पाकिस्तान: क्या सरकार और सेना के दबाव में टिक पाएगा पश्तूनों का आंदोलन?

  • शुमैला जाफरी
  • बीबीसी न्यूज़, इस्लामाबाद
मंजूर पश्तीन

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13 जनवरी 2018. कराची में ठंड पूरे ज़ोरों पर थी. उन दिनों गैंग वॉर और दिन दहाड़े हिंसक वारदातों की वजह से बदनाम कराची में एक 'पुलिस मुठभेड़' हुई.

इस कथित मुठभेड़ में 27 साल के नक़ीबुल्लाह महसूद समेत चार युवकों की मौत हो गई. ये लोग अफ़ग़ानिस्तान से सटे जनजातीय इलाक़े दक्षिणी वज़ीरिस्तान के रहने वाले थे.

इस एनकाउंटर के इंचार्ज थे कराची पुलिस के एसएसपी राव अनवर. उन्होंने दावा किया कि मुठभेड़ में मारे गए युवक संदिग्ध चरमपंथी थे और नक़ीबुल्लाह के तार तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, लश्कर-ए-झांगवी और आईएस से जुड़े थे.

बाद में पता चला कि पुलिस जिस युवक नक़ीबुल्लाह को चरमपंथी संगठनों से जुड़ा बता रही थी, वे एक उभरते हुए मॉडल थे और तीन बच्चों के पिता थे.

एक साल बाद पाकिस्तान की एक आतंक निरोधी अदालत ने बताया कि यह फ़र्जी मुठभेड़ थी जो मलिर ज़िले के एसएसपी राव अनवर ने करवाई थी. मुठभेड़ में मारे गए नक़ीबुल्लाह और तीन अन्य युवक बेकसूर थे.

फ़र्जी मुठभेड़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन

इस फ़र्जी मुठभेड़ में मारे गए नक़ीबुल्लाह का शव पाँच दिन बाद उनके परिवार को सौंपा गया था. इसके बाद उनके शव को दफ़नाने के लिए दक्षिण वज़ीरिस्तान ले जाया गया. जैसे ही फ़र्जी मुठभेड़ में नक़ीबुल्लाह की मौत की ख़बर पहुँची, लोगों का गुस्सा भड़क उठा. इस घटना का विरोध करने के लिए सैकड़ों लोग सड़कों पर निकल पड़े.

स्थानीय आंदोलनकारी मंज़ूर पश्तीन नक़ीबुल्लाह की मौत के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए आंदोलन का चेहरा बन गए हैं. प्रदर्शनकारी ग़म और ग़ुस्से में थे. पश्तीन की अगुआई में इन लोगों ने ऐसी फ़र्जी मुठभेड़ों को ख़त्म करने और जनजातीय इलाक़ों के लोगों को ज़ोर ज़बरदस्ती ग़ायब करने की घटनाओं पर रोक लगाने की मांग करने लगे.

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मंजूर पश्तीन पहले से ही महसूद समुदाय के लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं. दक्षिण वज़ीरिस्तान में महसूद पश्तूनों का सबसे बड़ा समुदाय है. उन्होंने 'महसूद तहाफ़ुज मूवमेंट' नाम से एक पार्टी बनाई है. इसका मक़सद महसूदों के हितों का संरक्षण है.

वज़ीरिस्तान में दशकों तक जो युद्ध चला, उसमें जिन लोगों के साथ बर्बरता हुई, उनकी आवाज़ उठाने के लिए इस पार्टी की नींव रखी गई. इस लड़ाई में लगभग 20 लाख लोग अपनी जड़ों से उखड़ गए. आतंक के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के युद्ध में यहाँ के जनजातीय इलाक़ों से लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा.

अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद पाकिस्तान ने भी अपने यहाँ आतंकवाद के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा. लेकिन इस अभियान की वजह से वज़ीरिस्तान में लाखों लोगों को दर-बदर होना पड़ा.

नक़ीबुल्लाह की मौत के बाद मंजूर ने इस्लामाबाद में एक लंबे मार्च की अगुआई करने का फ़ैसला किया. वो नक़ीबुल्लाह की हत्या के मामले पर लोगों का ध्यान खींचना चाहते थे.

26 जनवरी को जब उन्होंने यह जुलूस निकाला, तो इसमें पश्तीन और उनके कुछ दर्जन समर्थक शामिल थे. लेकिन इस्लामाबाद पहुँचते-पहुँचते इसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हो गए.

लोग दूर-दूर से इस रैली में शामिल होने आए थे. ख़ासकर वे लोग, जिनके परिवारों के लोग लापता हैं. ऐसे लोग अपने परिवार के उन लोगों की तस्वीरें हाथों में थामे इस जुलूस में मौजूद थे, जो वर्षों से लापता हैं.

उन्होंने इस्लामाबाद प्रेस क्लब के बाहर 10 दिनों तक धरना दिया. लेकिन 'महसूद तहाफ़ुज मूवमेंट का धरना ख़त्म होने से पहले ही पश्तूनों को युद्ध के अत्याचारों से निजात दिलाने के लिए लड़ने वाला बड़ा आंदोलन बन चुका था. बाद में इसका नाम 'पश्तून तहाफ़ुज मूवमेंट' यानी पीटीएम कर दिया गया.

'आपका वक़्त ख़त्म हो चुका है'

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मंजूर पश्तीन

शुरुआत में पीटीएम ने अपनी कई माँगें रखी थीं. इनमें एसएसपी राव अनवर को गिरफ़्तार करने और पहले के जनजातीय इलाक़ों से मिलिट्री चेक पोस्ट और बारूदी सुरंग को हटाने की मांग शामिल थी. साथ ही जनजातीय समुदायों के पुरुषों को ज़बरन उठाने की घटनाओं पर रोक लगाने की माँग की गई थी.

इस घटना के बाद पीटीएम ने अपनी माँगों के समर्थन में विशाल पब्लिक रैलियाँ कीं. उनकी रैलियों को मानवाधिकार और सिविल सोसाइटी संगठनों का समर्थन मिला. इसके बाद सैनिक नेतृत्व ने संगठन के लोगों से सीधे संपर्क किया. पीटीएम की माँगों को उन्होंने "वाजिब" करार दिया. मंजूर पश्तीन को भी 'शानदार बंदा' करार दिया गया.

इस समय तक पीटीएम का संघर्ष अहिंसक बना हुआ था. लेकिन समय के साथ इसके नेता सत्ता के ख़िलाफ़ ख़ासकर सेना की आलोचना ज़्यादा मुखर होकर करने लगे. उन्होंने ये कहना शुरू किया कि पाकिस्तान में जनजातीय लोगों की दुश्वारियों के लिए सेना ही ज़िम्मेदार है.

बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में मंजूर पश्तीन ने कहा कि पीटीएम का संघर्ष जनजातीय लोगों की गरिमा की बहाली के लिए है. पीटीएम का अगला क़दम प्रशासन के रवैए पर निर्भर करेगा.

पश्तीन कहते हैं, "हमारा संघर्ष शांतिपूर्ण रहेगा. लेकिन आगे हमारा व्यवहार कैसा होगा, यह हमारे नेताओं के रवैए पर निर्भर करेगा. क्या उन्होंने जो क्रूरता की है, उन्हें वे स्वीकार करेंगे? क्या वे हमें नागरिक तौर पर मान्यता देने को तैयार हैं? हमारा बहुत ख़ून बहा है. क्या वे यह मानने को तैयार हैं? क्या वे ये मानेंगे उन्होंने हमारा इस्तेमाल टिशू पेपर की तरह किया गया है?"

उन्होंने कहा, "जब सेना को लगेगा कि हम पर बम गिराना चाहिए, तो बम गिरा देगी. जब लगेगा कि उन्हें हमें राशन भेजना चाहिए, तो राशन भेजेगी. जब उन्हें लगेगा कि हमारे लोगों को ट्रेनिंग देकर दूसरों की हत्या करवानी है, तो वे यही करेंगे."

पीटीएम के इस रुख़ से सेना को परेशानी होने लगी. पीटीएम नेतृत्व की ओर से लगातार कड़ी आलोचना की वजह से सैन्य नेतृत्व असहज होने लगा था.

2018 में अप्रैल महीने में आईएसपीआर के तत्कालीन डीजी लेफ़्टिनेंट जनरल आसिफ़ गफ़ूर ने पीटीएम के इस रवैए पर पलटवार किया. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने पीटीएम पर गंभीर आरोप लगाए.

उन्होंने कहा था कि पीटीएम पाकिस्तान को अस्थिर करने के लिए दुश्मनों के एजेंडे पर काम कर रही है. गफ़ूर का कहना था कि पीटीएम को अफ़ग़ान और भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसियां फ़ंड दे रही हैं.

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लेफ्टिनेंट जनरल आसिफ़ गफ़ूर

उन्होंने कहा था, "ये तथाकथित पश्तून महाफू़ज मूवमेंट कहाँ था, जब चरमपंथी स्थानीय लोगों का गला रेत रहे थे और उनके कटे सिरों से फ़ुटबॉल खेल रहे थे?"

लेफ्टिनेंट जनरल गफ़ूर ने कहा था, "यह पाकिस्तानी सेना थी, जिसने चरंमपंथियों से लोहा लिया और उन्हें भागने के मजबूर किया. अब जब हालात अच्छे हो रहे हैं. विकास और राहत कार्य शुरू हो चुके हैं, तो वे लोग "तहाफ़ुज" (संरक्षण) की बात कर रहे हैं. "

लेफ्टिनेंट जनरल आसिफ़ गफ़ूर ने पीटीएम को चेतावनी देते हुए कहा था, "आपका वक़्त ख़त्म हो चुका है."

उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा था, "आप सेना से कौन-सा बदला लेने की बात कर रहे हैं? क्या आप सेना को चुनौती दे सकते हैं? उन्होंने कहा, सरकार से कोई नहीं लड़ सकता. अगर हमें आर्मी चीफ़ ने आपसे नरमी से पेश आने के लिए नहीं कहा होता, तो हम..."

"मुद्दा यह है कि हम जिन लोगों की देखभाल कर रहे हैं, आप (पीटीएम) उन्हें गुमराह कर रहे हैं. हमें उनकी परेशानियों की परवाह है. उनकी तकलीफ़ों को हम समझ रहे हैं, वरना आप लोगों से किस तरह से पेश आना चाहिए, वह हमें आता है".

दोनों तरफ़ के हमलावर बयानों के बाद पीटीएम और प्रशासन के बीच संपर्क कट गए. मेनस्ट्रीम मीडिया में पीटीएम के कवरेज पर पाबंदी लगा दी गई. पीटीएम के नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर मुक़दमे किए गए.

लेकिन पीटीएम के ख़िलाफ़ सरकार के इस अभियान का उल्टा असर हुआ. पश्तून बहुल इलाक़ों में पीटीएम की लोकप्रियता बेहद बढ़ गई.

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इसके बाद संसद में अभूतपूर्व राष्ट्रीय सहमति दिखाते हुए 31 मई 2018 को पहले के जनजातीय इलाक़ों को ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह प्रांत में मिला दिया गया. इस क्षेत्र का प्रशासन जिन ख़ास नियमों से चलाया जाता था, उन्हें ख़त्म कर दिया गया. इस विलय से पूर्व फाटा (FATA ) इलाक़ों का मुख्यधारा में शामिल होने का रास्ता खुल गया.

पहले यह इलाक़ा ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए अलग क़ानूनों से संचालित होता था. लेकिन विलय से जनजातीय इलाक़ों के लोगों को भी पाकिस्तान के दूसरे इलाक़ों के लोगों जैसे अधिकार मिल गए. अब देश भर में जो क़ानून लागू थे, वे यहाँ भी लागू हो गए.

सेना इस विलय का लंबे समय से समर्थन कर रही थी लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि पीटीएम ने जो दबाव बनाया था, उसने स्थानीय लोगों की इस माँग को इतनी जल्दी पूरा होने का रास्ता साफ़ किया.

स्थानीय लोगों की माँगों की वजह से सुरक्षा प्रतिष्ठानों ने इस मामले में सभी धारा की राजनीतिक ताक़तों को एक मंच पर लाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया. इसी वजह से इन जनजातीय इलाक़ों का ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह में विलय हो सका.

विचारधारा नहीं माँगों पर आधारित संघर्ष

फाटा यानी संघ प्रशासित जनजातीय एजेंसी को मुख्यधारा में शामिल हुए एक साल से अधिक समय हो चुका है. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि पीटीएम ने अपनी रवानी खो दी है. जो लोग ऐसा मानते हैं, उनमें से एक प्रोफ़ेसर डॉक्टर हुसैन सुहरवर्दी भी हैं.

वह कहते हैं, "मंजूर पश्तीन ने जो आंदोलन शुरू किया था, वह उस दौर के हिसाब से कुछ प्रासंगिक मुद्दों और सवालों पर टिका था. राज्य (सरकार) और सेना ने इन मुद्दों और सवालों के जवाब दे दिए. एक बार जब समस्याएँ सुलझ जाती हैं, तो इस तरह के आंदोलन ठंडे पड़ जाते हैं. पीटीएम के साथ यही हुआ."

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डॉक्टर हुसैन सुहरवर्दी जनजातीय लोगों की त्रासदी को सामने लाने में पीटीएम के योगदान को स्वीकार करते हैं. लेकिन वह कहते हैं कि इलाक़े में अब तेज़ विकास, परियोजनाओं की संख्या में इजाफ़े और पहले के जनजातीय इलाक़ों की प्रगति की योजनाओं से स्थानीय लोगों को लगने लगा है कि उन पर ध्यान दिया जा रहा है. सरकार उनकी शिकायतों को सुन रही है. सरकार से उन्हें जो उम्मीदें थीं, वे पूरी हो रही हैं.

सुहरवर्दी कहते हैं, "पश्तीन का आंदोलन कभी भी राजनीतिक विचारधारा पर आधारित नहीं रहा. यह एक सामाजिक आंदोलन था, जिसकी कुछ माँगें थी. इसलिए माँगें पूरी होने के साथ इस तरह के आंदोलन का धीमा पड़ना स्वाभाविक है."

डॉक्टर सुहरवर्दी मानते हैं कि विदेशी मदद के आरोपों से पीटीएएम की लोकप्रियता को झटका लगा है. उन्होंने कहा कि पाकितानियों को राजनीतिक विमर्श और असहमतियाँ मंज़ूर हैं, लेकिन जब उन्हें यह अहसास होता है कि चीज़ें राज्य को अस्थिर करने के लिए हो रही हैं और दूसरे देश हस्तक्षेप कर रहे हैं, तो वे इसे नापसंद करने लगते हैं. हो सकता है कि आंदोलन को विदेशी मदद वाली अवधारणा सेना ने बनाई हो, लेकिन इसने पीटीएम की प्रतिष्ठा को नुक़सान तो पहुँचाया ही है. डॉ. हुसैन सुहरवर्दी के मुताबिक पीटीएम की अंदरुनी गुटबाज़ी ने भी इस आंदोलन को नुक़सान पहुँचाया है.

वह कहते हैं, "पीटीएम के अंदर दो तरह की मानसिकता है. मंजूर पश्तीन की अगुआई वाला धड़ा चुनावी राजनीति में भरोसा नहीं करता. लेकिन इसी संगठन में अली वज़ीर और मोहसिन दावर जैसे लोग भी हैं, जिन्होंने चुनाव लड़ा और इस संघर्ष को संसदीय राजनीति कि ज़रिए आगे बढ़ाया. आंदोलन में रणनीति के इस भ्रम ने भी इसे नुक़सान पहुँचाया."

'आप अपनी सीमा से आगे बढ़ रहे हैं'

राजनीतिक टिप्पणीकार रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई का मानना है कि पीटीएम के समर्थन का मूल आधार युद्ध से तबाह क्षेत्रों में ही है. पहले के जनजातीय इलाक़ों में उसका यह जनाधार अब भी क़ायम है. लेकिन विदेशी फ़ंडिंग के आरोपों से पाकिस्तान के दूसरे इलाक़ों में आंदोलन की छवि पर असर पड़ा है.

वह कहते हैं, "पश्चिमी देशों में जब पीटीएम के प्रदर्शन होते हैं, तो अफ़ग़ानिस्तान के पश्तून भी इसमें हिस्सा लेते हैं. सीमा पार से मिलने वाली यह मदद तो कुछ हद तक साफ़ दिखती है. आंदोलन को विदेशी मदद मिलने की धारणा ने पीटीएम को ख़ासकर ग़ैर पश्तून इलाक़े में काफ़ी नुक़सान पहुँचाया है."

इसके बावजूद रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई का मानना है सेना के प्रवक्ता जिस तरह से ख़तरे के निशान को पार करने की बात कर रहे हैं, उससे लगता है कि विदेशी मदद के आरोपों में कुछ न कुछ तो दम है ही. अगर ऐसा नहीं होता, तो सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ पीटीएम के ख़िलाफ़ इस तरह खुलेआम ताल ठोक कर आरोप नहीं लगा सकती थी.

लेकिन पीटीएम लगातार कह रही है कि वह इन आरोपों का सामना करने के लिए तैयार है. दूसरी ओर सेना कह रही है कि आंदोलन को विदेशी मदद के ठोस सबूत हैं. लेकिन उसने इन सबूतों को पेश भी नहीं किया है.

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स्वात के सिख पंजाबी नहीं पशतून हैं

रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई का कहना है, "अगर सरकार और सेना के पास पीटीएम को विदेशी फ़ंडिंग मिलने के सबूत हैं, तो उन्हें, इसे सार्वजनिक रूप से पेश करना चाहिए और फिर पीटीएम पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है."

रहीमुल्ला यूसुफ़ज़ई का विश्लेषण बताता है कि पीटीएम की लोकप्रियता बरकरार है, ख़ासकर पश्तून युवाओं में.

वह कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि पीटीएम कमज़ोर हुई है. पीटीएम के लोग अब भी खुले तौर पर रैलियाँ कर रहे हैं. जब भी उन्हें सरकार से शिकायत होती है, वे रैलियाँ निकालते हैं. आंदोलन अभी ज़िंदा है और काफ़ी लोकप्रिय भी है. ख़ासकर उन इलाक़ों में, जहाँ लोगों को आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध का बहुत ज़्यादा ख़ामियाजा भुगतना पड़ा है."

रहीमुल्ला की नजर में पीटीएम को अब ऐसे मुद्दे उठाने चाहिए, जो प्रासंगिक हों. अगर पाकिस्तान में इस आंदोलन को ज़िंदा रखना है, तो क़ानून के दायरे में रह कर ही संघर्ष करना होगा.

वह कहते हैं, "शुरू में पीटीएम की पाँच माँगें थी. इसे इन्हीं पर फ़ोकस रखना होगा. नेताओं को गिरफ़्तारियाँ और लोगों पर लादे जाने वाले मुक़दमों का ज़रूर विरोध करना चाहिए. लेकिन अगर वे अपनी मूल माँगों से भटकते हैं और ऐस मुद्दों को उठाते हैं, जो उनसे जुड़े नहीं हैं तो वे परेशानी में फँसेंगे."

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