स्पैनिश फ़्लूः एक ऐसी महामारी जिसके सबक हमने भुला दिए
- फर्नांडो दुआर्ते
- बीबीसी संवाददाता

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1918 की इस महामारी ने दुनिया की एक तिहाई आबादी को प्रभावित किया था.
1918 से 1920 के बीच पूरी दुनिया में एक फ़्लू फैल गया था. इस फ़्लू ने दुनिया की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित कर दिया था. जब यह ख़त्म हुआ, तब तक दो से पांच करोड़ लोग इससे मारे जा चुके थे. इस महामारी से उबरने वाली दुनिया किस तरह की थी? क्या इसमें यह संकेत छिपे हुए हैं कि कोरोना वायरस के बाद दुनिया कैसी होगी?
हो सकता है कि आपने अभी तक स्पैनिश फ़्लू महामारी के बारे में नहीं सुना हो. लेकिन, मौजूदा कोरोना वायरस से मचे हाहाकार को देखते हुए आप 20वीं शताब्दी की शुरुआत में फैले एक ख़तरनाक वायरस के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो सकते हैं.
इसे अक्सर 'मदर ऑफ़ ऑल पैंडेमिक्स' यानी सबसे बड़ी महामारी कहा जाता है. इसकी वजह से महज दो सालों (1918-1920) में 2 करोड़ से 5 करोड़ के बीच लोगों की मौत हो गई थी.
वैज्ञानिकों और इतिहासकारों का मानना है कि उस वक्त दुनिया की आबादी 1.8 अरब थी और आबादी का एक-तिहाई हिस्सा संक्रमण की चपेट में आ गया था.
तब पहला विश्व युद्ध खत्म ही हुआ था. लेकिन, इस महामारी से मरने वालों की तादाद पहले विश्व युद्ध में मरने वालों की संख्या को भी पार कर गई थी.
ऐसे वक्त में जबकि दुनिया कोविड-19 संकट से जूझ रही है, हमने इससे पिछली बड़ी महामारी पर एक नजर डालकर यह जानने की कोशिश की कि उस वक्त दुनिया में कैसे हालात थे और इस महामारी के गुजरने के बाद दुनिया की शक्ल में क्या बदलाव आए थे?
1921, एक बेहद बदली हुई दुनिया
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निश्चित तौर पर पिछले 100 सालों में काफ़ी कुछ बदल चुका है.
आज के दौर के मुक़ाबले किसी बीमारी का सामना करने के लिहाज से दवाइयां और विज्ञान उस वक्त बेहद सीमित था.
डॉक्टरों को यह तो पता चल गया था कि स्पैनिश फ़्लू के पीछे माइक्रो-ऑर्गेनिज़्म है. उन्हें यह भी पता था कि यह बीमारी एक शख़्स से दूसरे शख़्स में फैल सकती है. लेकिन, वे तब ये मान रहे थे कि इस महामारी की वजह वायरस न होकर एक बैक्टीरिया है.
उस दौरान इलाज भी सीमित था. मिसाल के तौर पर, दुनिया की पहली एंटीबायोटिक की खोज 1928 में जाकर हो पाई थी.
पहली फ़्लू वैक्सीन 1940 में लोगों के लिए उपलब्ध हो सकी. उस वक्त सबके लिए इलाज की व्यवस्था मुमकिन नहीं थी. यहां तक कि अमीर देशों में भी पब्लिक सैनिटेशन एक लग्ज़री थी.
विज्ञान लेखिका और पेल राइडरः द स्पैनिश फ़्लू ऑफ़ 1918 एंड हाउ इट चेंज्ड दि वर्ल्ड की लेखिका लॉरा स्पिनी बताती हैं, 'औद्योगिक देशों में ज्यादातर डॉक्टर या तो खुद के लिए काम करते थे या उन्हें चैरिटी या धार्मिक संस्थानों से पैसा मिलता था. ज्यादातर लोगों के पास इलाज कराने की सहूलियत नहीं थी.'
युवा और गरीब हुए ज्यादा शिकार
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दो देश,दो शख़्सियतें और ढेर सारी बातें. आज़ादी और बँटवारे के 75 साल. सीमा पार संवाद.
बात सरहद पार
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स्पैनिश फ़्लू ने इस तरह से हमला किया जैसा इससे पहले की किसी भी महामारी में नहीं देखा गया था. मसलन, इससे पहले 1889-90 में फैली महामारी से 10 लाख से ज्यादा लोग पूरी दुनिया में मारे गए थे, लेकिन इसका दायरा स्पैनिश फ़्लू जैसा नहीं था.
स्पैनिश फ़्लू में मरने वालों में ज्यादातर 20 से 40 साल के युवा थे. साथ ही पुरुषों पर इसका ज्यादा असर हुआ था. इसकी वजह यह मानी गई कि यह बीमारी पश्चिमी मोर्चे के आर्मी कैंपों से शुरू हुई और पहले विश्व युद्ध से वापस लौटते सैनिकों के साथ यह फैलती चली गई.
इस महामारी की मार गरीब देशों पर और ज्यादा पड़ी थी.
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चर फ़्रैंक बैरो ने 2020 की अपनी एक स्टडी में अनुमान लगाया है कि अमेरिकी आबादी का करीब 0.5 फीसदी हिस्सा इस बीमारी से उस वक्त मरा था. यह तादाद करीब 5,50,000 बैठती है.
दूसरी तरफ, भारत में स्पैनिश फ़्लू से मरने वालों की तादाद आबादी की 5.2 फीसदी यानी करीब 1.7 करोड़ लोग थे.
पैंडेमिक 1918 किताब की लेखिका कैथरीन आर्नोल्ड बताती हैं, 'पहले विश्व युद्ध और स्पैनिश फ़्लू से एक आर्थिक त्रासदी पैदा हो गई थी.'
आर्नोल्ड के ग्रैंड-पेरेंट्स यूके में इस फ़्लू का शिकार हो गए थे.
वह कहती हैं, 'कई देशों में घर चलाने की जिम्मेदारी उठाने वाला, खेती करने वाले, कारोबार करने वाले कोई युवा व्यक्ति जीवित नहीं बचा था. शादी और बच्चे पैदा कर मरे हुए लोगों की भरपाई करने तक के लिए युवा नहीं बचे थे. ऐसे लाखों युवा खत्म हो गए थे.'
आर्नोल्ड के मुताबिक, 'योग्य लोगों के अभाव में अकेली बची औरतों की समस्या पैदा हो गई. लाखों महिलाओं के पास कोई पार्टनर नहीं था.'
महिलाओं को काम पर लगना पड़ा
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काम पर लगीं महिलाएं
हालांकि, स्पैनिश फ़्लू महामारी से कोई बड़ा सामाजिक बदलाव नहीं पैदा हुआ. इससे पहले 14वीं शताब्दी में ब्लैक प्लेग के चलते सामंतवाद का खात्मा हो गया था और इससे एक बड़ा सामाजिक बदलाव देखने को मिला था.
लेकिन, स्पैनिश फ़्लू से कई देशों में लिंग संतुलन बिगड़ गया था. टेक्सस एएंडएम यूनिवर्सिटी की रिसर्चर क्रिस्टीन ब्लैकबर्न कहती हैं कि यूएस में मजदूरों की कमी ने महिलाओं को काम करने के लिए मजबूर किया.
ब्लैकबर्न के मुताबिक, 'फ़्लू और पहले विश्व युद्ध के चलते श्रमिकों का संकट पैदा हो गया था. इसके चलते महिलाओं के लिए काम करने के रास्ते खुल गए.'
वह बताती हैं, '1920 तक देश के सभी कर्मचारियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़कर 21 फीसदी पर पहुंच गई थी.' उसी साल कांग्रेस ने संविधान में 19वां संशोधन किया और इसके जरिए अमरीकी महिलाओं को वोट डालने का अधिकार मिल गया.
ब्लैकबर्न कहती हैं, 'इस बात के प्रमाण हैं कि 1918 के फ़्लू ने कई देशों में महिलाओं के अधिकारों पर असर डाला.'
साथ ही, मजदूरों की कमी होने से वर्कर्स को तनख्वाह में बढ़ोतरी का फायदा मिला.
अमरीका में सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1915 में मैन्युफैक्चरिंगे सेक्टर में तनख्वाह 21 सेंट प्रति घंटा थी जो कि 1920 में बढ़कर 56 सेंट हो गई.
स्पैनिश फ़्लू के दौरान पैदा हुए बच्चों पर भी वैज्ञानिकों ने रिसर्च की है ताकि पता लगाया जा सके कि क्या महामारी के पहले या बाद में पैदा हुए बच्चों के मुकाबले उनमें दिल की बीमारियां होने के ज्यादा आसार हैं.
बच्चों पर भी पड़ा था असर
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यूके और ब्राज़ील के विश्लेषणों से पता चलता है कि 1918-19 के दौरान पैदा हुए बच्चों के औपचारिक रूप से नौकरी करने या कॉलेज में पढ़ाई करने के कम आसार थे.
कुछ थ्योरी ये भी बताती हैं कि महामारी के दौरान महिलाओं को हुए तनाव का असर उनके अंदर मौजूद भ्रूण के विकास पर भी पड़ा.
अमरीका में 1915 से 1922 के दौरान पैदा हुए लोगों के आर्मी में भर्ती होने के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 'क्लास ऑफ़ 1919' बाकियों के मुकाबले 1 मिमी छोटा था.
औपनिवेशवाद का विरोध और अंतरराष्ट्रीय सहयोग
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1918 तक भारत को ब्रिटेन की कॉलोनी बने तकरीबन एक सदी बीत चुकी थी. भारत में स्पेनिश फ़्लू उसी साल मई में आया. भारत में इसकी चोट ब्रिटिश नागरिकों से ज्यादा भारतीय आबादी पर पड़ी.
आंकड़े बताते हैं कि हिंदुओं में नीची जातियों की मृत्यु दर हर 1,000 लोगों पर 61.6 के स्तर पर पहुंच गई थी. जबकि यूरोपीय लोगों के लिए यह प्रति हजार 9 से भी कम थी.
भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस राय को पकड़ लिया कि ब्रिटिश शासकों ने इस संकट के दौरान कुप्रबंधन का परिचय दिया है. 1919 में 'यंग इंडिया' के एक संस्करण में पूरी मुखरता के साथ ब्रिटिश अधिकारियों की आलोचना की गई. यंग इंडिया का प्रकाशन महात्मा गांधी करते थे.
इसके संपादकीय में लिखा गया था, 'किसी भी सभ्य देश में इतनी भीषण और विनाशकारी महामारी के दौरान इतनी लापरवाही नहीं हुई जैसी भारत सरकार ने दिखाई है.'
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हालांकि, दुनिया अभी पहले विश्व युद्ध के चलते एक-दूसरे से शत्रुता को झेल रही थी, लेकिन इस महामारी ने अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अहमियत पर भी जोर दिया.
1923 में लीग ऑफ़ नेशंस ने हेल्थ ऑर्गनाइजेशन को लॉन्च किया. लीग ऑफ़ नेशंस यूएन से पहले बनी बहुपक्षीय संस्था थी.
हेल्थ ऑर्गनाइजेशन एक टेक्निकल एजेंसी थी जिसने एक नया अंतरराष्ट्रीय महामारी कंट्रोल सिस्टम तैयार किया. इसे डिप्लोमैट्स की बजाय मेडिकल प्रोफ़ेशनल चला रहे थे. यह ऑफ़िस इंटरनेशनल डीहाइजीन पब्लिक की तरह था. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की नींव 1948 में पड़ी.
सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति
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महामारी के चलते हुए नुकसान ने सार्वजनिक स्वास्थ्य में बढ़त लाने को प्रेरित किया. खासतौर पर इसके जरिए सोशलाइज्ड मेडिसिन का विकास हुआ.
1920 में रूस ऐसा पहला देश बन गया जहां एक पूरी तरह से सार्वजनिक और केंद्रीकृत स्वास्थ्य सिस्टम तैयार हो चुका था. दूसरे देश भी इस दिशा में बढ़ चले.
लॉरा स्पिनी लिखती हैं, 'कई देशों ने 1920 के दशक में या तो हेल्थ मिनिस्ट्रीज खड़ी कीं या फिर इनमें आमूलचूल बदलाव किए.'
वह कहती हैं, 'यह स्पेनिश फ़्लू महामारी का सीधा नतीजा था. इस दौरान पब्लिक हेल्थ लीडरों को या तो कैबिनेट मीटिंग्स से बाहर रखा जाता था या फिर वे दूसरे विभागों से पैसे और शक्तियों के लिए गुहार लगाने तक सीमित थे.'
लंदन की रॉयल होलोवे यूनिवर्सिटी की एंथ्रोपोलॉजिस्ट जेनिफ़र कोल तर्क देती हैं कि महामारी और पहले विश्व युद्ध के मेल ने दुनिया के कई हिस्सों में एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के बीज बो दिए.
वह कहती हैं, 'राज्य के कल्याणकारी उपाय इसी संदर्भ में नजर आए. आपके यहां बड़ी तादाद में विधवाएं, अनाथ बच्चे और अपाहिज थे. महामारियों से समाज में रोशनी की किरण भी पैदा होती दिखी है. ऐसी घटनाओं से ही एक न्यायोचित और भेदभाव न करने वाला समाज पैदा होता है.'
लॉकडाउन और समाजिक दूरी ने तब भी काम किया
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यह दो शहरों की एक मशहूर कहानी है. सितंबर 1918 में अमरीकी शहर वॉर बॉन्ड्स को प्रमोट करने के लिए परेट आयोजित कर रहे थे. इन बॉन्ड्स की बिक्री से पहले से चल रहे युद्ध के लिए पैसा जुटाया जा रहा था.
जब स्पेनिश फ़्लू के मामले आना शुरू हुए तो इनमें से दो शहरों ने दो बिलकुल अलग तरह के उपाय अपनाए.
फ़िलाडेल्फ़िया ने जहां अपनी योजनाएं जारी रखीं, वहीं सेंट लुइस ने ये इवेंट कैंसिल करने का ऐलान कर दिया.
एक महीने बाद फ़िलाडेल्फ़िया में इस बीमारी से 10,000 लोग मर चुके थे. दूसरी ओर, सेंट लुइस में मरने वालों का आंकड़ा 700 से भी कम था.
इतने बड़े अंतर से ही यह पता चलता है कि महामारी को रोकने की रणनीति में सामाजिक दूरी किस तरह से कारगर साबित हो सकती है.
1918 के दौरान कई अमरीकी शहरों में किए गए उपायों के एक विश्लेषण से पता चलता है कि जिन शहरों ने लोगों के इकट्ठे होने, थिएटर खोलने, स्कूलों और चर्चों के खुलने पर रोक लगा दी थी वहां मौतों का आंकड़ा काफी कम था.
साथ ही, अमरीकी इकनॉमिस्ट्स की एक टीम ने 1918 में लॉकडाउन के उपायों का अध्ययन किया. उन्होंने पाया कि जिन शहरों ने सख़्त उपाय किए थे वहां महामारी के बाद आर्थिक रिकवरी की रफ़्तार कहीं तेज़ थी.
क्या हमने स्पैनिश फ़्लू से सबक नहीं लिया?
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स्पैनिश फ़्लू से मिले सबक कई मायनों में भुला दिए गए हैं.
पहले विश्व युद्ध के छाया में यह आम चर्चा में उतना नहीं आ पाया. इसकी एक वजह यह भी रही कि कई सरकारों ने युद्ध के दौरान मीडिया की रिपोर्टिंग पर पाबंदियां लगा दी थीं.
अच्छी तरह से कवर नहीं किए जाने की वजह से यह महामारी इतिहास की किताबों और लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाई.
मेडिकल हिस्टोरियन मार्क होनिग्सबॉम ने लिखते हैं, 'स्पैनिश फ़्लू महामारी को 2018 में एक शताब्दी हो गई है. एड्स के मुकाबले आप स्पैनिश फ़्लू का कहीं पर भी जिक्र नहीं पाएंगे. कहीं पर भी तब के डॉक्टरों और नर्सों की कब्रों पर उन्हें सम्मान नहीं दिया गया या उनके लिए श्रद्धांजलि समारोह आयोजित हुए.'
वह कहते हैं, 'न ही आपको 1918 की महामारी का जिक्र करने वाले उपन्यास, गाने या काम मिलेंगे.'
इनमें हालांकि कुछ अपवाद हैं. उनमें से एक है एडवर्ड मंच का स्पेनिश फ़्लू वाला सेल्फ़-पोर्ट्रेट है. नॉर्वे के मंच ने यह पोर्ट्रेट उस दौरान तैयार किया था जब वह इस बीमारी से जूझ रहे थे.
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ब्राज़ील के तत्कालीन राष्ट्रपति रोड्रिगेज़ आल्वेज़ की मौत स्पेनिश फ्लू से हो गई थी.
होनिग्सबॉम यह भी बताते हैं कि एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के 1924 के एडिशन में 20वीं शताब्दी के सबसे घटनाओं वाले साल में इस महामारी का जिक्र तक नहीं है.
वह बताते हैं कि इस महामारी के बारे में इतिहास की किताबों में पहली बार जिक्र करीब 1968 में किया गया.
कोविड-19 ने निश्चित तौर पर लोगों के दिमागों को फिर से तरोताज़ा कर दिया है.
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