क़ादर मुल्लाः छात्र नेता से 'युद्ध अपराधी' तक

साल 1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की स्थापना के विरोधी रहे अब्दुल कादर मुल्ला को बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई थी और उन्हें गुरूवार देर शाम फांसी हो गई.
अभियोजन पक्ष के मुताबिक़ क़ादर मुल्ला चरमपंथी संगठन अल बदर के सदस्य थे और उन्हें मुक्ति संग्राम के दौरान 344 नागरिकों की हत्या और अन्य अपराधों में दोषी क़रार दिया गया था.
युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पांच फरवरी 2013 में उन्हें युद्ध अपराध के छह में से पांच आरोपों में दोषी पाया था.
हालांकि जमात-ए-इस्लामी अपने नेताओं पर लगे युद्ध अपराधों के आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताती है.
मानवाधिकार संगठन भी युद्ध अपराधों के इन मुकदमों की प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहे हैं.
65 वर्षीय मुल्ला बांग्लादेश की सबसे बड़ी धार्मिक पार्टी के जमात-ए-इस्लामी के उप महासचिव थे और छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे थे.
इस्लामी छात्र संघ
वर्ष 1966 में जब मुल्ला फरीदपुर के राजेन्द्र कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई कर रहे थे तो उसी दौरान जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा से जुड़े.
तब इसे इस्लामी छात्र संघ के नाम से जाना जाता था और क़ादर मुल्ला इसके अध्यक्ष चुने गए.
स्नातक होने के बाद साल 1968 में उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए ढाका विश्वविद्यालय का रुख़ किया. इस दौरान वह इस्लामी छात्र संघ की शहीदुल्लाह हॉल इकाई के अध्यक्ष चुने गए.
साल 1971 में जमात के नेताओं ने पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) की आज़ादी का विरोध किया. उनका तर्क था कि किसी मुस्लिम देश को तोड़ना इस्लाम के ख़िलाफ़ है.
इस्लामी छात्र संघ का सदस्य होने के नाते क़ादर मुल्ला मुक्ति संग्राम के दौरान चरमपंथी संगठन अल बदर से जुड़े.
बांग्लादेश की आज़ादी के बाद नई सरकार ने जमात की राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया.
बांग्लादेश के संस्थापक और तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीबुरर्हमान की 1975 में हत्या और सैन्य तख्तापलट के बाद बनी नई सरकार ने जमात को फिर से राजनीति में आने की इजाज़त दे दी.
इसके बाद क़ादर मुल्ला राजनीति में सक्रिय हो गए और 2010 आते-आते वह पार्टी के सहायक महासचिव बन गए.
साल 2009 में शेख हसीना सरकार ने 1971 की लड़ाई के दौरान हुए युद्ध अपराधों के अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने लिए युद्ध अपराध न्यायाधिकरण का गठन किया.
क़ादर मुल्ला के ख़िलाफ़ 18 दिसंबर 2011 को याचिका के रूप में आरोप दायर किए गए. यह आरोप 1973 में बने क़ानून की धारा 9 (1) के तहत लगाए गए.
उन पर मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना का साथ देने और ढाका के मीरपुर इलाक़े में लोगों पर ज्यादतियां करने, बलात्कार (नाबालिगों के साथ बलात्कार) और जनसंहार के आरोप लगाए गए. 'राजकार मिलिशिया' के सदस्य के तौर पर उन पर 344 नागरिकों की हत्या का आरोप लगाया गया.
सज़ा
1973 अधिनियम की धारा 20 (3) के तहत युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पाँच फरवरी 2013 को क़ादर मुल्ला को उम्रकैद की सजा सुनाई. इसके अतिरिक्त उन्हें 15 साल की और सज़ा सुनाई गई.
इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ देश व्यापक प्रदर्शन हुए जिसे बाद में 'शाहवाग आंदोलन' का नाम दिया गया. प्रदर्शनकारी क़ादर मुल्ला के लिए मौत की सज़ा की मांग कर रहे थे.
जल्दी ही विरोध प्रदर्शन ढाका और देश के दूसरे इलाक़ों में भी फैल गया.
प्रदर्शनकारियों ने युद्ध अपराध में दोषी करार दिए गए लोगों को मौत की सज़ा दिए जाने और जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने की मांग की.
इसके विरोध में जमात-ए-इस्लामी ने भी देशभर में हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए. उसके कार्यकर्ता दोषी पाए गए अपने नेताओं को रिहा करने की मांग कर रहे थे.
तीन मार्च 2013 को सरकार ने क़ादर मुल्ला को मौत की सज़ा देने की अपील की जबकि इसके अगले ही दिन क़ादर मुल्ला ने रिहाई की अपील की.
आख़िरकार देश की सर्वोच्च अदालत ने 17 सितंबर 2013 को क़ादर मुल्ला को मुक्ति संग्राम के दौरान मीरपुर इलाक़े में हज़रत अली लस्कर और उनके परिजनों ही हत्या के जुर्म में मौत की सज़ा सुनाई.
युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पाच अन्य मामलों में क़ादर को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)