कोरोना वैक्सीन की रेस में कैसे पिछड़ गया यूरोप? - दुनिया जहान
- टीम बीबीसी हिन्दी
- नई दिल्ली

इमेज स्रोत, Reuters
साल 2020. जून का महीना.
यूरोप के चार देश जर्मनी, फ्रांस, इटली और नीदरलैंड्स एस्ट्राज़ेनेका की कोविड-19 वैक्सीन खरीदने का समझौता करने के करीब थे. तब तक वैक्सीन तैयार नहीं हुई थी.
इस डील को लेकर यूरोप के बाकी देशों की राय कुछ अलग थी. उनके मुताबिक इस तरह का समझौता यूरोपीय यूनियन के जरिए होता तो ज़्यादा बेहतर रहता और फिर वैक्सीन समझौतों से जुड़ी सभी चर्चाएं यूरोपीय कमीशन के अधिकारियों के सुपुर्द कर दी गईं.
अगले एक महीने में ख़ास प्रगति नहीं हुई. दो महीने बाद एस्ट्राज़ेनेका के साथ मूल समझौते पर सहमति बनी और तीन महीने बाद यानी सितंबर में यूरोपीय संघ एक और समझौते के करीब पहुंच गया.
इसके साथ यूरोपीय यूनियन को वैक्सीन की इतनी खुराकें मिलनी तय हो गई कि जिससे यूरोप की कुल आबादी का कई बार टीकाकरण हो सके.
लेकिन जब की आपूर्ति का वक़्त आया तो यूरोप पिछड़ गया, जिस वक़्त ब्रिटेन अपनी कुल आबादी के 17 फ़ीसद लोगों को कम से कम एक टीका लगा चुका है और अमेरिका में ये संख्या नौ फ़ीसद है. उसी वक़्त यूरोप के सिर्फ़ तीन फ़ीसद लोगों को टीका लगा है.
इमेज स्रोत, Reuters
'सामूहिक ग़लती'
इसकी वजह बताते हुए थिंकटैंक ब्रूगल के डॉयरेक्टर गुंट्रम वुल्फ़ कहते हैं, "जब महामारी शुरू हुई तो ईयू के पास कोई ढांचा नहीं था, ख़ासकर वैक्सीन विकसित करने या फिर उसकी खरीद के लिए. उनके पास न कोई विशेषज्ञता थी और न ही कोई व्यवस्था."
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर
समाप्त
लेकिन यूरोपीय कमीशन की प्रेसिडेंट उर्सुला फॉन डे लाएन अलग तर्क से यूरोप का बचाव करती हैं.
वैक्सीन हासिल करने को लेकर वो कहती हैं, "कोई देश जब खुद के लिए कोशिश करता है तो वो स्पीड बोट के जैसे होता है जबकि ईयू की स्थिति टैंकर की तरह रही."
रिकॉर्ड की बात करें तो कई महीने तक महामारी से जूझने के बाद यूरोपीय यूनियन में ये सहमति बन पाई कि वैक्सीन की ख़रीद एक समूह के तौर पर होगी. लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं हुआ. हर देश के पास अलग सुझाव था. कुछ देशों का सवाल था कि जो वैक्सीन अभी विकसित होने के क्रम में हैं, उन पर धन खर्च करना कितना सही है?
गुंट्रम वुल्फ़ कहते हैं, "तब सोच ये थी कि कंपनियां खुद ही अपना उत्पादन बढ़ाएंगी. उस समय ज़्यादा वैक्सीन का ऑर्डर देने को लेकर भी सावधानी रखी जा रही थी. यूनियन के कई सदस्य देशों को वैक्सीन की कामयाबी को लेकर संदेह था."
यूरोपीय यूनियन के कुछ देश प्रक्रिया का हिस्सा बने रहना चाहते थे. वो चाहते थे कि कंपनियों के साथ करार किए जाएं जबकि कुछ देशों की राय थी जब तक वैक्सीन की कामयाबी तय न हो जाए, तब तक इस पर ज़्यादा रकम खर्च करना ठीक नहीं है.
गुंट्रम वुल्फ़ बताते हैं, "असल दिक्कत कुछ समय के बाद सामने आई. जब ये साफ हो गया कि कुछ टीकों के क़ामयाब होने की संभावना है तब कंपनियों को ज़्यादा रकम दिए जाने की जरूरत थी. उत्पादन बढ़ाने की नीति की जरूरत थी. उस वक़्त ऐसा नहीं किया गया."
"यूरोप से फार्मा कंपनियों को वैक्सीन के ज़्यादा ऑर्डर नहीं मिले थे. वो संभावित मांग को लेकर अनुमान नहीं लगा पा रहे थे और ये तय नहीं कर पा रहे थे कि उन्हें कितनी अतिरिक्त फैक्ट्रियों की जरूरत होगी. शुरुआत में ऑर्डर देने में जो देरी हुई, वो एक साझा ग़लती है."
बाद में ईयू छह अलग-अलग कंपनियों से वैक्सीन की दो अरब से ज़्यादा खुराक खरीदने पर सहमत हो गया. लेकिन समझौता करते वक़्त ज़ोर इस बात पर था कि वैक्सीन कम कीमत पर मिलें. इससे ईयू को बचत हुई लेकिन दवा कंपनियों को उत्पादन क्षमता बढ़ाने लायक रकम नहीं मिल पाई.
गुंट्रम वुल्फ़ कहते हैं इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या कीमत एक मुद्दा थी?
वो कहते हैं, "यूरोप को फाइज़र बायोएनटेक की वैक्सीन इसराइल और दूसरी जगहों के मुक़ाबले कम कीमत में मिली. बहस ये भी हो सकती है कि अगर ऊंची कीमत पर पहले ज़्यादा ऑर्डर दिए गए होते तो कंपनियां उत्पादन क्षमता बढ़ा सकती थी. ज़्यादा ऑर्डर बुक किए गए होते तो पूरी दुनिया में वैक्सीन की सप्लाई बढ़ गई होती."
इमेज स्रोत, Getty Images
जवाबदेही लेने से इनकार
तब वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां 'मेडिकल जवाबदेही' को लेकर भी सुरक्षा चाहती थीं.
वो इस सवाल का जवाब चाहती थीं कि अगर टीका लगाने के बाद मरीज़ को किसी तरह का रिएक्शन होता है तो मुआवज़ा कौन देगा?
ईयू ने ये ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया. यहां ये भी समझना अहम है कि जैविक उत्पाद तैयार करने में तमाम अनिश्चिताएं होती हैं. इसे विश्वसनीय बनाने के लिए समय और धन की जरूरत होती है. इसलिए बीते साल दिसंबर में जब फाइज़र ने उत्पादन में देरी होने का एलान किया तो हैरानी नहीं हुई.
जनवरी में दवा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका ने भी यूरोप को झटका दे दिया. यूरोप को तीन महीने में नौ करोड़ खुराक मिलने की उम्मीद थी लेकिन भरोसा इसकी एक तिहाई खुराक का ही मिल सका. तब कई लोगों ने वैक्सीन खरीदने में ईयू की हिचक पर सवाल उठाए क्योंकि इसी दौरान ब्रिटेन और अमेरिका ने वैक्सीन हासिल करने के लिए साहसी दांव खेले थे.
इमेज स्रोत, Getty Images
यूरोप से आगे अमेरिका
'द इकॉनोमिस्ट' की हेल्थ पॉलिसी एडिटर नताशा लोडर बताती हैं कि 2020 की शुरुआत में जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना वायरस के ख़तरे को कमतर बता रहे थे, उसी दौरान उनका प्रशासन वैक्सीन विकसित करने में मदद कर रहा था और इस काम पर अरबों डॉलर खर्च किए जा रहे थे.
करीब 32 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका ने करीब 10 अरब डॉलर ख़र्च किए. वहीं, करीब साढ़े छह करोड़ की आबादी वाले ब्रिटेन ने भी इतनी ही रकम खर्च की. वहीं आबादी में दोनों से आगे रहने वाले यूरोप ने इनके मुक़ाबले आधी ही रकम खर्च की.
क्या अमेरिका में सरकारें दवा कंपनियों को ऐसे ही मदद देती हैं, इस सवाल पर नताशा लोडर कहती हैं, "ये नया चलन है. बीते साल ये साफ था कि अगर हम वाकई तेज़ी के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें दवा कंपनियों के रास्ते से आर्थिक जोखिम हटाने होंगे जिससे उनकी रफ़्तार धीमी न हो."
"आमतौर पर फार्मा कंपनियां शुरुआती ट्रायल के नतीजे अच्छे रहने पर अगले चरण के लिए निवेश करती हैं. इसी तरह उसके बाद के चरण को लेकर फैसला होता है. इस बार ये महसूस किया गया कि इतना इंतज़ार करना ठीक नहीं होगा. सरकार की प्रक्रिया में दाखिल हुई ताकि तमाम आर्थिक जोखिमों को परे किया जा सके."
इमेज स्रोत, Reuters
जोखिम भरे दांव
तथ्य ये है कि किसी भी वैक्सीन को मंजूरी मिलने के पहले ही अमेरिका ने कंपनियों से करार कर लिए थे. तब अमेरिकी सरकार ने निवेश के बदले क्या उम्मीद लगाई हुई थी, ये पूछने पर नताशा कहती हैं, "ये समझने के लिए आपको बीते साल अप्रैल का हाल याद करना होगा. उस वक़्त हम कोई चाहत नहीं रख सकते थे लेकिन हमारी उम्मीदें बहुत कुछ पाने की थीं. हमें तब ये भी नहीं पता था कि क्या वैक्सीन बनाना मुमकिन है?"
"याद कीजिए, उस वक़्त कई लोगों ने कहा था कि ये मुश्किल है. इसमें बहुत वक़्त लग सकता है. वैक्सीन के कामयाब होने की दर दस में से एक होती है. हो सकता है कि वैक्सीन काम न करे या फिर ऐसी वैक्सीन तैयार हो जिससे बीमारी की स्थिति और बिगड़ जाए. बाद में समीक्षा करना आसान होता है लेकिन हमें याद रखना होगा कि तब कुछ भी अंदाज़ा नहीं था."
लेकिन जब ये समझौते किए गए थे तब क्या इस तरह की समझ बनी थी कि उत्पादन अमेरिका और इसके नागरिकों के लिए होगा, इस सवाल पर नताशा कहती हैं, "अमेरिका की रणनीति साफ थी. वो चाहते थे कि वैक्सीन का उत्पादन अमेरिका में हो. इसी मकसद के साथ बड़ा निवेश किया गया था."
नताशा की राय में ब्रिटेन समझौते करने के मामले में अमेरिका से भी बेहतर साबित हुआ. ब्रिटेन ने जिन वैक्सीन पर दांव लगाया, उनके नतीजे उम्दा रहे. जबकि अमेरिका के हिस्से नाकामी भी आईं.
इमेज स्रोत, European Pressphoto Agency
कब तक लगेगा टीका?
यूरोप की बात करें तो यूरोपीय संघ अपने सदस्य देशों को ये नहीं बताता है कि वो अपना हेल्थ सिस्टम कैसे चलाएं. इस बात का फै़सला संबंधित देश की सरकारें ही करती हैं. यही वजह है कि यूरोप के तमाम देशों में होने वाले टीकाकरण की रफ़्तार में अंतर देखने को मिल सकता है.
एंटवर्प यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर वूटर डिवुल्फ़ कहते हैं, "ऐसे देश जहां व्यवस्था सिर्फ़ एक ही जगह केंद्रित नहीं है, वहां टीकाकरण तेज़ी से होना चाहिए. दरअसल, वहां आगे बढ़ना आसान होता है. स्पेन और बेल्जियम ऐसे ही देश हैं. नीदरलैंड्स और फ्रांस जैसे देश पिछड़ सकते हैं."
इन हालात के बीच किस तरह के स्वास्थ्य ढांचे को आदर्श कहा जा सकता है, इस सवाल पर वूटर डिवुल्फ़ कहते हैं, "तेज़ी से नया ढांचा तैयार करने के लिए ऐसी व्यवस्था बेहतर होती है, जहां सारी ताक़त एक जगह केंद्रित न हो. जैसे कि आपको बेल्जियम और डेनमार्क में दिखता है. लेकिन जब आप बड़े पैमाने पर टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू करते हैं, तब आप देखते हैं कि ब्रिटेन, फ्रांस और नीदरलैंड्स जैसे देश खामी की तेज़ी से भरपाई कर लेते हैं."
इमेज स्रोत, Press Association
'हर साल लगवाना होगा टीका'
ब्रिटेन की प्राथमिकता है कि हर किसी को टीके की पहली खुराक दी जाए. लेकिन कुछ देश ज़्यादा सतर्कता बरत रहे हैं. नीदरलैंड्स में किसी को भी पहली खुराक तभी दी जा रही है जब उसके लिए दूसरी खुराक की व्यवस्था हो. ऐसे में हर किसी को टीका लगाने में वक़्त लगेगा. इस बीच, कई ऐसे लोग भी हैं जो टीका नहीं लगवाना चाहते हैं.
वूटर डिवुल्फ़ बताते हैं, "पोलैंड, रोमानिया और बुल्गारिया में कई अफवाहें चल रही हैं. वहां 60 से 65 फ़ीसद लोग ही टीका लगवाना चाहते हैं. अगर आप डेनमार्क और स्वीडन को देखें तो वहां 80 से 85 फ़ीसदी लोग टीका लगवाना चाहते हैं."
फिक्र कोरोना वायरस के नए स्ट्रेन को लेकर भी है. वूटर कहते हैं कि जब तक कोविड-19 पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाता या फिर सामान्य बीमारी की तरह नहीं हो जाता है, तब तक हर साल टीके लगवाने पड़ सकते हैं. यानी टीकाकरण का कार्यक्रम अगले एक दो साल जारी रहेगा.
वैक्सीन की रेस में यूरोप के पिछड़ने के मुद्दे पर एयरफिनिटी के सीईओ रासमस हैंसन कहते हैं, "ईयू ने क्लिनिकल ट्रायल में ज़्यादा निवेश नहीं किया है. रिसर्च और डेवलपमेंट में कोई निवेश नहीं किया है. उन्होंने सिर्फ़ कुछ करार किए. सदस्य देशों ने भी इस दिशा में कुछ नहीं किया है. ऐसे में आज हमारे पास जितनी हो सकती थीं, उससे कम वैक्सीन हैं."
रासमस हैंसन कहते हैं कि जैसे-जैसे कोरोना वायरस के नए वेरिएंट सामने आएंगे, हमें नई वैक्सीन की जरूरत होगी. इसलिए ईयू को अपनी ग़लतियों से जल्दी सबक लेना होगा. रासमस ये भी कहते हैं कि तमाम देशों को ये समझना चाहिए कि वायरस का हमला कोई एक बार होने वाली घटना नहीं है. ये लगातार जारी रहने वाली जंग है. वो कहते हैं कि हमें वैक्सीन की तैयारी और जैव सुरक्षा को लेकर दोबारा सोचने की जरूरत है.
रासमस हैंसन कहते हैं, "अगर ये कहा जाए कि दुनिया पर हमला होने वाला है. तब हमारी बहुत तेज़ प्रतिक्रिया देखने को मिलती है. सरकार के पास जितने संसाधन होते हैं, सबका इस्तेमाल किया जाता है. तब आपको जल्दी से फ़ैसले लेने होते हैं. आप देखिए कि कोविड-19 से कितने सारे लोगों की मौत हुई. वैश्विक अर्थव्यवस्था पर इसका बड़ा असर हुआ. हम दोबारा ऐसा झटका झेलने की स्थिति में नहीं हैं. मुझे लगता है कि आपको जो निवेश करना है वो अरबों में होगा. लेकिन ऐसी महामारी की स्थिति में जो घाटा हो सकता है, उसके मुक़ाबले ये रकम काफी कम है.
रासमस की राय है कि धीमी शुरुआत के बावजूद यूरोप अब कुछ सबक सीख रहा है. वो कहते हैं कि फिलहाल कई पॉजिटिव ट्रेंड दिख रहे हैं. कई कंपनियां आगे आ रही हैं और वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने में मदद कर रही हैं. ईयू के सदस्य देश और कंपनियां साथ मिलकर काम कर रहे हैं. इससे सप्लाई की क्षमता बढ़ रही है.
इमेज स्रोत, Reuters
दिखानी होगी सक्रियता
लेकिन अगर सरकारें दवा कंपनियों के साथ बेहतर साझेदारी कर भी लें तब भी वैक्सीन हासिल करने में अमेरिका और ब्रिटेन को जिस तरह की कामयाबी मिली है, वैसी यूरोप में दिखना मुश्किल है. रासमस की राय है कि कई बार जहां आपकी दिलचस्पी है, वहीं सभी की दिलचस्पी बन जाती है.
वो कहते हैं, "अगर अमेरिका ने राष्ट्रवादी रुख नहीं दिखाया होता तो मॉडर्ना की वैक्सीन तैयार नहीं होती. फाइज़र की वैक्सीन भी नहीं बनती. इस महामारी से एक और चीज सीखने को मिली है कि सभी देशों को ये तय करना चाहिए कि उनके पास कम से कम कुछ वैक्सीन को बनाने की क्षमता होनी चाहिए."
अमेरिका और ब्रिटेन का रुख भले ही देखने में ऐसा लगे कि वो खुद के ही बारे में सोच रहे हैं लेकिन इससे कंपनियों को दूसरे देशों के लिए भी उत्पादन क्षमता बढ़ाने का भरोसा मिला. अब दूसरी सरकारों को भी सक्रियता दिखानी होगी.
वैक्सीन की जरूरत सिर्फ़ यूरोप को नहीं है बल्कि पूरी दुनिया को है. वायरस के ख़िलाफ़ जंग कई मोर्चों पर लड़ी जाएगी और संभव है कि ये लड़ाई कुछ बरसों तक जारी रहे.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकतेहैं.)