ख़्वाब पूरा करना है तो दिमाग को आराम दें
कहते हैं जो होता है, अच्छा होता है. किसी काम की मनाही, या कोई पाबंदी हमें बुरी ज़रूर लगती है. पर कई बार वो हमारे बड़े काम की साबित होती है.
पिछले महीने अमरीका के गृह मंत्रालय और ब्रिटेन के परिवहन विभाग ने एक फ़रमान जारी किया था. इसमें कहा गया था मध्य एशिया और उत्तरी अफ़्रीक़ा से गुज़रने वाली उड़ानों में आप स्मार्टफ़ोन के सिवा कुछ और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट जैसे लैपटॉप, या टैबलेट वग़ैरह लेकर नहीं जा सकेंगे.
आज के दौर में जहां इंसान को ये गैजेट्स ऑक्सीजन देने का काम कर रहे हों, तो, भला इनके बिना 12 घंटे का सफ़र कैसे संभव हो. लिहाज़ा ख़ूब हो-हल्ला हुआ. लेकिन सब बेकार, पाबंदी नहीं हटाई गई.
इस पाबंदी का मज़ाक़ उड़ाते हुए रॉयल जॉर्डेनियन एयरलाइंस ने ऐसी बारह कामों की फ़ेहरिस्त बनाई, जो आप बिना लैपटॉप या टैबलेट के बारह घंटे के सफ़र में कर सकते हैं. इन लिस्ट में ग्यारहवें नंबर पर जो सुझाव था वो था: ज़िंदगी के मायने समझने की कोशिश करें.
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यूं तो रॉयल जॉर्डेनियन एयरलाइन ने ये लिस्ट, अमरीका और ब्रिटेन की पाबंदी का मखौल उड़ाने के लिए बनाई थी. मगर सफ़र की बोरियत ख़त्म करने के उसके सुझावों की फ़ेहरिस्त में जो सबसे अहम बात थी, वो ये थी कि सफ़र के दौरान ज़िंदगी की अहमियत और उसके मतलब पर ग़ौर करना.
ये बड़े काम का मशविरा है. ख़ाली वक़्त में ख़ुद से बातें करते हुए आप ज़िंदगी के मसाइल पर ग़ौर फ़रमाएं. ख़ुद को वक़्त दें. आज के दौर में ऐसा सोचना भी दूर की कौड़ी है.
एक शिकायत आज बहुत कॉमन हो गई है कि बच्चे क्रिएटिव कामों से दूर रहते हैं. वो इसलिए कि आज बच्चे हों या बड़े, सबका ज़्यादा से ज़्यादा समय गैजेट्स के साथ गुज़रता है.
आज ज़िंदगी मशीनों से घिरी हुई है. अगर कहा जाए कि आज इंसान की ज़िंदगी मशीनें ही चला रही हैं तो ग़लत नहीं होगा.
ना रात में चैन की नींद नसीब होती है. ना दिन में सुकून के दो पल. कभी फ़ोन पर किसी से बात करनी है तो कभी किसी मेल का जवाब देना है, तो कभी सोशल साइट पर लोगों से ना चाहते हुए भी बात करनी है. क्योंकि मुक़ाबले में बने रहने के लिए पब्लिक रिलेशन बनाना भी तो ज़रूरी है.
तकनीक ने आपके हाथ में स्मार्ट फोन और टैबलेट दे दिए हैं.
लिहाज़ा घर हों या बाहर सभी जगह से ऑफ़िस और काम लगातार चलता रहता है.
कभी अपने बारे में दो पल सोचने का समय तक नहीं है. सिर्फ़ कमाने के अलावा हम ज़िंदगी से और क्या चाहते हैं, या ज़िंदगी हमसे क्या चाहती है, ये सोचने का हमें समय ही नहीं मिल पाता.
ऐसे में अगर रॉयल जॉर्डेनियन एयरलाइंस ने आपको सफ़र के दौरान ख़ुद अपने बारे में सोचने का मौक़ा दिया है तो ये वाक़ई एक क़ाबिले तारीफ़ क़दम है.
दिमाग को कभी खाली भी रखें
साल 2012 में एक रिसर्च में पता चला कि अपने ज़हन को खाली रखने पर बहुत सी परेशानियों का हल चुटकी में निकल आता है.
कई बार क्रिएटिव आईडिया भी आ जाते हैं. इंसान स्वभाव से ही दिन में सपने देखता है.
रचनात्मकता और सपनों में गहरा ताल्लुक़ होता है. महान वैज्ञानिक से लेकर नोबेल प्राइज़ जीतने वाले रसायनशात्रियों तक सब ने ख़ाली दिमाग़ का बेहतरीन इस्तेमाल किया है.
यहां तक कि दुनिया के बड़े बड़े विचारक भी इस बात का समर्थन करते हैं कि ज़हन को हर वक़्त किसी ना किसी काम में उलझा कर मत रखिए. उसे सुकून से काम करने का मौक़ा दीजिए.
अमरीकी मनोविज्ञानी एमी फ़्राइस का कहना है कि जब हमारा ज़हन सुकून में होता है, तो वो हमारी पुरानी यादों तक पहुंचता है. और ऐसे में वो ख़ुद ही आपकी मौजूदा स्थिति कोउन पुरानी यादों और जज़्बात से जोड़ता है.
एक नई सोच और आइडिया को जन्म देता है. आपने खुद भी देखा होगा जब आप तमाम फ़िक्रों से आज़ाद होकर कोई बात सोचते हैं तो ज़्यादा जल्दी और बेहतर मशविरा आपका ज़हन आपको देता है.
नया दिन नया आइडिया
अमरीका की ग्राफ़िक डिज़ाइनर मेगन किंग का कहना है कि कभी कभी वो पूरा दिन किसी प्रोजेक्ट पर काम करती हैं, लेकिन एक भी नया आइडिया ज़हन में नहीं आ पाता. और जब वो रात में सुकून की नींद लेकर उठती हैं, तो 15 मिनट में ही ज़्यादा नए आइडिया के साथ काम करना शुरू कर देती हैं.
लेकिन ऐसा करने का मौक़ा उन्हें कम ही मिल पाता है क्योंकि वो ज़्यादर वक़्त अपने स्मार्ट फ़ोन पर ही मसरूफ़ रहती हैं.
रिसर्च करने वाली कंपनी नील्सन के मुताबिक़ अमरीका में ज़्यादातर लोग रोज़ाना साढ़े दस घंटे गैजेट्स पर बिताते हैं.
ब्रिटेन में भी कुछ ऐसा ही हाल है. आज कोई भी ख़ाली ज़हन के साथ अकेला रहना ही नहीं चाहता है.
कुछ वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च के तहत कुछ लोगों को 6 से 15 मिनट के लिए बिना किसी गैजेट के ख़ामोश अकेले में बैठने को कहा और कुछ को इलैक्ट्रिक शॉक लेने का विकल्प दिया. हैरत की बात थी कि ज़्यादातर ने दूसरे विकल्प को चुना.
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अमरीका की वर्जिनिया यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर डेनियल विलिंघम का कहना है कि हमारा दिमाग़ ख़ाली वक़्त में अलग तरह से सोचता है. और जब हम कंप्यूटर, लैपटॉप या स्मार्टफ़ोन ताक रहे होते हैं, तो दिमाग़ अलग तरह से काम करता है.
हमारे दिमाग़ के दो हिस्से होते हैं. एक बाहरी और एक अंदरूनी. दिमाग का अंदरूनी हिस्सा दिन में ज़्यादा एक्टिव रहता है. इसे डिफॉल्ट नेटवर्क कहते हैं.
दिमाग़ का ये हिस्सा उस वक़्त ज़्यादा शिद्दत से काम करता है, जब आप खुद अपने बारे में सोच रहे होते हैं.
हालांकि दिमाग़ के ये दोनों हिस्से एक दूसरे से जुड़े होते हैं. लेकिन कभी भी एक साथ एक ही समय पर काम नहीं करते. इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि हमारे दिमाग़ का एक ही हिस्सा अक्सर काम करता रहता है.
ऐसे में जब आप किसी गैजेट के साथ होते हैं तो दिमाग़ क्रिएटिव नहीं हो पाता. आज कल के किशोरों और बच्चों के साथ तो ये दिक़्क़त और भी ज़्यादा है.
लेकिन अच्छी बात ये है कि लोग इस गंभीरता को समझ रहे हैं. बहुत से लोग ख़ुद ही गैजेट्स के इस्तेमाल को लेकर अपनी आदतें बदल रहे हैं. जैसे ग्राफिक डिज़ाइनर किंग ने खुद को फेसबुक से अलग कर लिया है, जहां वो सबसे ज़्यादा वक़्त देती थी.
इसी तरह प्रोफेसर विलिंघम भी जब चहलक़दमी के लिए निकलते हैं, तो, अपने साथ पहले की तरह पॉडकास्ट लेकर नहीं जाते. साथ ही उन्होंने टीवी और फोन का इस्तेमाल भी बहुत कम कर दिया है.
प्रोफ़ेसर एमी फ़्राइस का कहना है कि अगर आप ज़्यादा क्रिएटिव होना चाहते हैं तो ऐसे काम ज़्यादा कीजिए जिसमें आपको बहुत फोकस करने की ज़रूरत ना हो. जैसे ख़ाली वक़्त ख़ुद से बातें करें. या टहलने निकल जाएं.
दिन में खाली बैठकर ख़्वाब देखने की कोशिश करें. जो सपने आप देखें, उन्हें पूरा करने के लिए दिमाग को थोड़ा वक़्त दीजिए. संतुलित आहार लीजिए, नियम से वर्ज़िश करें.
सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि अच्छी नींद लें. अगर ये सब कर लिया तो आपको तो क्रिएटिव होने से कोई नहीं रोक सकता.
इस बात की आदत डालना ज़रूरी है कि आप ख़ाली वक़्त निकालें. ख़ुद से बातें करें. अपने जहन को सुकून दें. ख़्वाब देखें. और दिमाग़ को वक़्त दें कि वो उन ख़्वाबों को पूरा करने के लिए सोच सके.
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