सऊदी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान क्या अब उतने ताक़तवर रह पाएंगे?

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ख़ाशोज्जी हत्याकांड: अमेरिका - सऊदी रिश्तों पर क्या असर डालेगी ये ख़ुफ़िया रिपोर्ट

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सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या से जुड़ी अमेरिकी इंटेलिजेंस रिपोर्ट का जारी होना मध्य-पूर्व के सबसे ताक़तवर लोगों में शुमार सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की ताक़त, प्रतिष्ठा और अंतरराष्ट्रीय हैसियत के लिए एक झटके जैसा है.

रिपोर्ट में बताया गया है कि ख़ाशोज्जी की हत्या के लिए मोहम्मद बिन सलमान ने स्वयं मंज़ूरी दी थी.

इस घटना का असर आने वाले कई दशकों तक पश्चिमी देशों और सऊदी अरब के आपसी रिश्तों पर देखा जा सकता है.

इस हत्या में मोहम्मद बिन सलमान उर्फ़ एमबीएस की संलिप्तता होने पर ज़ोर दिये जाने से पश्चिमी देशों के नेताओं के लिए सार्वजनिक तौर पर उनके साथ निजी रिश्ते रख पाना मुश्किल हो जाएगा.

लेकिन इसके बावजूद ऐसा दिखाई देता है कि मोहम्मद बिन सलमान लंबे वक़्त तक सऊदी सत्ता पर काबिज रहने वाले हैं.

वे अभी महज़ 35 साल के हैं और सऊदी अरब के युवाओं में उनकी लोकप्रियता काफ़ी ज़्यादा है. इसकी एक वजह देशभक्ति है और दूसरी वजह बड़े पैमाने पर नागरिकों की आज़ादी पर लगाई गई पाबंदियों से मुक्ति भी हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ये संकेत दे चुके हैं कि वे एमबीएस की बजाय सऊदी किंग सलमान के साथ रिश्ते रखना चाहते हैं.

लेकिन, किंग सलमान और एमबीएस के बीच काफ़ी नजदीकी ताल्लुकात हैं और दोनों के बीच फ़र्क़ करना मोटे तौर पर बेमानी बात होगी.

85 साल के किंग सलमान की सेहत ठीक नहीं है. वह पहले ही अपनी ज़्यादातर शक्तियां एमबीएस को दे चुके हैं.

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ख़ाशोज्जी की हत्या का सनसनीख़ेज टेप

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पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों को ये बात लंबे समय से पता थी कि क्राउन प्रिंस के तार ख़ाशोज्जी हत्याकांड से जुड़े हैं. बस इस बात को सार्वजनिक नहीं किया गया था.

अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसी सीआईए की निदेशक रहीं गिना हैस्पेल ने तुर्की की राजधानी अंकारा पहुंचकर ये टेप सुना.

हैस्पेल जब अंकारा पहुंचीं तो तुर्की के ख़ुफ़िया अधिकारियों ने ख़ाशोज्जी के आख़िरी पलों का बेहद सनसनीख़ेज ऑडियो टेप सुनाया.

इस टेप में ख़ाशोज्जी को तुर्की में स्थित सऊदी दूतावास के भीतर सऊदी अरब के भेजे गए एजेंट्स द्वारा दबोचे जाने और गला दबाए जाने के दौरान संघर्ष करते सुना जा सकता है.

सऊदी दूतावास के भीतर तुर्की का ख़ुफ़िया रिकॉर्डिंग करना कूटनीतिक तौर पर ग़लत व्यवहार का उदाहरण है.

हालांकि, ख़ाशोज्जी की घृणित हत्या को देखते हुए इसे बड़े तौर पर उपेक्षित कर दिया गया. इस रिकॉर्डिंग को पश्चिमी देशों की ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ भी साझा किया गया था.

अमेरिकी अधिकारियों ने निष्कर्ष निकाला कि “मध्यम से लेकर उच्चतम स्तर तक निश्चितता” है कि एमबीएस इसमें संलिप्त थे.

ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए इस ख़ुफ़िया रिपोर्ट को बाहर नहीं आने दिया गया ताकि अमेरिका के निकट सहयोगी सऊदी अरब को बदनामी से बचाया जा सके. हालांकि, अब वह सुरक्षा कवच हट गया है.

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अमेरिका की पसंद नहीं हैं एमबीएस

सऊदी अरब के किंग बनने के लिए एमबीएस अमेरिका की पहली पसंद नहीं थे. अमेरिका चाहता था कि प्रिंस मोहम्मद बिन नायेफ को अगला किंग बनाया जाए.

नायेफ ही सत्ता पाने की क़तार में सबसे आगे थे. हालांकि, एमबीएस ने उन्हें 2017 में हटा दिया.

नायेफ को एमबीएन भी कहा जाता है. वे फ़िलहाल हिरासत में हैं. उन पर भ्रष्टाचार और युवराज के ख़िलाफ़ साज़िश करने के आरोप लगे हैं. हालांकि, उनका परिवार इन आरोपों से इनकार करता है.

वर्षों तक एमबीएन सऊदी शाही परिवार में अमेरिका के सबसे अहम सहयोगी रहे. बतौर आंतरिक मंत्री उन्होंने अल-क़ायदा के चरमपंथ को ख़त्म करने में सफलता पाई थी. अपने ख़ुफ़िया प्रमुख साद अल-जाबरी के साथ मिलकर नायेफ ने सीआईए के साथ नजदीकी रिश्ते स्थापित किए थे.

अल-जाबरी अब कनाडा में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं और उन्होंने अदालत में दावा किया था कि एमबीएस ने उन्हें मारने के लिए एक दस्ता भेजा था.

ऐसे में मौजूदा युवराज को लेकर सीआईए की असहजता स्पष्ट है.

सीआईए को अभी भी सऊदी शाही दरबार में एक अच्छे रिश्ते बनाने हैं. सीआईए के लिए यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आईएस और अल-क़ायदा के वैश्विक चरमपंथ के ख़तरे अभी ख़त्म नहीं हुए हैं.

हालांकि, सीआईए एमबीएन जैसे किसी धीर गंभीर और सुरक्षित शख़्स के साथ कामकाज़ करने को तरजीह दे रही है और वह एमबीएस जैसे अनपेक्षित रूप से कुछ भी करने वाले शख्स के साथ नहीं जाना चाहती है.

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ईरान के लिए मौक़ा

सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों में पैदा होने वाली कोई भी खटास सऊदी अरब के क्षेत्रीय दुश्मन ईरान के लिए एक तोहफ़े जैसी है.

जानकार मानते हैं कि वर्षों से जारी पाबंदियों के साये में रहने के बावजूद ईरान ने मध्य पूर्व में एक ज्यादा पुख्ता मुकाम हासिल कर लिया है.

अपने छद्म लड़ाका संगठनों के जरिए लेबनॉन, सीरिया, इराक और यमन तक ईरान ने अपनी रणनीतिक पहुंच बना ली है. और इस तरह से सऊदी अरब एक तरह से घिर गया है.

जब राष्ट्रपति बाइडन ने यमन में लड़ाई के लिए सऊदी अरब को अमेरिकी हथियार देने पर रोक लगाने का ऐलान किया तो ईरान के समर्थन वाले हूती विद्रोहियों ने इसका तत्काल फायदा उठाया.

हूती विद्रोही तब से ही कई मोर्चों पर बढ़त हासिल कर चुके हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनके दुश्मन के सामने हथियारों का संकट है.

लंबे वक्त के लिहाज से अगर देखा जाए तो यह सऊदी नेतृत्व को रक्षा और सुरक्षा भागीदारी में नए देशों को साथ जोड़ने के लिए मजबूर कर सकता है.

खासतौर पर सऊदी अरब रूस और चीन के साथ नजदीकी बढ़ा सकता है.

इसके अलावा, सऊदी अरब इसराइल के साथ भी नजदीकियां बढ़ा सकता है. ईरान को लेकर सऊदी अरब और इसराइल एक जैसे डर को महसूस करते हैं.

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