल हैं.
मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद पिछले महीने चीन के दौरे पर गए थे लेकिन उस दौरे में भी इस समझौते को जारी रखने पर सहमति नहीं बन पाई.
एशिया के दूसरे देशों में चल रही इस परियोजना पर भी अब ख़तरे के बादल मंडराने लगे हैं.
आखिर क्या वजह है कि चीन की इस महत्वकांक्षी परियोजना पर एशिया के देश अब इक़बाल नहीं कर पा रहेः
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मलेशिया के प्रधानमंत्री ने अपनी हाल की चीन यात्रा के दौरान नए उपनिवेशवाद की चेतावनी दी
कर्ज़ में डूबता श्रीलंका
श्रीलंका में चीन का निवेश अब जांच के दायरे में आने लगा है. खासतौर पर पश्चिमी मीडिया और अधिकारियों ने इस पर सवाल उठाए हैं.
इनका आरोप है कि चीन अपने पड़ोसी देशों के साथ कर्ज़ बढ़ाने वाली कूटनीति कर रहा है.
पिछले साल ही श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की एक फ़र्म को 99 साल के लिए सौंप दिया था. दरअसल श्रीलंका चीन की तरफ से मिले 140 करोड़ डॉलर का कर्ज़ चुका पाने में नाकाम था.
इसके बाद 5 सितंबर को विपक्ष के हज़ारों नेताओं ने श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया और सरकार पर देश की संपत्ति बेचने का आरोप लगाया.
इसी तरह श्रीलंका में चीन के एक और प्रोजेक्ट पर खतरा मंडरा रहा है, श्रीलंका के उत्तरी शहर जाफ़ना में घर बनाने की चीन की योजना का विरोध हो रहा है. यहां लोगों ने कंक्रीट के घर की जगह ईंट के घरों की मांग की है.
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श्रीलंका का हम्बनटोटा बंदरगाह
पाकिस्तान का असमंजस
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चीन के सबसे करीबी और भरोसेमंद एशियाई दोस्त के तौर पर पाकिस्तान को देखा जाता है. पाकिस्तान चीन के साथ अपनी मित्रता को 'हर-मौसम में चलने वाली दोस्ती' के रूप में बयां करता है.
लेकिन बीआरआई परियोजना के संबंध में पाकिस्तान ने भी थोड़ा-थोड़ा नाराज़गी ज़ाहिर करना शुरू कर दिया है.
दरअसल पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या उसका बढ़ता कर्ज़, पारदर्शिता का अभाव और सुरक्षा व्यवस्था है.
बीआरआई के तहत चीन-पाकिस्तान के बीच एक आर्थिक गलियारा बनाने पर काम हो रहा है, इसके लिए कुल 6 हज़ार करोड़ डॉलर का खर्च सुनिश्चित हुआ है. पाकिस्तान के लिए यही रकम जी का जंजाल बन रहा है.
पाकिस्तान में नई सरकार बनाने वाली पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के सांसद सैयद शिबली फ़राज़ ने सऊदी की एक वेबसाइट अरब न्यूज़ से कहा है कि पिछली सरकार ने उनके साथ इस आर्थिक गलियारे से जुड़ी योजना की कोई जानकारी साझा नहीं की है.
उन्होंने साथ ही कहा कि नई सरकार इस समझौते पर दोबारा विचार विमर्श करेगी.
हालांकि फिलहाल पाकिस्तान की जैसी आर्थिक हालत चल रही है और अमरीका की तरफ से उन पर लगातार दबाव बढ़ाया जा रहा है, उस हाल में पाकिस्तान चीन के साथ किसी तरह का मनमुटाव नहीं करना चाहेगा.
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म्यांमार में पैसे की कीमत
श्रीलंका की तरह म्यांमार भी अपने ऊपर बढ़ते चीनी कर्ज़ के चलते दबाव महसूस करने लगा है. यही वजह है कि वह बीआरआई से हटना चाह रहा है.
म्यांमार के रख़ाइन प्रांत में क्योकप्यू शहर के तट पर चीन पानी के अंदर एक बंदरगाह बनाने पर काम कर रहा है.
इसकी शुरुआती कीमत 730 करोड़ डॉलर आंकी गई लेकिन हाल ही में म्यांमार के उप वित्त मंत्री सेट ऑन्ग ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया था कि यह प्रोजेक्ट लगातार छोटा होता जा रहा है.
अब इस प्रोजेक्ट को कम करके इसका खर्च 130 करोड़ डॉलर पर लाया जा चुका है.
विशेषज्ञों का कहना है कि इस प्रोजेक्ट के लगातार घटते चले जाने के पीछे खर्च के साथ-साथ चीन की अपने पड़ोसी देशों में कब्ज़ा जमाने वाली छवि भी है. इसी डर के चलते म्यांमार चीन के साथ इस परियोजना बहुत ज़्यादा बड़ा नहीं बनाना चाहता.
साल 2011 में म्यांमार सरकार ने चीन के साथ 360 करोड़ डॉलर वाली मितसोन बांध परियोजना इसी वजह से रद्द कर दी थी क्योंकि उस समय भी म्यांमार के आम नागरिकों और विपक्षी दलों ने चीन का विरोध किया था.
हालांकि तमाम रुकावटों के बावजूद, चीन लगातार म्यांमार के समर्थन में बना रहा फिर चाहे रोहिंग्या संकट पर म्यांमार की चौतरफा आलोचना का ही विषय क्यों न हो.
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म्यांमार ने साल 2011 में चीन के साथ मितसोन बांध परियोजना को रद्द कर दिया था
इंडोनेशिया की धीमी रफ़्तार
इंडोनेशिया में बन रहा जकार्ता-बांडुंग हाई-स्पीड रेलवे नेटवर्क लगातार पीछे खिसकता जा रहा है, इसकी प्रमुख वजहों में भूमि अधिग्रहण, लाइसेंस और फ़ंड की समस्या है.
500 करोड़ डॉलर की चीन की यह परियोजना साल 2015 में शुरू हुई थी और इसकी डेडलाइन साल 2019 है.
जकार्ता ग्लोब में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इंडोनेशिया के नेता लुहुत पंडजाइतन ने कहा है कि फिलहाल को ऐसा लगता है कि साल 2014 से पहले इस नेटवर्क पर रेल नहीं चल पाएगी.
इससे पहले इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो भी इस प्रोजेक्ट पर दोबारा विचार करने की बात कह चुके हैं क्योंकि जकार्ता से बांडुंग की दूरी महज 140 किलोमीटर ही है.
वहीं दूसरी तरफ चीनी मीडिया में इस प्रोजेक्ट को काफी सफल बताया जा रहा है और ऐसे रिपोर्ट की जा रही है कि इस प्रोजेक्ट के चलते इंडोनेशिया में कई स्थानीय लोगों को नौकरियां मिली हैं.
इंडोनेशिया में अगले साल चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में यहां चीन-विरोधी विचार भी लगातार उठ रहे हैं.
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