दुनिया में अब पोते-पोतियों से ज़्यादा दादा-दादी क्यों हैं

  • फर्नांडो डुआर्टे
  • बीबीसी कैपिटल
दुनिया में अब पोते-पोतियों से ज़्यादा दादा-दादी क्यों हैं

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संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि दुनिया में बच्चों से ज़्यादा बुजुर्ग हो गए हैं.

2018 के अंत में 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 5 साल से कम उम्र के बच्चों से अधिक हो गई.

संसार में 65 साल से ज़्यादा उम्र के बूढ़ों की तादाद करीब 70.5 करोड़ है, जबकि शून्य से चार साल के बच्चे करीब 68 करोड़ हैं.

ये रुझान जारी रहे तो 2050 में शून्य से चार साल के हर बच्चे पर 65 साल से ज़्यादा उम्र के दो बुजुर्ग होंगे.

जनसांख्यिकी विशेषज्ञ पिछले कई दशकों से इस रुझान पर नज़र रखे हुए हैं. ज़्यादातर देशों में इंसान की जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है. वे लंबे वक़्त तक जी रहे हैं और कम बच्चे पैदा कर रहे हैं.

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जन्म दर घट गई

वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट फ़ॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन के डायरेक्टर क्रिस्टोफर मरे कहते हैं, "बच्चे बहुत कम होंगे और 65 साल से ज़्यादा उम्र के बूढ़े ढेर सारे होंगे. इससे वैश्विक समाज को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा."

मरे ने 2018 के एक पेपर भी लिखा था जिसमें उनका कहना है कि दुनिया के लगभग आधे देशों में आबादी के मौजूदा आकार को बरकरार रखने के लिए पर्याप्त बच्चे नहीं हैं.

वह कहते हैं, "पोते-पोतियों से अधिक दादा-दादी वाले समाज में इसके सामाजिक और आर्थिक परिणामों के बारे में सोचिए."

विश्व बैंक के मुताबिक 1960 में महिलाओं की औसत प्रजनन दर लगभग 5 बच्चों की थी. करीब 60 साल बाद यह आधे से भी कम (2.4) रह गई है.

इस दौरान हुई सामाजिक-आर्थिक तरक्की ने धरती पर जन्म लेने वालों को फ़ायदा पहुंचाया है.

1960 में लोग औसत रूप से 52 साल जीते थे. 2017 में जीवन प्रत्याशा बढ़कर 72 साल हो गई है.

हम लंबे समय तक जी रहे हैं. जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ रही है हम ज़्यादा संसाधनों की मांग कर रहे हैं. इससे पेंशन और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों पर दबाव बढ़ रहा है.

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बूढ़ी आबादी

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बूढ़ी होती आबादी की समस्या विकसित देशों में ज़्यादा बड़ी है. वहां कई वजहों से जन्म दर कम रहती है. ये कारण मुख्यतः आर्थिक समृद्धि से जुड़े हैं.

इन देशों में बाल मृत्यु-दर कम है. जन्म नियंत्रण आसानी से संभव होता है और बच्चों की परवरिश महंगी है.

इन देशों में महिलाएं अक्सर जीवन के बाद के हिस्से में बच्चे पैदा करती हैं, इसलिए उनकी संख्या कम होती है.

जीवन स्तर बेहतर होने से इन देशों में लोग लंबे समय तक जीवित रहते हैं.

जापान एक प्रमुख उदाहरण है, जहां बच्चे के जन्म के समय उसकी जीवन प्रत्याशा लगभग 84 साल की है (दुनिया में सबसे ज़्यादा).

2018 में जापान की कुल आबादी में 65 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों का हिस्सा 27 फीसदी था. यह भी दुनिया में सबसे ज़्यादा है.

यूएन के मुताबिक यहां की आबादी में 5 साल से कम उम्र के बच्चों का हिस्सा सिर्फ़ 3.85 फीसदी है.

इस दोहरी चुनौती ने पिछले कई दशकों से जापान के अधिकारियों को चिंता में डाल रखा है. पिछले साल सरकार ने रिटायरमेंट की उम्र 65 साल से बढ़ाकर 70 साल कर दी थी.

रिटायरमेंट का नया नियम जब लागू होगा तो जापान में रिटायर होने की उम्र दुनिया में सबसे ज़्यादा होगी.

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जनसंख्या में असंतुलन

असंतुलित आबादी विकासशील देशों के लिए भी ख़तरा है. चीन की आबादी में जापान के मुक़ाबले 65 साल से ज़्यादा उम्र के बुजुर्गों का हिस्सा कम (10.6 फीसदी) है.

लेकिन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में 1970 के दशक में लागू किए आबादी नियंत्रण उपायों के कारण प्रजनन दर अपेक्षाकृत बहुत कम है (प्रति महिला सिर्फ़ 1.6).

चीन की आबादी में 5 साल से कम उम्र के बच्चों का हिस्सा 6 फीसदी से भी कम है.

बच्चों की संख्या बनाम जीवन की गुणवत्ता

ऊंची प्रजनन दर के मामले में अफ्रीकी देश अव्वल हैं. मिसाल के लिए, नाइजर दुनिया का सबसे "उर्वर" देश है. 2017 में यहां महिलाओं की औसत प्रजनन दर 7.2 थी.

लेकिन इन देशों में बच्चों की मृत्यु दर भी ऊंची है. नाइजर में हर 1,000 जन्म पर 85 बच्चों की मौत हो जाती है.

आधे देशों में संकट

आबादी के मामले में 2.1 जादुई नंबर है. जनसांख्यिकी विशेषज्ञों का मानना है कि यह वह प्रजनन दर है, जिस पर आबादी स्थिर रहती है. जितने बुजुर्गों की मृत्यु होती है, उतने ही बच्चे जन्म ले लेते हैं.

संयुक्त राष्ट्र के सबसे ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के आधे देशों (113) में ही इस दर से बच्चे पैदा हो रहे हैं.

शोधकर्ता यह भी बताते हैं कि जिन देशों में शिशुओं की मृत्यु दर ऊंची है और जीवन प्रत्याशा कम है, वहां 2.3 प्रजनन दर जरूरी होती है. फिलहाल केवल 99 देश इस आंकड़े को छू पा रहे हैं.

दुनिया की कुल आबादी बढ़ रही है. 2024 में वैश्विक आबादी 8 अरब हो सकती है. लेकिन घटती जन्म दर के कारण कई देशों में आबादी गिरने की संभावना है.

चरम स्थिति वाले देशों में एक देश रूस है. यहां की महिलाओं की औसत प्रजनन दर 1.75 है. आने वाले कुछ दशकों में रूस की आबादी में भारी गिरावट होने की आशंका है.

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग ने हिसाब लगाया है कि रूस की आबादी फिलहाल के 14.3 करोड़ से घटकर 2050 में 13.2 करोड़ हो जाएगी.

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आर्थिक प्रभाव

आबादी घटने और बूढ़ों की संख्या बढ़ने का मतलब होगा काम करने वाले लोगों की संख्या घट जाना. इससे आर्थिक उत्पादकता घट सकती है और विकास बाधित हो सकता है.

पिछले नवंबर में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने चेतावनी दी थी कि बुजुर्गों की बढ़ती आबादी के कारण अगले 40 साल में जापान की अर्थव्यवस्था 25 फीसदी तक सिकुड़ सकती है.

ऑक्सफोर्ड इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन एजिंग के डायरेक्टर जॉर्ज लीसन कहते हैं, "जनसांख्यिकी हमारे जीवन के हर पहलू पर असर डालती है. आप बस अपनी खिड़की से बाहर गली में, सड़क पर झांककर देखिए, लोगों के उपभोग को देखिए. सब कुछ जनसांख्यिकी से प्रेरित है."

क्या तकनीक बूढ़ी होती आबादी के आर्थिक प्रभावों को कम करने में मददगार होगी?

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नीति और राजनीति

इस बात पर आम सहमति है कि सरकारों को बुढ़ापे के टाइम बम को निष्क्रिय करने के लिए काम करना चाहिए और वे कोशिश कर भी रही हैं.

चीन ने 2015 में अपनी वन-चाइल्ड पॉलिसी की समीक्षा की और 2018 में संकेत दिया कि 2019 में वह जनसंख्या प्रतिबंधों को हटा लेगा.

सरकारी अखबार पीपुल्स डेली में छपे ऑप-एड के मुताबिक बच्चे को जन्म देना "पारिवारिक और राष्ट्रीय मुद्दा भी" है.

लेकिन पाबंदियों को आसान करने से भी शायद ही समस्या का समाधान हो. 2018 में चीन में 1 करोड़ 52 लाख बच्चों का जन्म हुआ जो पिछले 60 साल में सबसे कम है.

चीनी शिक्षाविद इसके पीछे प्रजनन कर सकने वाली महिलाओं की घटती तादाद और आर्थिक कारणों को जिम्मेदार मानते हैं.

आर्थिक वजहों से कई परिवार बच्चे पैदा करने की योजना टाल देते हैं. जिन परिवारों में महिलाएं ज़्यादा पढ़ी-लिखी हैं, वे मां की परंपरागत भूमिका निभाने को तैयार नहीं हैं.

बूढ़े और मज़बूत

जनसंख्या विशेषज्ञों का कहना है कि बूढ़ी होती आबादी के असर को कम करने में बुजुर्गों की सेहत को बढ़ावा देने वाली नीतियों की अहम भूमिका है.

सेहतमंद व्यक्ति लंबे वक़्त तक और अधिक ऊर्जा के साथ काम करने में सक्षम होते हैं. इससे स्वास्थ्य सेवाओं की लागत घट सकती है.

एक क्षेत्र जिसे अनदेखा किया गया है वह है काम करने वाले लोगों की विविधता, ख़ास तौर पर लैंगिक विविधता.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के मुताबिक 2018 में महिलाओं के लिए वैश्विक श्रम बाज़ार में भागीदारी की दर 48.5 फीसदी थी जो पुरुषों से 25 फीसदी कम रही.

आईएलओ के अर्थशास्त्री एक्कहार्ड अर्न्स्ट कहते हैं, "जिन अर्थव्यवस्थाओं में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी ज़्यादा रहती है वहां विकास दर में गिरावट कम आती है."

"महिला श्रमिक न सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को प्रतिकूल झटकों से उबरने के काबिल बनाती हैं, बल्कि वे एक सशक्त गरीबी-निरोधी उपकरण का प्रतनिधित्व भी करती हैं."

(मूल लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, जो बीबीसी कैपिटल पर उपलब्ध है.)

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